सनातन विचार ही वह प्रकाश है, जहाँ से जीवन, धर्म और कर्तव्य—तीनों का सत्य प्रकट होता है।

कल्चरल मार्क्सवाद और पारंपरिक मार्क्सवाद


उन्नीसवीं शताब्दी का यूरोप तीव्र औद्योगिक परिवर्तन के दौर से गुजर रहा था।
भाप इंजन, कारखाने और मशीनें उत्पादन की गति को कई गुना बढ़ा चुकी थीं,
परंतु इस क्रांति का लाभ सबको समान रूप से नहीं मिला। एक ओर कुछ गिने-चुने
उद्योगपति और व्यापारी अपार संपत्ति के स्वामी बन बैठे, दूसरी ओर विशाल
श्रमिक वर्ग कठिन परिश्रम, लंबे कार्यघंटे और अल्प वेतन की बेड़ियों में जकड़ा रहा।
यह असमानता ही वह भूमि बनी, जिस पर कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स ने
अपनी विचारधारा का बीजारोपण किया।

मार्क्स ने अपने सिद्धांत में यह स्पष्ट किया कि किसी भी समाज की मूल संरचना
उसकी आर्थिक व्यवस्था से तय होती है। उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व रखने
वाला वर्ग — जिसे उन्होंने बुर्जुआ कहा — अपनी आर्थिक शक्ति के बल पर
राजनीतिक, सांस्कृतिक और वैचारिक प्रभुत्व बनाए रखता है, जबकि श्रम करने

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वाला वर्ग — प्रोलितारियात — शोषण का शिकार होता है। इस दृष्टिकोण को ही
ऐतिहासिक भौतिकवाद कहा गया, और यही पारंपरिक मार्क्सवाद की नींव बना।

बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक दशकों में रूस और चीन जैसी क्रांतियों ने इस विचार
को व्यवहार में उतारा। किंतु पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों में स्थितियाँ भिन्न थीं। वहाँ
का श्रमिक वर्ग अपेक्षाकृत बेहतर जीवन-स्तर, सामाजिक सुरक्षा और राजनीतिक
अधिकारों का आनंद ले रहा था; परिणामस्वरूप वह सशस्त्र क्रांति के लिए तैयार
नहीं था। यहीं से मार्क्सवादियों के एक वर्ग ने महसूस किया कि केवल आर्थिक संघर्ष
पर आधारित क्रांति इन समाजों में संभव नहीं होगी।

इसी सोच से कल्चरल मार्क्सवाद का बीज अंकुरित हुआ। इटली के विचारक
एंटोनियो ग्राम्शी ने कहा कि शासक वर्ग की वास्तविक शक्ति उसकी फैक्ट्रियों या
बैंकों में नहीं, बल्कि उसकी सांस्कृतिक प्रभुता में छिपी है। शिक्षा, धर्म, परिवार,
मीडिया और कला — ये सभी संस्थाएँ बहुसंख्यक वर्ग के मूल्यों को वैध ठहराती हैं
और जनता की सोच को उसी दिशा में मोड़ देती हैं। यदि इन्हें बदला जाए, तो
आर्थिक और राजनीतिक ढाँचा स्वयं बदल जाएगा।

इस विचार को आगे बढ़ाने में जर्मनी के फ्रैंकफर्ट स्कूल ने निर्णायक भूमिका निभाई।
हर्बर्ट मार्क्यूज़, थिओडोर अडोर्नो, मैक्स होर्खाइमर और एरिक फ्रॉम जैसे विचारकों
ने यह प्रतिपादित किया कि सत्ता का असली आधार सांस्कृतिक संस्थाएँ हैं। उन्होंने
संस्कृति, भाषा, कला, लिंग-भूमिकाओं और सामाजिक मानदंडों को ‘आलोचनात्मक
दृष्टि’ से पुनर्परिभाषित करने का आह्वान किया। यह रणनीति सीधे-सीधे टकराव के
बजाय धीमे, लेकिन गहरे बदलाव की थी — जिसे उन्होंने संस्थाओं में दीर्घकालिक
घुसपैठ (Long March Through the Institutions) कहा।

इस प्रकार जहाँ पारंपरिक मार्क्सवाद का संघर्ष बुर्जुआ बनाम प्रोलितारियात तक
सीमित था, वहीं कल्चरल मार्क्सवाद ने संघर्ष की परिधि को विस्तार देकर धर्म,
जाति, नस्ल, लिंग, भाषा और सांस्कृतिक पहचान को भी उसमें सम्मिलित कर

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लिया। आर्थिक वर्ग-संघर्ष की जगह पहचान-संघर्ष (Identity Conflict) इसका केंद्र
बना।

रणनीति में भी दोनों के बीच स्पष्ट अंतर है। पारंपरिक मार्क्सवाद प्रत्यक्ष क्रांति,
हड़ताल और विद्रोह के माध्यम से सत्ता पर कब्ज़ा चाहता था, जबकि कल्चरल
मार्क्सवाद शिक्षा, मीडिया, कला, साहित्य और मनोरंजन जगत को अपने विचारों
से प्रभावित कर, समाज की सोच को धीरे-धीरे बदलने का मार्ग अपनाता है।

धर्म और संस्कृति के प्रति दृष्टिकोण में भी भिन्नता है। पारंपरिक मार्क्सवाद ने धर्म
को आर्थिक शोषण का औजार मानते हुए नकारा, पर उसका मुख्य ध्यान उत्पादन-
संबंधों पर रहा। दूसरी ओर कल्चरल मार्क्सवाद धर्म — विशेषतः बहुसंख्यक धर्म
— को सत्ता-संरचना का केंद्र मानकर उसे सीधे निशाने पर लेता है। पारिवारिक
ढाँचा, विवाह-संस्था, और पारंपरिक नैतिकता को ‘दमनकारी ढाँचे’ के रूप में
प्रस्तुत कर इनके स्थान पर नई और मूल्य-निरपेक्ष संरचनाएँ स्थापित करने का
प्रयास करता है।

इस भिन्नता के बावजूद, दोनों विचारधाराओं का अंतिम उद्देश्य एक ही है —
मौजूदा व्यवस्था को समाप्त कर, अपने विचारों के अनुरूप नया सामाजिक ढाँचा
स्थापित करना। अंतर केवल इतना है कि पारंपरिक मार्क्सवाद इस लक्ष्य तक
पहुँचने के लिए तेज और प्रत्यक्ष मार्ग चुनता है, जबकि कल्चरल मार्क्सवाद धीमा,
पर अधिक गहन और टिकाऊ रास्ता अपनाता है।

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