सनातन विचार ही वह प्रकाश है, जहाँ से जीवन, धर्म और कर्तव्य—तीनों का सत्य प्रकट होता है।

राम मंदिर के ध्वज से अखण्ड भारत की दिशा





आज हमारे देश में हिन्दू समाज का एक बड़ा वर्ग ऐसा है जिसे अखण्ड भारत की संकल्पना एक दिवास्वप्न, एक दूरस्थ कल्पना या असम्भव विचार प्रतीत होती है। वह कहता है कि अखण्ड भारत कभी नहीं बन सकता, और यदि बन भी गया तो अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश तथा भारत के भीतर रहने वाले लगभग सत्तर करोड़ मुसलमानों का क्या होगा। उनका तर्क है कि जब हम आज भी पच्चीस करोड़ भारतीय मुसलमानों की धार्मिक कट्टरता, जनसंख्या-प्रसार, सामुदायिक दबाव और राजनीतिक इस्लामीकरण से जूझ रहे हैं, तो पूरे उपमहाद्वीप को एक सूत्र में बाँधने की कल्पना करना व्यर्थ है।

यह तर्क उसी मानसिकता का विस्तार है जिसने 1947 में विभाजन को जन्म दिया था—“हम अलग कौम हैं, हिन्दुओं के साथ नहीं रह सकते।” यह विचार ही पाकिस्तान का आधार था। आश्चर्य यह है कि आज भी इसी तर्क को दोहराने वाले अनेक लोग हिन्दू समाज के भीतर ही मिल जाते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि इस उपमहाद्वीप के अनेक इस्लामी संगठन आज भी इस देश को इस्लामी व्यवस्था की ओर मोड़ने का स्वप्न संजोए हुए हैं; ऐसे में अखण्ड भारत का विचार उन्हें अव्यावहारिक लगता है क्योंकि उनकी दृष्टि में भविष्य केवल भय और विघटन से भरा है।

परन्तु इतिहास का सत्य कुछ और है—इतिहास भय से नहीं, संकल्प से संचालित होता है।
और इस संकल्प की शक्ति का जीवंत उदाहरण भारत ने अभी-अभी देखा है।

25 नवम्बर 2025 की इस पवित्र तिथि पर,
अयोध्या में श्रीराम मन्दिर के शिखर पर ध्वजारोहण का पावन और ऐतिहासिक अनुष्ठान अभी कुछ ही क्षण पूर्व प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहनराव भागवत जी के करकमलों से सम्पन्न हुआ है।
यह कोई सामान्य कार्यक्रम नहीं था; यह पाँच शताब्दियों से चल रहे संघर्ष, तपस्या और प्रतीक्षा के पूर्ण होने का क्षण था। जिस राममन्दिर को कभी असम्भव स्वप्न कहा जाता था, वह आज भव्य और दिव्य स्वरूप में अखण्ड भारत की चेतना का प्रतीक बनकर खड़ा है। यह ध्वजारोहण इस सत्य की घोषणा है कि संकल्प का प्रकाश असम्भव की सबसे घनी दीवारों को भी भेद देता है।

आज से बीस–तीस वर्ष पूर्व अयोध्या में भव्य राममन्दिर का निर्माण किसी को भी सम्भव नहीं लगता था। राजनीति इसे असम्भव कहती थी, मीडिया इसका उपहास करता था, न्यायालयी प्रक्रिया वर्षों तक उलझी रही, और निराशावादियों का एक वर्ग यह मान चुका था कि राममन्दिर कभी नहीं बनेगा। परन्तु हिन्दू समाज का विश्वास पाँच सौ वर्षों तक अचल रहा। 6 दिसम्बर 1992 को विवादित ढाँचा ध्वस्त न किया गया होता, तो आज भी रामलला न्यायालय के पन्नों में कैद होते; और अयोध्या गवाह बनी रहती एक ऐसे संकल्प की जो केवल शब्दों में जिया गया था।

