सनातन विचार ही वह प्रकाश है, जहाँ से जीवन, धर्म और कर्तव्य—तीनों का सत्य प्रकट होता है।

ऋणग्रस्त सभ्यता और संतुलित जीवन की खोज: सनातन दृष्टि का संवाद”


🖋️दीपक कुमार द्विवेदी

आज की दुनिया एक ऐसे आर्थिक ढाँचे पर चल रही है जिसमें सबकुछ ऋण पर टिक गया है। लोग कर्ज में डूबे हैं, सरकारें कर्ज पर चल रही हैं और पूरा समाज एक ऐसी दौड़ में लगा हुआ है जिसका कोई अंत नहीं। परंतु इस दौड़ में मनुष्य कहीं अंदर से टूट रहा है। यह सब इसलिए हो रहा है क्योंकि हमने अपनी जीवन-पद्धति से धर्म और संतुलन को अलग कर दिया है। हमनें प्रकृति को अपने से परे मान लिया, परिवार को महत्व देना छोड़ दिया और अर्थ को ही जीवन का उद्देश्य समझ लिया।

इसके बिल्कुल उलट भारत की पुरानी आर्थिक व्यवस्था थी। यह व्यवस्था ऋण पर नहीं, बल्कि धर्म पर टिकी थी—उस धर्म पर जो जीवन में संतुलन, संयम और सामंजस्य सिखाता है। इसी संतुलन की वजह से भारत सोलहवीं शताब्दी तक विश्व की अर्थव्यवस्था में लगभग चौबीस प्रतिशत योगदान देता रहा, जबकि इस दौरान यहाँ बार-बार आक्रमण हुए, राजघराने बदले, और समाज कई कठिन परिस्थितियों से गुजरा। लेकिन आर्थिक जीवन फिर भी चलता रहा, क्योंकि उसकी जड़ें बहुत गहरी थीं—प्रकृति, परिवार और श्रम से जुड़ी हुई।

मैं अपनी दादी को याद करता हूँ। वे घर का लगभग हर काम बिना किसी तनाव के कर लेती थीं। सुबह गाय का दूध निकालना, उसे गोरसी में गर्म करना, दही जमाना, और फिर मथकर मक्खन निकालना—यह सब उनके लिए काम कम और जीवन का हिस्सा ज़्यादा था। इस प्रक्रिया में एक लय थी, एक सुंदरता थी, जो आज की मशीनों में नहीं मिलती। आज सारी चीज़ें मशीनी हो गई हैं—गैस, मिक्सर, फ्रिज और बाजार का पैक्ड दूध। काम तो आसान हो गया, लेकिन मनुष्य अपने आप से दूर होता चला गया। जीवन तेज़ हुआ, पर भीतर का खालीपन बढ़ गया।

जो लोग लंबे समय तक अकेले रहते हैं, वे धीरे-धीरे उसी अकेलेपन का स्वरूप बन जाते हैं। परिवार के बीच रहकर जो सहजता, ऊष्मा और अपनापन मिलता है, वह मशीनें कभी नहीं दे सकतीं। बीस–तीस साल पहले समाज में ऐसा अकेलापन नहीं था। तब परिवार, समाज और परंपरा जीवन के केंद्र में थे। आज सुविधा बढ़ी है, लेकिन जीवन का स्वाद कम हो गया है।

हमारी परंपरा में दूध से लेकर मक्खन तक की प्रक्रिया का एक गहरा अर्थ है। दूध धर्म है—शुद्ध और मूल। दही अर्थ है—जो श्रम और समय से बनता है। मक्खन उस मंथन का फल है—जो जीवन के सार को लेकर आता है। और छाछ वह सरलता है जो बचे हुए में भी उपयोगिता देखती है। यह साधारण प्रक्रिया नहीं है; यह बताती है कि जीवन तब सुन्दर होता है जब वह स्वाभाविक हो, संतुलित हो, और किसी अतिशय में न जाए।

आज की आर्थिक सोच मनुष्य को धर्म और संतुलन से अलग कर देती है। वह केवल उपभोग सिखाती है—और उपभोग का परिणाम ऋण है। ऋण का परिणाम तनाव है। तनाव का परिणाम टूटता परिवार है। और टूटते परिवार का परिणाम अकेलापन और मानसिक बीमारी है। यह केवल किसी देश की समस्या नहीं; दुनिया भर में मानसिक दवाओं का बढ़ता चलन इसका प्रमाण है।

हम कहने को प्रगति कर रहे हैं, लेकिन यह प्रगति मनुष्य को भीतर से खोखला कर रही है। सुविधा बढ़ रही है, पर मन नहीं। घर बड़े हो रहे हैं, पर परिवार छोटे। साधन बढ़ रहे हैं, पर शांति कम होती जा रही है।

सनातन आर्थिक दृष्टि का सार यही है कि धन जीवन का साधन हो, जीवन का उद्देश्य नहीं। मनुष्य प्रकृति के साथ सामंजस्य में रहे, परिवार के बीच रहे, और उसका श्रम उसे भीतर से संतुष्टि दे। जिस अर्थ में धर्म न हो, वह कभी स्थायी नहीं होता। जिस प्रगति में मनुष्य न बचे, वह प्रगति असल में पतन है।

यह मॉडल वही है जिसने भारत को कभी समृद्ध बनाया था। और यही मॉडल आज हमें फिर से सही दिशा दिखा सकता है—यदि हम उसे समझें, अपनाएँ और अपने जीवन में वापस लाएँ।

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