- लिंक पाएं
- X
- ईमेल
- दूसरे ऐप
सनातन विचार ही वह प्रकाश है, जहाँ से जीवन, धर्म और कर्तव्य—तीनों का सत्य प्रकट होता है।
प्रस्तुतकर्ता
Deepak Kumar Dwivedi
को
- लिंक पाएं
- X
- ईमेल
- दूसरे ऐप
भारत की सभ्यता का मूल तत्व विविधता में एकता रहा है। यहाँ मत, पंथ, दर्शन और जीवन दृष्टियाँ साथ-साथ पनपती रहीं। वैदिक और श्रमण परंपराएँ भिन्न रही हों, पर उनमें वैमनस्य नहीं था। भारत के धर्म का अर्थ पूजा-पद्धति नहीं, बल्कि सत्य की खोज और सह-अस्तित्व है। इस भूमि की आत्मा तर्क, संवाद और आत्मावलोकन में विश्वास करती है। यही कारण है कि यहाँ मतभेद भी विचार की संपदा माने गए। परंतु इसी धरती ने एक ऐसे विचार से भी टकराया, जो संवाद नहीं, आदेश पर चलता था; जो सह-अस्तित्व नहीं, अधीनता चाहता था। यह विचार था इस्लाम।
सातवीं शताब्दी में अरब की रेत में जन्मे इस्लाम ने आध्यात्मिकता से अधिक राजनीति को महत्व दिया। यह एक ऐसा मज़हबी तंत्र था जिसमें ‘उम्माह’ की अवधारणा सर्वोपरि थी — यानी संपूर्ण मुसलमानों का एक वैश्विक समुदाय जो किसी राष्ट्र या भूभाग से ऊपर है। मुसलमान की निष्ठा पहले उम्माह के प्रति होती है, किसी मातृभूमि के प्रति नहीं। यही कारण है कि इस्लाम राष्ट्र और संस्कृति की सीमाओं को नहीं मानता। वह दुनिया को दो भागों में बाँट देता है — दारुल-इस्लाम, जहाँ इस्लामी शासन है, और दारुल-हरब, जहाँ उसे स्थापित किया जाना है। जब तक दारुल-हरब को दारुल-इस्लाम में नहीं बदला जाता, तब तक मुसलमान का धार्मिक कर्तव्य अधूरा माना जाता है। इसी विचार से ‘जिहाद’ की अवधारणा जन्म लेती है — एक वैचारिक और सशस्त्र संघर्ष, जिसका उद्देश्य पूरी पृथ्वी पर इस्लामी सत्ता स्थापित करना है।
कुरान की सूरा तौबा में लिखा है – “जो लोग अल्लाह और उसके रसूल पर विश्वास नहीं करते, उनसे युद्ध करो जब तक वे अधीन होकर जज़िया न दें।” यह वाक्य इस्लाम को केवल धर्म नहीं, बल्कि एक राजनीतिक आंदोलन बना देता है। इस्लाम में तर्क, विचार और आत्मालोचना का स्थान नहीं; वहाँ केवल आदेश और पालन है। जो इन आदेशों पर प्रश्न करे, वह धर्मद्रोही है, उसकी सज़ा सिर कलम है। इस्लाम की यह संरचना किसी भी उदार समाज के लिए चुनौती है, क्योंकि वह विचार की स्वतंत्रता नहीं, वर्चस्व की स्थापना चाहता है।
भारत ने इस विचार का सामना पहली बार 711 ईस्वी में किया, जब अरब सेनापति मुहम्मद बिन क़ासिम ने सिंध के राजा दाहिर पर आक्रमण किया। दाहिर ने पहले उसे शरण दी थी, पर वही शरणार्थी आक्रांता बन गया। सिंध इस्लामी शासन के अधीन हुआ और भारत ने पहली बार देखा कि सहिष्णुता का उत्तर हिंसा में कैसे दिया जाता है। इसके बाद का इतिहास इसी प्रवृत्ति का विस्तार है — गज़नी, गोरी, खिलजी, तैमूर, बाबर, औरंगज़ेब — सभी ने “दीन की स्थापना” के नाम पर सत्ता की स्थापना की। औरंगज़ेब का फ़तवा-ए-आलमगिरी इसका सबसे स्पष्ट प्रमाण है, जिसमें गैर-मुसलमानों को अधीन प्रजा माना गया और जज़िया कर लगाया गया। मंदिर विध्वंस और जबरन धर्मांतरण केवल धार्मिक नहीं, बल्कि राजनीतिक औज़ार थे, जिनसे समाज में भय और अधीनता की भावना पैदा की जाती थी।