राममन्दिर इस बात का जीता-जागता प्रमाण है कि संघर्ष के बिना धर्म की स्थापना नहीं होती, और संकल्प के बिना इतिहास नहीं बदलता।
यह वही आधार है जिस पर अखण्ड भारत की कल्पना टिकी है।

हाल ही में गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कहा था कि—“सिंध एक दिन पुनः भारत में सम्मिलित हो सकता है।”
इस कथन का उपहास भी सबसे अधिक हिन्दू समाज के उसी वर्ग ने किया जो अपने अतीत से अनभिज्ञ है और भविष्य से भयभीत। वे भूल जाते हैं कि हैदराबाद का विलय, जूनागढ़ का एकीकरण, 1971 का बांग्लादेश निर्माण, कश्मीर से धारा 370 का हटना—ये सभी घटनाएँ भी कभी “असम्भव” कहकर खारिज की जाती थीं। परन्तु ये सब घटित हुआ; क्योंकि राष्ट्र की चेतना, इतिहास की दिशा और समाज की इच्छा—इन तीनों ने मिलकर असम्भव को सम्भव किया।

अखण्ड भारत की सम्भावना किसी मिथक का विषय नहीं; यह उपमहाद्वीप के भूगोल, इतिहास और राजनीति की अनिवार्य परिणति है।
अफ़ग़ानिस्तान तालिबानी अस्थिरता में जकड़ा है, पाकिस्तान आर्थिक व सामाजिक विघटन की चरम सीमा पर है, और बांग्लादेश उग्र इस्लामी राजनीति की ओर तेजी से खिंच रहा है। दूसरी ओर भारत शक्ति, स्थिरता, संस्कृति, अर्थव्यवस्था और कूटनीति—सभी दिशाओं में तीव्रता से उभर रहा है। ऐसे में उपमहाद्वीप की राजनीतिक संरचना कभी भी रूपांतरित हो सकती है, और यह रूपांतरण भारत को केंद्रीय भूमिका में स्थापित करेगा।

भारत के इतिहास में एक ऐसा युग भी आया था, जब सम्पूर्ण आर्यावर्त का राजनीतिक और सांस्कृतिक केंद्र बौद्ध मत की ओर प्रवाहित हो गया था। मगध से लेकर अवन्ति तक, कश्मीर से लेकर कर्नाटक तक, असंख्य क्षत्रिय राजवंश बुद्ध के उपदेशों से प्रभावित हुए और उन्होंने स्वयं को बौद्ध परम्परा के संरक्षक के रूप में स्थापित कर लिया। राजदरबारों में बौद्ध भिक्षुओं का प्रभाव इतना व्यापक हो गया कि वैदिक परम्परा का अस्तित्व मानो धीरे-धीरे क्षीण होता प्रतीत होने लगा। विश्वविद्यालय, विहार, राजाश्रय—सभी बौद्ध विचारधारा के विस्तार में संलग्न थे।

किन्तु इतिहास कभी स्थिर नहीं रहता; वह आत्मस्मरण और पुनरुत्थान का निरन्तर प्रवाह है। जब बौद्ध प्रभाव चरम पर था, तब भी भारत की ऋषि-परम्परा जीवित थी—मौन, संयमित, किन्तु जागृत। इसी काल में पुष्यमित्र शुंग जैसे सम्राट उभरे, जिन्होंने वैदिक परम्परा के संरक्षण का संकल्प लिया और राजनीतिक धरातल पर सनातन धर्म को पुनः प्रतिष्ठित किया। उनके पश्चात कुमारिल भट्ट जैसे प्रखर मीमांसक उठे, जिन्होंने बौद्ध सिद्धांतों से गहन शास्त्रार्थ करके वैदिक धर्म की दार्शनिक शक्ति को पुनर्स्थापित किया। उनके निष्कर्ष और तर्क उस समय की बौद्ध-वर्चस्वी बौद्धिक दुनिया में अत्यंत प्रभावकारी सिद्ध हुए।

