सनातन विचार ही वह प्रकाश है, जहाँ से जीवन, धर्म और कर्तव्य—तीनों का सत्य प्रकट होता है।

एक आदर्श लेखक और विचारक की क्या पहचान होती है?

एक आदर्श लेखक और विचारक वही होता है जो अपने समय को समझ सके, उसके दर्द को महसूस कर सके, और समाज को दिशा देने का सामर्थ्य रखे। विचार शब्दों से नहीं, जीवन के ताप से जन्म लेता है। यदि हम आधुनिक समय में किसी से प्रेरणा लेना चाहें, तो दो ही व्यक्तित्व अपने आप उजागर होते हैं—परमपूज्य गुरूजी और श्रद्धेय दत्तोपंत ठेंगड़ी जी।

इन दोनों ने वह काम किया जो उस समय असंभव माना जाता था। उन्होंने ऐसे संगठन खड़े किए, ऐसी वैचारिक जमीन तैयार की, जिसने वामपंथ और ईसाई मिशनरियों के प्रभाव को न केवल चुनौती दी बल्कि उनकी जड़ें तक हिला दीं।

1955 से 1990 तक यह देश समाजवादी आर्थिक नीतियों से संचालित था—राज्य-नियंत्रण, लाइसेंस-परमिट-राज, सोवियत मॉडल, और सरकारी केंद्रीकरण। इसी दौर में विश्वविद्यालयों, मीडिया, साहित्य-जगत और अकादमिक संस्थानों पर वामपंथ का लगभग एकछत्र राज था। समाजवादी और कम्युनिस्ट दल विपक्ष में निर्णायक प्रभाव रखते थे।

इसी काल में ईसाई मिशनरियाँ आदिवासी, पिछड़े और संवेदनशील क्षेत्रों में निर्बाध धर्मांतरण करवा रही थीं। राष्ट्रीय पहचान की बात करना रूढ़िवाद माना जाता था, और हिंदू संस्कृति को पिछड़ा कहकर हाशिए पर धकेलने का प्रयास हर स्तर पर हो रहा था।

ऐसे कठिन वातावरण में, जब सूचना तंत्र, मीडिया, अकादमिक जगत हर जगह वामपंथ का वर्चस्व था, उस समय परमपूज्य गुरूजी के मार्गदर्शन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने हिंदू समाज को धर्मनिष्ठ बनाए रखा। उन्होंने न केवल संगठन को खड़ा नहीं किया, बल्कि समाज को टूटने नहीं दिया। जिस समय धर्मांतरण का प्रवाह तेज था, मंत्रिमंडल वामपंथी सोच से चलता था, और हिंदू समाज पर मनोवैज्ञानिक दबाव था—उस समय संघ ने अपने नेटवर्क, अपने संस्कार और अपनी विचारधारा से इस प्रभाव को बहुत हद तक नियंत्रित किया।

इस संघर्ष में दत्तोपंत ठेंगड़ी जी की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण थी। वे केवल विचारक नहीं थे—वे खेतों में, कारखानों में, छात्र-परिसरों में, गाँवों में जाकर संवाद करने वाले व्यक्ति थे। उसी संवाद से चार बड़े संगठन जन्मे—भारतीय मजदूर संघ, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, भारतीय किसान संघ और विद्या भारती।

भारतीय मजदूर संघ (BMS) उस समय बना जब श्रमिक आंदोलन पर पूरी तरह कम्युनिस्टों का कब्जा था। हड़ताल, संघर्ष और टकराव को ही मजदूर-धर्म मान लिया गया था। ऐसे समय में ठेंगड़ी जी ने कहा—“श्रमिक और उद्योगपति शत्रु नहीं, समाज के दो अंग हैं।”
उन्होंने भारतीय दृष्टि से श्रमिकों में स्वाभिमान जगाया और संघर्ष की जगह संतुलन का रास्ता दिखाया। धीरे-धीरे मजदूर संघ ने हजारों कारखानों में अपनी जगह बनाई और श्रमिकों को सिर्फ अधिकार ही नहीं, बल्कि कर्तव्य और राष्ट्रधर्म का भाव भी दिया।

अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP) का विस्तार तब हुआ जब विश्वविद्यालयों में वामपंथ की ऊँची लहर बह रही थी। छात्र राजनीति को हिंसा, तोड़फोड़ और विचारहीन नारों ने घेर रखा था। परिषद ने छात्रों से कहा—“तुम सिर्फ नौकरी के लिए मत पढ़ो, राष्ट्र के लिए पढ़ो।”
ABVP ने छात्र-शक्ति को राष्ट्रचेतना की ओर मोड़ा। उसके कार्यकर्ता विश्वविद्यालयों में बहस, संवाद, साहित्य और सेवा—चारों ओर प्रभावी भूमिका निभाने लगे। यह केवल छात्र संगठन नहीं, नेतृत्व निर्माण का केंद्र बन गया।