अंग्रेज़ों के आगमन के बाद इस्लामी राजनीति को नया आधार मिला। ब्रिटिश शासन की नीति थी — “ फूट डालो राज करो” उन्होंने हिंदू समाज को जातियों में बाँटकर और मुसलमानों को पृथक समुदाय बनाकर अपने शासन को मजबूत किया। 1906 में ढाका में ऑल इंडिया मुस्लिम लीग की स्थापना इसी सोच का परिणाम थी। मुसलमानों ने खुद को भारत का हिस्सा नहीं, बल्कि एक अलग राजनीतिक इकाई मानना शुरू कर दिया। इसी काल में 1919 का खिलाफ़त आंदोलन चला, जिसे महात्मा गांधी ने समर्थन दिया, यह मानकर कि इससे हिंदू-मुस्लिम एकता बढ़ेगी। लेकिन 1921 का मोपला विद्रोह उनकी इस धारणा को तोड़ गया — जहाँ हजारों हिंदू मारे गए, मंदिर तोड़े गए और यह सब “खिलाफत” के नाम पर हुआ। यह घटना इस्लामी राजनीति के असली स्वरूप का परिचायक थी।
1930 से 1932 के बीच लंदन में हुई राउंड टेबल कॉन्फ़्रेंस में डॉ. भीमराव आंबेडकर ने दलित वर्गों के लिए पृथक निर्वाचन मंडल की माँग की। अंग्रेज़ों ने इसका स्वागत किया, क्योंकि यह हिंदू समाज को स्थायी रूप से विभाजित कर देता। गांधी ने इस विभाजन का विरोध किया और 1932 में यरवदा जेल में अनशन किया। परिणामस्वरूप 24 सितंबर 1932 को पुणे समझौता हुआ, जिसने समाज को टूटने से बचाया। अगर यह न होता, तो संभव था कि भारत में एक “दलितस्तान” और एक “पाकिस्तान” साथ-साथ जन्म लेते।
1940 में मुस्लिम लीग ने लाहौर अधिवेशन में पाकिस्तान प्रस्ताव पारित किया। उसी वर्ष डॉ. आंबेडकर ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक Pakistan or Partition of India लिखी, जिसमें उन्होंने स्पष्ट कहा कि इस्लाम का भाईचारा सार्वभौमिक नहीं, केवल मुसलमानों के बीच का है। उन्होंने लिखा — “The brotherhood of Islam is not the universal brotherhood of man. It is the brotherhood of Muslims for Muslims only… For those outside the corporation, there is nothing but contempt and enmity.” उन्होंने यह भी लिखा — “Islam can never allow a true Muslim to adopt India as his motherland and regard a Hindu as his kith and kin.” 1946 के डायरेक्ट एक्शन डे पर जिन्ना के आह्वान पर कलकत्ता और नोआखली में हुए नरसंहारों ने इन पंक्तियों को सच साबित कर दिया।
पाकिस्तान बनने के बाद वहाँ का हिंदू समाज लगभग समाप्त हो गया। 1951 में 22 प्रतिशत रहे हिंदू आज 2 प्रतिशत से भी कम हैं। वहीं भारत में मुसलमानों की जनसंख्या 9 प्रतिशत से बढ़कर 15 प्रतिशत से अधिक हो गई। यह आँकड़ा इस्लामी वर्चस्व की मानसिकता और भारत की सहिष्णुता दोनों का प्रमाण है।
इस्लाम की सत्ता-नीति केवल युद्ध या हिंसा से नहीं चलती; उसमें छल और छद्म भी वैध हैं। इस्लामी सिद्धांत अल-तक़िय्या के अनुसार इस्लाम के हित में झूठ बोलना या भ्रम फैलाना भी धार्मिक रूप से सही है। इसी कारण इस्लामी राजनीति हमेशा दो चेहरों में दिखाई देती है — जब कमजोर होती है तो शांति की भाषा बोलती है, जब सशक्त होती है तो जिहाद की। यही उसे एक संगठित राजनीतिक गिरोह बनाता है, जो मज़हब के नाम पर समाज और सत्ता पर नियंत्रण चाहता है।
हिंदू नेतृत्व की सबसे बड़ी भूल यही रही कि उसने इस्लाम को कभी उसके असली रूप में नहीं समझा। सेक्युलर राजनीति ने उसे “धर्म” कहकर तुष्टिकरण किया, और राष्ट्रवादी वर्ग ने यह मान लिया कि यह भी भारत की तरह कोई मत या परंपरा है। पर सच्चाई यह है कि इस्लाम कोई धर्म नहीं, बल्कि एक सुसंगठित माफिया-राजनीतिक गिरोह है, जो सत्ता, भय और जनसंख्या के सहारे समाजों पर वर्चस्व स्थापित करता है।