और अंततः इस वैचारिक पुनरुत्थान की पराकाष्ठा आदि शंकराचार्य के रूप में प्रकट हुई। केवल 32 वर्षों के अपने संक्षिप्त जीवन में उन्होंने सम्पूर्ण भारत का विस्तार से भ्रमण किया, दार्शनिक परम्पराओं को एकसूत्र में बाँधा, मठ-परम्परा की स्थापना की, और अद्वैत वेदान्त के माध्यम से सम्पूर्ण समाज को उसकी मूल आध्यात्मिक जड़ों से पुनः जोड़ दिया। वे न केवल महान दार्शनिक थे, बल्कि सामाजिक पुनरुत्थान के अग्रदूत भी। उनके पश्चात बौद्ध प्रभाव प्राकृतिक रूप से क्षीण होता गया और भारतीय समाज पुनः वैदिक-सनातन परम्परा के प्रवाह में लौट आया।

ये घटनाएँ केवल इतिहास के अध्याय नहीं हैं—ये प्रमाण हैं कि जब समाज का राजनीतिक नेतृत्व, दार्शनिक शक्ति और ऋषि-परम्परा एक संकल्प पर एकत्र हो जाए, तब सम्पूर्ण राष्ट्र की दिशा बदल जाती है। जिस काल में पूरा आर्यावर्त बौद्ध हो सकता है और फिर पुनः सनातन बन सकता है—उस काल का यह इतिहास आज के समाज के लिए भी गहरा संकेत है।

इसी ऐतिहासिक बोध के आधार पर यह प्रश्न उठता है कि जब उस युग में, राजाओं से लेकर सामान्य जनता तक, सम्पूर्ण समाज एक बार पुनः वैदिक परम्परा से जुड़ सकता था—तो आज के युग में मुसलमानों और ईसाइयों का पुनः हिन्दूकरण क्यों असम्भव माना जाए?
उनके पूर्वज उसी सनातन परम्परा के अंग थे, उनकी सांस्कृतिक स्मृति इन्हीं भूभागों से जुड़ी है, और उनकी ऐतिहासिक जड़ें इसी भूमि में निहित हैं। धर्म-परिवर्तन इतिहास की परिस्थिति था, कोई दार्शनिक उद्घाटन नहीं। अतः इतिहास यह सिद्ध करता है कि पुनर्संस्कार सम्भव है—यदि समाज में संकल्प, संगठन और सांस्कृतिक आत्मविश्वास जीवित हो।

जब पूरा आर्यावर्त बौद्ध से पुनः हिन्दू बन सकता है, तो मुस्लिम और ईसाई समाज का पुनर्संस्कार क्यों असम्भव माना जाए?
राजनीति केवल प्रेम से नहीं चलती; उसमें साम, दाम, दण्ड और भेद—सभी साधनों का उचित उपयोग आवश्यक होता है। धर्मरक्षा और राष्ट्ररक्षा दोनों इसी विवेकपूर्ण दृष्टि की माँग करते हैं।

अखण्ड भारत किसी भू-सीमा का विस्तार नहीं, बल्कि एक चेतना है—एक आत्मविश्वास, एक ऐतिहासिक पुनर्स्मरण और एक भविष्य-दृष्टि। यह तभी साकार होगा जब हिन्दू समाज संगठित, जागृत और आत्मबल से युक्त होगा। जब समाज यह निश्चय कर लेगा कि वह इतिहास की गलतियों को पुनः नहीं दोहराएगा, तब भविष्य अवश्य उसके पक्ष में खड़ा होगा।

हिमालय में मार्ग बन सकता है, रेगिस्तान में हरियाली उग सकती है, समुद्र पर सेतु बन सकता है—तो अखण्ड भारत क्यों नहीं बन सकता?
राममन्दिर बना है— इसके बाद अखण्ड भारत भी बनेगा।

क्योंकि यह केवल इतिहास का प्रश्न नहीं,
राष्ट्र की आत्मा की शाश्वत पुकार है।

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