सनातन विचार ही वह प्रकाश है, जहाँ से जीवन, धर्म और कर्तव्य—तीनों का सत्य प्रकट होता है।

मजहब और धर्म में अंतर क्या है?


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साल सन् 1986 ई0, #ईरान का एक छोटा सा गाँव कुहपाये। यहाँ 35 वर्षीय #सोराया #मनुचेहरी (#Soraya #Manutchehri) नाम की एक महिला अपने पति और बच्चों के साथ रहती थी। लेकिन उसकी ज़िंदगी में एक भयानक तूफान तब आया, जब उसके अपने पति ने ही उस पर व्यभिचार (adultery) का झूठा आरोप मढ़ दिया।

इस घिनौनी साज़िश के पीछे की वजह बेहद स्वार्थी थी। सोराया का पति एक #14_साल की लड़की से दूसरी शादी करना चाहता था। वह न तो दो परिवारों का खर्च उठाने को तैयार था और न ही पहली पत्नी होने के नाते सोराया का #निकाह राशि लौटाना चाहता था। इसलिए, अपने रास्ते से सोराया को हटाने के लिए, उसने गाँव के भ्रष्ट मजहबी अधिकारियों के साथ मिलकर यह साज़िश रची।

सोराया पर झूठा मुकदमा चलाया गया और उसे अपनी बेगुनाही साबित करने का कोई मौका नहीं दिया गया। उसे दोषी करार दिया गया और सज़ा-ए-मौत दी गई—पत्थरों से मार-मारकर (Stoning)।

यह सच्ची और दर्दनाक घटना शायद उसी गाँव की मिट्टी में दफन हो जाती, अगर घटना के अगले ही दिन एक फ्रेंच-ईरानी पत्रकार, #फ़्रेदून #साहेबजाम (#Freidoune #Sahebjam), संयोग से उस गाँव में नहीं पहुँचते। वहाँ, सोराया की चाची ने अपनी जान जोखिम में डालकर, एक टेप रिकॉर्डर पर इस पूरी आपबीती को दर्ज करवाया।

फ़्रेदून फ्रांस वापस लौटे और तीन साल के भीतर, 1990 में, इस पूरी घटना को एक किताब की शक्ल दी: "#La #Femme #Lapidée" (यानी, 'वह महिला जिसे पत्थर मारे गए')। यह किताब एक ही साल में बेस्ट-सेलर बन गई और इसने दुनिया भर का ध्यान अपनी ओर खींचा। बाद में, प्रसिद्ध अमेरिकी अनुवादक रिचर्ड सीवर द्वारा इसका अंग्रेजी में "The #Stoning of Soraya M.: A Story of #Injustice in #Iran" नाम से अनुवाद किया गया।

इस किताब ने तहलका मचा दिया। इसने सदियों से चली आ रही इस क्रूर प्रथा पर एक वैश्विक बहस छेड़ दी।

इसी किताब पर आधारित, बाद में "द स्टोनिंग ऑफ़ सोराया एम." नाम से एक बेहतरीन फिल्म बनाई गई। यह फिल्म लगभग 114 मिनट की है, लेकिन इसके आखिरी 50 मिनट आपको अंदर तक झकझोर कर रख देंगे। जब सज़ा को अमल में लाने की तैयारी होती है, तो फिल्म भय, करुणा, क्रोध और घृणा जैसे लगभग सभी रसों को एक साथ पर्दे पर उतार देती है।

फिल्म ने इस किताब की कहानी को एक दृश्य रूप देकर, उस बर्बरता को और भी भयावह तरीके से दुनिया के सामने रखा। किताब और फिल्म के संयुक्त प्रभाव का ही परिणाम था कि सोराया की मौत के लगभग 27 साल बाद, ईरान में इस अमानवीय प्रथा पर अदालत द्वारा प्रतिबंध लगा दिया गया। हालाँकि, यह एक कड़वी सच्चाई है कि आज भी दुनिया के कई देशों में 'स्टोनिंग' कानूनी रूप से मान्य है।

यह सच्ची कहानी हमें कुछ गंभीर सवालों पर सोचने के लिए मजबूर करती है:

#मजहब और लाचारी: आप खुद तय करें कि ऐसे मजहब कितने आदर के पात्र हैं, जहाँ एक महिला पर झूठा आरोप लगने पर उसे खुद को निर्दोष साबित करना पड़ता है? और अगर वह ऐसा न कर पाए, तो उसे छाती तक ज़मीन में गाड़कर... सबसे पहले नौ पत्थर उसी के पिता, पति और बेटों द्वारा मरवाए जाते हैं। ज़रा सोचिए, जिस पिता ने लाड़-प्यार से बड़ा किया, जिस पति ने कभी प्रेम किया होगा, और जिस बेटे को अपने हाथों से खिलाया हो... वही लोग उसे पत्थर मारने के लिए लाचार हैं, क्योंकि उनका ’मजहब' उन्हें ऐसा करने पर मजबूर करता है।

स्त्री का स्थान: जो भी मजहब/रिलीजन स्त्रियों को दोयम दर्जे का या कमतर मानता हो, स्त्रियों को ऐसे मजहब/रिलीजन को तत्काल छोड़ देना चाहिए।

शिक्षा का महत्व: यह घटना महिलाओं के लिए शिक्षा के महत्व को भी रेखांकित करती है। पत्रकार फ़्रेदून को यह पूरी कहानी अंग्रेज़ी में बताई गई थी। यह इस बात का सबूत है कि 80 के दशक में भी ईरान में महिलाएँ शिक्षित थीं। हालाँकि यह भी हो सकता है कि यह शिक्षा उस समय केवल भद्र (elite) वर्ग तक ही सीमित हो, लेकिन यह स्पष्ट है कि उसी शिक्षा के बल पर #सोराया की चाची अपनी और सोराया की आवाज़ दुनिया तक पहुँचा सकीं।

अंत में, अगर इस लेख या इस कहानी से किसी की मजहबी भावना' आहत होती है, तो उन्हें पहले पुस्तक खरीद कर यह कहानी पढ़नी और मूवी देखनी चाहिए। आप अपनी उन तथाकथित भावनाओं पर शर्म करने के सिवा और कुछ नहीं कर पाएँगे।

नोट: मजहब/रिलीजन, धर्म नहीं हैं। धर्म, सिर्फ सनातन/हिंदू धर्म है।

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