विद्या भारती ने शिक्षा के क्षेत्र में चमत्कार किया। 1952 में गोरखपुर के एक छोटे विद्यालय से शुरू हुआ यह प्रयास आज तीस हजार विद्यालयों तक पहुँच चुका है।
विद्या भारती ने बच्चों को केवल किताब नहीं दी—उन्हें संस्कार दिए, आत्मगौरव दिया, भारतीयता दी। जब मिशनरियाँ शिक्षा के नाम पर धर्मांतरण करवा रही थीं, विद्या भारती ने उन्हीं क्षेत्रों में संस्कारयुक्त शिक्षा देकर समाज को सँभाला। कई गाँव आज भी विद्या भारती की बदौलत अपनी पहचान, धर्म और संस्कृति के साथ खड़े हैं।

भारतीय किसान संघ (BKS) की स्थापना 1979 में हुई, जब किसान का संघर्ष या तो समाजवादी नारों में उलझा था या वामपंथी आंदोलन में। किसान की असली समस्या—सिंचाई, बिजली, लागत, समर्थन मूल्य—इन पर कोई गंभीर बात नहीं करता था।
किसान संघ ने किसान आंदोलन को हिंसा से दूर रखकर शांतिपूर्ण, संगठित और नीति-आधारित दिशा दी। किसान पहली बार समझ पाया कि उसकी समस्या सरकार से अधिक व्यवस्था और संरचना की है। किसान संघ ने खेत और नीति—दोनों में आवाज़ उठाई और यह आवाज़ सुनी भी गई।

इन चारों संगठनों ने वामपंथी, मिशनरी और समाजवादी प्रभाव के कठिन दौर में हिंदू समाज की रीढ़ को संभाले रखा। जब हर मोर्चे पर हिंदू समाज दबाव में था, तब ये संगठन बिना किसी प्रचार, बिना किसी तमाशे, अपनी जगह पर खड़े रहे और समाज को टूटने नहीं दिया।

दत्तोपंत ठेंगड़ी जी स्वयं कहते थे—“हम किसी व्यक्ति या दल के पीछे नहीं चलते, हम विचार के पीछे चलते हैं।” यही वह सूत्र है जिसे आज भूलने का खतरा बढ़ रहा है। जब स्वयंसेवक व्यक्ति-पूजक बन जाता है, तब संगठन की दिशा खो जाती है। संघ का मूल तत्त्व यह रहा है कि व्यक्ति से ऊपर विचार है, और विचार से ऊपर लक्ष्य।

पर असली समस्या तब पैदा हुई जब हम अपने मूल तत्त्व को भूलकर व्यक्ति-पूजा की ओर बढ़ने लगे।
स्वयंसेवक का धर्म तो यह रहा है कि वह तत्त्व का उपासक होता है, किसी व्यक्ति का नहीं।
जब यह भाव ढीला पड़ता है, तो हमारी दिशा भी अपने आप बिगड़ने लगती है।
व्यक्ति-पूजा आम लोगों की आदत हो सकती है, पर स्वयंसेवक के लिए यह सीधा-सीधा एक वैचारिक रोग है—और दुख की बात यह है कि यही रोग आज समाज के भीतर फैलता दिखाई देता है।

हम अक्सर कहते हैं कि सभी प्रकार के लेखक, विचारक और कार्यकर्ता एक स्थान पर आएँ।
बात सही है, पर यह ध्यान में रहना चाहिए कि उन्हें किस उद्देश्य के लिए एक करना है।
अगर ध्येय केवल इतना भर रह जाए कि किसी राजनीतिक दल को सत्ता तक पहुँचाना है, तो उससे बड़ी भूल कोई नहीं।
सत्ता कभी हमारा अंतिम लक्ष्य नहीं रही।

हमारा लक्ष्य उससे कहीं ऊँचा है—
भारत का अखंड स्वरूप,
भारतभूमि का म्लेच्छ और आसुरी प्रवृत्तियों से मुक्त होना,
धर्म की पुनः स्थापना,
और मानव समाज को आर्यत्व—अर्थात् सत्य, धर्म और आत्मगौरव—की दिशा में ले जाना।

जब ध्येय स्पष्ट होता है, तब लेखक भी, विचारक भी, और ज़मीन पर सक्रिय स्वयंसेवक भी—सब अपने आप उसी दिशा में खड़े हो जाते हैं।
किसी आदेश से नहीं, किसी दबाव से नहीं—बल्कि लक्ष्य की भीतरी पुकार से।

और यही कारण है कि हमारा असली काम है—हिंदू समाज को मजबूत बनाना।
अगर हिंदू समाज संगठित, जागरूक और आत्मगौरव से भरा होगा, तो कोई भी सरकार—चाहे किसी भी दल की हो—हिंदुओं के विरुद्ध कदम उठाने की हिम्मत नहीं करेगी।
सत्ता अंततः वही करती है, जिसकी दिशा समाज तय करता है।

इसलिए हमारा ध्येय एक ऐसा सशक्त, संस्कारित और एकजुट हिंदू समाज खड़ा करना है जो किसी भी सरकार को राष्ट्रधर्म और समाजधर्म के अनुरूप कार्य करने के लिए बाध्य कर दे।
सत्ता किसके हाथ में है, यह उतना महत्वपूर्ण नहीं;
महत्वपूर्ण यह है कि वही सत्ता हिंदू समाज के हित में, भारत की सांस्कृतिक अस्मिता की रक्षा में और धर्म के उत्थान की दिशा में काम करे।

✍️Deepak Kumar Dwivedi

टिप्पणियाँ