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सनातन विचार ही वह प्रकाश है, जहाँ से जीवन, धर्म और कर्तव्य—तीनों का सत्य प्रकट होता है।
प्रस्तुतकर्ता
Deepak Kumar Dwivedi
को
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अक्सर लोग एक बात कहते हुए मिल जाते हैं कि अगर विपक्षी दल ज़मीन पर उतरकर मेहनत करें, जनता के बीच जाएँ, तो भाजपा को हराया जा सकता है। कहने में यह बात आसान लगती है, पर असली समस्या विपक्ष की ज़मीन नहीं—उसकी सोच है। भाजपा को छोड़ दें तो उत्तर से लेकर दक्षिण तक ज़्यादातर विपक्षी दल आज भी उसी पुरानी समाजवादी और कम्युनिस्ट सोच में फँसे हुए हैं, जिसने इस देश को दशकों तक आगे बढ़ने ही नहीं दिया।
यह कहानी नेहरू के समय से शुरू हो गई थी। पंचवर्षीय योजनाओं के नाम पर सोवियत स्टाइल का मॉडल अपनाया गया, जहाँ हर काम सरकार करती है और आम आदमी की भूमिका बस इंतज़ार करने की होती है। उद्योग खोलना हो, व्यापार करना हो—सबकी चाबी सरकारी दफ्तरों के पास थी। यही लाइसेंस-परमिट राज था, जिसने भारत की रफ्तार को बाँध दिया।
इंदिरा गांधी ने इसे और कड़ा किया—बैंकों का राष्ट्रीयकरण, ऊँचे टैक्स, और सरकारी तंत्र का फैलाव। राजीव गांधी तकनीक लाए, लेकिन पूरी अर्थव्यवस्था वही समाजवादी जाल में फँसी रही।
1976 में आपातकाल लगा और संविधान की प्रस्तावना में “समाजवाद” और “धर्मनिरपेक्षता” जैसे शब्द जोड़ दिए गए—बिना जनता की राय, बिना किसी बहस के। यह भारत की संस्कृति से नहीं, यूरोपीय और सोवियत राजनीतिक सोच से आया हुआ था।
उत्तर भारत को इसका सबसे बड़ा नुकसान उठाना पड़ा।
कांग्रेस के साथ-साथ समाजवादी दल—लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, मायावती—इन सबने उत्तर भारत को विकास से दूर कर दिया।
बिहार में लालू यादव के समय की हालत आज भी “जंगलराज” के नाम से जानी जाती है—सड़क, बिजली, शिक्षा, स्वास्थ्य—सब टूटा हुआ।
लेकिन यह भी सच है कि नीतीश कुमार ने जब भाजपा के साथ सरकार बनाई, तभी बिहार इस अंधेरे दौर से बाहर निकला। कानून-व्यवस्था सुधरी, सड़कें बनीं, स्कूलों में सुधार हुआ। नीतीश का अच्छा काम उन वर्षों में हुआ जब वे भाजपा के साथ थे—यह किसी किताब में नहीं, आम आदमी की ज़बान पर है।
उत्तर प्रदेश भी वर्षों तक जाति और अपराध की राजनीति में उलझा रहा। विकास शब्द सुनाई ही नहीं देता था। भाजपा सरकार बनने के बाद पहली बार लोग एक्सप्रेसवे, एयरपोर्ट, निवेश, और कानून व्यवस्था का फर्क महसूस करने लगे।
मध्य प्रदेश, गुजरात और छत्तीसगढ़—जिन्हें कभी “बीमारू” कहा जाता था—आज इन राज्यों को खड़ा किया भाजपा ने।
मध्य प्रदेश में सिंचाई और सड़कें बढ़ीं।
गुजरात उद्योग और प्रशासन में मॉडल बना।
छत्तीसगढ़ के दूर-दराज इलाकों में पहली बार विकास पहुँचा।
बंगाल की कहानी तो सबसे दुखद है।
34 साल के कम्युनिस्ट शासन ने वहाँ की उद्योग व्यवस्था पूरी तरह खत्म कर दी।
सिंगूर से टाटा नैनो का जाना सिर्फ़ एक कंपनी का जाना नहीं था—वह पूरा संदेश था कि “बंगाल में उद्योग लगाना खतरा है।”
और दुख इस बात का कि ममता बनर्जी के आने के बाद भी कुछ सुधरा नहीं। कट-मनी, भ्रष्टाचार, और हिंसा की राजनीति ने बंगाल को और पीछे धकेल दिया। आज भी बंगाल के युवा काम के लिए बाहर जाने को मजबूर हैं।
अब बात उस बदलाव की, जो 2014 के बाद आया।
पहली बार लोगों ने महसूस किया कि देश सिर्फ़ घोषणाओं पर नहीं, असली काम पर चल सकता है।
कुछ ऐसे बदलाव जिन्हें लोगों ने अपनी आँखों से देखा—
• 2014 में राष्ट्रीय राजमार्ग 91,000 किमी थे—आज 1,46,000 किमी से ज़्यादा हैं।