भारतीय अर्थ में धर्म का अर्थ है — संतुलन, सह-अस्तित्व और विवेक। जबकि इस्लाम का आधार है — अधीनता और आदेश। भारतीय सभ्यता प्रश्न पूछने और विचार करने की स्वतंत्रता पर खड़ी है, पर इस्लाम में प्रश्न नहीं, केवल आदेश मानना ही धर्म है। यही कारण है कि वह हर बहुवादी समाज के लिए एक स्थायी संकट बना रहता है।
आज भी यही स्थिति भारत में दिखती है। इस्लाम अब तलवार से नहीं, बल्कि शिक्षा, मीडिया, अर्थतंत्र और राजनीति के ज़रिए अपना प्रभाव फैला रहा है। वक्फ़ संपत्तियों का फैलता जाल, जनसंख्या असंतुलन, और तथाकथित सेक्युलर राजनीति की चुप्पी — ये सब उसी वर्चस्ववादी परियोजना के हिस्से हैं। समस्या यह है कि भारतीय नेतृत्व आज भी इस्लाम को अपने जैसा मानता है, जबकि इस्लाम की सोच का आधार ही यह है कि दूसरे सब उसके अधीन हों।
लेकिन इस समस्या का उत्तर किसी हिंसक प्रतिकार में नहीं, बल्कि आध्यात्मिक स्पष्टता में है। सनातन धर्म ने सदा सिखाया है कि जगत की रचना तीन गुणों — सत्त्व, रज और तम — के संतुलन से होती है। जब तमोगुण यानी अंधकार, जड़ता और हिंसा का प्रभाव बढ़ता है, तो रज और सत्त्व के माध्यम से ही उसका संतुलन संभव होता है। इस्लाम का स्वभाव तमस प्रधान है — वह अंधकार और अधीनता से पनपता है; और उसका समाधान केवल सत्त्वगुण के प्रकाश से ही हो सकता है — अर्थात् ज्ञान, विवेक और आत्मबोध से।
सनातन दृष्टि हमें बताती है कि आत्मा अमर है, ब्रह्म सत्य है, और पुनर्जन्म कर्म का परिणाम है। यही विचार मनुष्य को भय और अधीनता से मुक्त करता है। इस्लाम ने जहाँ आत्मा को नकारा, वहाँ उसने मनुष्य को आदेश का दास बना दिया। इसीलिए इस्लाम का वास्तविक प्रतिकार किसी और मज़हबी युद्ध में नहीं, बल्कि आत्मबोध के पुनर्जागरण में है।
जब हिंदू समाज आत्मा और ब्रह्म के इस सत्य को समझेगा, कर्म-सिद्धांत के बल पर खड़ा होगा, और धर्म–अर्थ–काम–मोक्ष के संतुलन से अपनी शक्ति पुनः जगाएगा — तब यह वैचारिक अंधकार स्वयं नष्ट हो जाएगा।
जब हमने इस्लाम को अपने जैसा समझा, तब हमने अपना अस्तित्व खोया; और जब हमने बप्पा रावल, शिवाजी और गुरु गोविंद सिंह की तरह स्पष्ट होकर उसका सामना किया, तब हमने पुनर्जागरण पाया। आज भारत को वही स्पष्टता, वही आत्मविश्वास और वही जागृति चाहिए। यही इस संघर्ष का समाधान है — तलवार से नहीं, चेतना से; भय से नहीं, आत्मबल से।
- लिंक पाएं
- X
- ईमेल
- दूसरे ऐप
लेखक परिचय — दीपक कुमार द्विवेदी निवासी : ग्राम चचाई, जिला रीवा (मध्यप्रदेश) पद : प्रधान संपादक – www.jaisanatanbharat.com | संस्थापक – जय सनातन भारत समूह | संस्थापक-सदस्य – भारतीय मेधा परिषद टोली दीपक कुमार द्विवेदी समकालीन भारतीय वैचारिक विमर्श के एक प्रखर लेखक हैं, जो सनातन संस्कृति, राष्ट्रीय अस्मिता एवं आधुनिक वैचारिक चुनौतियों पर गहन विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं। आप जय सनातन भारत समूह तथा भारतीय मेधा परिषद टोली के माध्यम से वैचारिक जागरण और सांस्कृतिक पुनरुत्थान के विविध अभियानों का नेतृत्व कर रहे हैं। वर्तमान में आप TRS कॉलेज, रीवा से MBA (HR) का अध्ययन कर रहे हैं तथा वैचारिक लेखन और अध्ययन-साधना में निरंतर सक्रिय हैं। प्रकाशित पुस्तकें (Amazon) 1. सनातन का नवोदय : वर्तमान वैचारिक संघर्ष और हमारी दिशा 🔗 https://amzn.in/d/1ujqzeE 2. सनातन आर्थिक मॉडल : धर्मधारित विकास की दिशा 🔗 https://amzn.in/d/60hEjhG
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें