हिंदू होना केवल किसी धर्म या जाति का अनुयायी होना नहीं है। यह एक जीवन-दृष्टि है, एक ऐसी यात्रा, जिसमें मनुष्य अपनी सीमाओं से ऊपर उठकर ईश्वरत्व की ओर बढ़ता है। हिंदू होने का अर्थ है—नर से नारायण बनने का प्रयत्न करना।
हमारे देश में यह प्रश्न बहुत बार उठता है—“हिंदू कौन है?” और “हिंदू की पहचान क्या है?” इस पर अनेक विचार हुए, पर अधिकतर लोगों ने इसकी व्याख्या केवल भौगोलिक सीमाओं के आधार पर की—कि जो सिंधु के पार रहता है, वही हिंदू है। परंतु यह अधूरी समझ है।
हिंदू शब्द का संबंध किसी भूभाग से नहीं, बल्कि जीवन के उच्च आदर्शों से है। यह शब्द उस व्यक्ति के लिए प्रयुक्त होता है जो मनुष्य से देवत्व की दिशा में अग्रसर है—जो अपने भीतर की दिव्यता को पहचानने का प्रयास करता है।
यदि हम हिंदू की परिभाषा को सीमाओं में बाँध देंगे, तो धर्म और अधर्म, देवत्व और दैत्यत्व के बीच अंतर मिट जाएगा।
महाभारत इसका स्पष्ट उदाहरण है—कौरव और पांडव दोनों एक ही वंश के थे, फिर भी भगवान श्रीकृष्ण पांडवों के पक्ष में खड़े हुए क्योंकि उनके पक्ष में धर्म था। यही सनातन दृष्टि है—संबंध नहीं, सत्य निर्णायक होता है।
हिंदू वही है जो धर्म के सिद्धांतों को मानता है—जो आत्मा, ब्रह्म, पुनर्जन्म और कर्म के नियमों पर आस्था रखता है। जो सृष्टि को केवल भौतिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक सत्ता के रूप में देखता है। जो जीवन को त्रिगुणात्मक—सत्त्व, रजस और तमस—के संतुलन के रूप में समझता है। जो वर्णाश्रम व्यवस्था को समाज का नैतिक ढाँचा मानता है और सृष्टि के आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक स्वरूप को पहचानता है। यही उसका धर्म है, यही उसकी पहचान।
अब्राह्मिक मत—चाहे इस्लाम हो या ईसाईयत—जीवन को एकरेखीय रूप में देखते हैं। उनके लिए जीवन एक बार का अवसर है, एक जीवन और उसके बाद न्याय या क़यामत। लेकिन हिंदू दृष्टि इससे भिन्न है।
हम सृष्टि को चक्रीय मानते हैं—जहाँ जन्म और मृत्यु के अनगिनत चक्र हैं। जहाँ कर्म के अनुसार आत्मा नई देह धारण करती है। विष्णु पुराण कहता है कि समस्त पृथ्वी पर यदि कहीं मोक्ष संभव है, तो वह केवल भारत भूमि पर है, क्योंकि यहाँ धर्म, ज्ञान और साधना का संगम है।
दुर्भाग्य यह है कि आज हम स्वयं अपने इन सिद्धांतों पर पर्याप्त शोध नहीं कर पाए हैं। जबकि अब्राह्मिक मतों ने अपने “One Life Concept” को विज्ञान और दर्शन के आवरण में प्रस्तुत कर विश्वभर में स्थापित कर दिया।
सनातन परंपरा से निकले कई संगठन—आर्य समाज, इस्कॉन, स्वामी नारायण संप्रदाय, गायत्री परिवार—ने अपने-अपने दृष्टिकोण से धर्म को परिभाषित किया, परंतु कई बार वे एकेश्वरवाद की संकीर्ण व्याख्या में उलझ गए। सत्य यह है कि सनातन धर्म किसी एक मत या एक ईश्वर में सीमित नहीं है; यह तो उस विराट चेतना का दर्शन है जिसमें सब कुछ समाया है—देवता भी, मनुष्य भी, प्रकृति भी और प्राण भी।
वैदिक परंपरा में भी विविध विचारधाराएँ हैं—जैसे बौद्ध, जैन और चार्वाक। इनमें बौद्ध और जैन आत्मा, पुनर्जन्म और कर्म के सिद्धांतों को मानते हैं, इसलिए वे सनातन से पूर्णतः पृथक नहीं। केवल चार्वाक दर्शन ही ऐसा है जो आत्मा और पुनर्जन्म को अस्वीकार करता है, अतः वह वास्तव में नास्तिक कहा गया है।
यदि आज हम पुनर्जन्म और कर्म सिद्धांत को तर्क, अनुभव और विज्ञान के आधार पर पुनः स्थापित कर सकें, तो विश्व का बड़ा वर्ग जो “One Life” की सीमित अवधारणा में बंधा है, वह भी सनातन के चिरंतन सत्य को स्वीकार करेगा।
क्योंकि जो व्यक्ति कर्म और पुनर्जन्म में विश्वास करता है, वही जीवन के प्रति उत्तरदायी बनता है। वही जानता है कि हर कर्म का फल अनिवार्य है और जीवन केवल एक अवसर नहीं, एक निरंतर यात्रा है।
इसलिए हिंदू होना किसी मत या पंथ का नाम नहीं है—यह जीव से शिव बनने की साधना है।
हिंदू होना अर्थात अपने भीतर की दिव्यता को पहचानना, धर्म के मार्ग पर चलना और जीवन को उस परम सत्य से जोड़ देना जो शाश्वत है।
यही है हिंदू होने का सच्चा अर्थ — नर से नारायण बनने की यात्रा।
मेरा मत है कि “हिन्दू” वह है जो सनातन वैदिक धर्म के सिद्धांतों का आचरण और अनुसरण करता है। वह चाहे ब्राह्मण परम्परा का साधक हो या श्रमण परम्परा का अनुयायी, यदि वह धर्म, आत्मा, ब्रह्म, पुनर्जन्म और कर्म-सिद्धान्त में श्रद्धा रखता है, तो वही सच्चा हिन्दू है।
हिन्दू वह है जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष — इन चतुर्विध पुरुषार्थों के आधार पर अपना जीवन संयोजित करता है; जो चाहे ज्ञानमार्गी हो, कर्ममार्गी या भक्तिमार्गी, किन्तु अपने कर्म को धर्म के अनुरूप मानता है।
हिन्दू वह है जो सत्व, रज और तम — इन त्रिगुणात्मक प्रवृत्तियों को समझते हुए, अपने कर्म और स्वभाव के अनुसार वर्णाश्रम व्यवस्था का पालन करता है और सृष्टि के संतुलन में अपनी भूमिका निभाता है। जो आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक — सृष्टि के तीनों आयामों को जानता और स्वीकार करता है, वही हिन्दू कहलाने योग्य है।
यहाँ तक कि जो चार्वाक जैसे नास्तिक दर्शन को मानते हैं, वे भी हिन्दू परंपरा के अंतर्गत आते हैं, क्योंकि हिन्दू धर्म में विचार की स्वतंत्रता है; यहाँ मतभेद को भी संवाद का रूप दिया जाता है, संघर्ष का नहीं।
हिन्दू वह है जो धर्म के दश लक्षणों — धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य और अक्रोध — को अपने जीवन में धारण करता है। जो चराचर जगत, जीव-जंतुओं, वृक्षों और पृथ्वी के प्रत्येक अंश में ब्रह्म का दर्शन करता है, वही सच्चे अर्थों में हिन्दू है। वह चाहे पृथ्वी के किसी भी कोने में क्यों न रहता हो, यदि उसके भीतर यह दृष्टि है, तो वह हिन्दू है।
हिन्दू होने का अर्थ नर से नारायण होने की यात्रा है।
अर्थात वह जो अपने भीतर स्थित दैवी तत्व को पहचानता है, वही हिन्दू है। यही कारण है कि असुर कुल में जन्म लेकर भी प्रह्लाद, विभीषण और राजा बलि जैसे महात्मा भगवद्भक्त हुए — क्योंकि उन्होंने धर्म का अनुसरण किया।
अतः हिन्दू की परिभाषा जन्म, भूगोल या वंश पर नहीं, बल्कि धर्म के पालन पर आधारित है। जो धर्म का अनुसरण करता है, वही हिन्दू है; और जो अधर्म का मार्ग अपनाता है, जो सत्य से विमुख होकर हिंसा, लोभ और छल में रमता है, वह असुर या म्लेच्छ है — चाहे वह कहीं भी जन्मा हो।
धर्म शब्द की उत्पत्ति “धृ” (धारण) धातु से हुई है — अर्थात् जो धारण किया जाए। धर्म वह है जो ऋत (सत्य और नियम) को धारण करता है, जो सृष्टि का संतुलन बनाए रखता है। धर्म का अर्थ केवल पूजा या अनुष्ठान नहीं, बल्कि कर्तव्य का पालन है। माता, पिता, पुत्र, पति, पत्नी, राजा, प्रजा — सभी के अपने-अपने धर्म हैं, और जो इनका पालन करता है, वही सच्चा हिन्दू है।
इसलिए हिन्दू की परिभाषा यही है —
“जो धर्म का पालन करे, धर्म की रक्षा करे और धर्म के आधार पर जीवन यापन करे, वही हिन्दू है।”
हिन्दू होना केवल किसी मत या परम्परा का अनुयायी होना नहीं है, बल्कि उस दिव्य चेतना का जागरण है जिसमें मनुष्य अपने भीतर परमात्मा का अंश पहचानता है। हिन्दू होना ‘शिवोऽहम्’ के भाव को जीना है — यह अनुभूति कि मैं वही चेतना हूँ जो सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त है। हिन्दू होना नर से नारायण बनने की यात्रा है, जहाँ मनुष्य अपनी सीमित देह और अहंकार से ऊपर उठकर सार्वभौम ब्रह्म के साथ एकत्व का अनुभव करता है। यही आत्मबोध हिन्दुत्व का सार है — जब यह चेतना पुनः जाग्रत होगी, जब आत्मा, ब्रह्म, कर्म और पुनर्जन्म के सिद्धान्त जीवन में उतर आएँगे, तब सनातन धर्म पुनः प्रतिष्ठित होगा और भारत फिर से जगद्गुरु के रूप में विश्व का पथप्रदर्शक बनेगा।
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