• गाँवों में बिजली की पहुँच लगभग 100% हो चुकी है।
• 11 करोड़ घरों तक नल का पानी पहुँचा।
• 4 करोड़ से अधिक गरीब परिवारों को पक्के घर मिले।
• मुद्रा योजना में 52 करोड़ लोन मिले—सबसे ज्यादा महिलाओं और छोटे व्यापारियों को।
• डिजिटल इंडिया से करोड़ों लोगों को पहली बार बैंकिंग की सुविधा मिली।
• भारत आज दुनिया की पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है।
अब बात उस चीज़ की जिसे लोग सबसे ज्यादा महसूस करते हैं— रेलवे।
पहले ट्रेन का मतलब था—पुराने डिब्बे, देरी, और खराब हालात।
आज वंदे भारत ट्रेनें देश के बड़े हिस्से में दौड़ रही हैं। तेज़, साफ़, आरामदायक—आम आदमी भी महसूस करता है कि “देश बदल सकता है।”
बुलेट ट्रेन (मुंबई–अहमदाबाद हाई-स्पीड रेल) भी सिर्फ़ काग़ज़ पर नहीं, जमीन पर काम हो रहा है। सुरंगें बन रही हैं, पिलर खड़े हो रहे हैं—भारत पहली बार हाई-स्पीड रेल तकनीक का हिस्सा बन रहा है।
और एक बड़ा बदलाव—पूर्वोत्तर।
2014 से पहले दिल्ली से नेता केवल चुनाव में जाते थे। वहाँ सड़कें, पुल, रेल लाइनें, हवाईअड्डे—कुछ भी ढंग का नहीं था।
2014 के बाद पहली बार पूर्वोत्तर को देश का हिस्सा समझा गया।
• रेल पहली बार मणिपुर, मेघालय और अरुणाचल तक पहुँची।
• सड़कों और पुलों का विशाल नेटवर्क तैयार हुआ।
• उग्रवाद कम हुआ, पर्यटन बढ़ा, कारोबार बढ़ा।
पूर्वोत्तर के लोग आज कहते हैं—
“हमें पहली बार लगा कि दिल्ली हमारी भी सुनती है।”
और सच बात तो यह है कि जिन लोगों की आस्था भारत के स्व — हमारे सनातन धर्म, हमारी परंपरा, हमारी संस्कृति — में नहीं है,
जिनकी नज़र रोम, लंदन और मॉस्को में अटकी रहती है,
वे भारत का विकास सोच भी नहीं सकते।
जो लोग देश की अपनी ही कंपनियों को “चोर” कहते हैं,
और हर भारतीय उपलब्धि पर शक करते हैं,
वे देश को आगे बढ़ाने का इरादा लेकर नहीं आते—
वे भारत की ऊँचाई रोकने आते हैं।
कांग्रेस समेत ज्यादातर विपक्षी दल आज भी उसी अल्ट्रा कम्युनिस्ट सोच में फँसे हुए हैं,
जिसका मकसद विकास नहीं, बल्कि समाज को तोड़कर,
जाति–धर्म–भाषा में बाँटकर
राजनीति चलाना है।
जिन्हें हिंदू समाज से, भारतीय समाज से,
और भारत की आत्मा से ही घृणा है—
उनके हाथों में इस देश का भविष्य सुरक्षित हो ही नहीं सकता।
वे विकास नहीं चाहते—उनकी पूरी राजनीति भारत को कमजोर करने,
और टुकड़े–टुकड़े वाली सोच को बढ़ाने के लिए बनाई गई है।
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लेखक परिचय — दीपक कुमार द्विवेदी निवासी : ग्राम चचाई, जिला रीवा (मध्यप्रदेश) पद : प्रधान संपादक – www.jaisanatanbharat.com | संस्थापक – जय सनातन भारत समूह | संस्थापक-सदस्य – भारतीय मेधा परिषद टोली दीपक कुमार द्विवेदी समकालीन भारतीय वैचारिक विमर्श के एक प्रखर लेखक हैं, जो सनातन संस्कृति, राष्ट्रीय अस्मिता एवं आधुनिक वैचारिक चुनौतियों पर गहन विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं। आप जय सनातन भारत समूह तथा भारतीय मेधा परिषद टोली के माध्यम से वैचारिक जागरण और सांस्कृतिक पुनरुत्थान के विविध अभियानों का नेतृत्व कर रहे हैं। वर्तमान में आप TRS कॉलेज, रीवा से MBA (HR) का अध्ययन कर रहे हैं तथा वैचारिक लेखन और अध्ययन-साधना में निरंतर सक्रिय हैं। प्रकाशित पुस्तकें (Amazon) 1. सनातन का नवोदय : वर्तमान वैचारिक संघर्ष और हमारी दिशा 🔗 https://amzn.in/d/1ujqzeE 2. सनातन आर्थिक मॉडल : धर्मधारित विकास की दिशा 🔗 https://amzn.in/d/60hEjhG
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