🖋️दीपक कुमार द्विवेदी
जीवन जितना स्पष्ट दिखाई देता है, उतना ही रहस्यमय भी है।
कभी किसी प्रियजन के जाने के बाद जब घर का कोई कोना खाली पड़ जाता है, तो मन के भीतर एक मौन सवाल उठता है — क्या सचमुच वह चला गया? क्या जीवन यहीं खत्म हो जाता है?
यही प्रश्न शायद हर मनुष्य के भीतर किसी न किसी क्षण जागता है। और इसी प्रश्न ने भारतीय चेतना को उस सत्य तक पहुँचाया, जिसे हम पुनर्जन्म और कर्म सिद्धान्त के नाम से जानते हैं।
हमारे शास्त्र कहते हैं — आत्मा कभी मरती नहीं, वह केवल रूप बदलती है।
भगवद्गीता का वाक्य याद आता है —
> “वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।”
जैसे मनुष्य पुराने वस्त्र छोड़कर नए पहनता है, वैसे ही आत्मा भी शरीर बदलती है।
१. आत्मा और कर्म का शास्त्रीय आधार
सनातन ग्रंथों में आत्मा को “नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त” कहा गया है।
भगवद्गीता के दूसरे अध्याय में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं —
> “नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः।”
आत्मा को न कोई अस्त्र काट सकता है, न अग्नि जला सकती है।
यह शाश्वत सत्ता है, जो केवल शरीर बदलती है —
जैसे मनुष्य पुराने वस्त्र त्यागकर नये धारण करता है।
शरीर बदलने की यह प्रक्रिया ही पुनर्जन्म है।
कर्म सिद्धान्त उसी आत्मा की गति को निर्धारित करता है।
बृहदारण्यक उपनिषद् कहता है —
> “यथाकर्म यथाश्रुतं एव आयं पुरुषः भवति।”
जैसा कर्म, वैसा ही भविष्य जन्म और अनुभव।
अर्थात कर्म ही आत्मा का दिशा-निर्धारक है।
वह पुण्य और पाप, शुभ और अशुभ के अनुसार अनुभवों का परिणाम देता है।
यही सृष्टि का नैतिक-संतुलनकारी यंत्र है — एक अदृश्य न्याय व्यवस्था।
२. तर्क और दर्शन के स्तर पर पुनर्जन्म
(क) यदि आत्मा नहीं है और केवल शरीर ही अस्तित्व का आधार है,
तो जन्म के साथ चेतना कैसे आती है?
भ्रूण में शरीर तो बनता है, पर चेतना कब प्रवेश करती है?
यह प्रश्न भौतिकतावादी विज्ञान आज तक नहीं सुलझा पाया।
सनातन दृष्टि कहती है — गर्भ में आत्मा का प्रवेश ही “प्राण प्रतिष्ठा” है।
(ख) मनुष्य में जन्मजात प्रवृत्तियाँ, भय, संस्कार और प्रतिभा कहाँ से आती है?
क्यों कोई बालक बिना सिखाए वाद्य बजा लेता है, कोई जन्म से धर्मशील होता है,
तो कोई क्रूर?
प्लेटो ने भी कहा था — “Learning is recollection.”
अर्थात् सीखना स्मरण है —
जो आत्मा पहले से जानती है, वही पुनः प्रकट करती है।
यह स्मृति तभी संभव है जब चेतना का प्रवाह एक जन्म से दूसरे जन्म तक चलता हो।
(ग) यदि केवल एक जीवन है और उसके बाद कुछ नहीं,
तो प्रकृति का न्याय कहाँ है?
क्यों कोई जन्म से दरिद्र और कोई समृद्ध?
क्यों किसी के जीवन में अपार कष्ट और किसी के पास बिना प्रयत्न सब कुछ?
यदि ईश्वर न्यायकारी है तो वह असमानता क्यों देगा?
सनातन उत्तर स्पष्ट है —
यह असमानता वर्तमान जीवन की नहीं, कर्मफल के निरंतर प्रवाह की परिणति है।
३. पुनर्जन्म : आत्मा की यात्रा का वैज्ञानिक और अनुभवजन्य प्रमाण
पुनर्जन्म (Reincarnation) का विचार केवल भारत का नहीं, अब तो पश्चिमी वैज्ञानिकों ने भी इसे अध्ययन का विषय बना लिया है।
(१) इयान स्टीवेंसन (University of Virginia)
प्रसिद्ध मनोचिकित्सक डॉ. स्टीवेंसन ने लगभग 3,000 बच्चों के केस अध्ययन किए,
जिन्होंने अपने “पूर्व जन्म” के स्मरण बताए।
कई मामलों में बच्चों द्वारा बताए गए स्थान, लोगों के नाम और मृत्यु की परिस्थितियाँ
जांच में सत्य पाई गईं।
उन्होंने निष्कर्ष लिखा —
> “Reincarnation is the most logical hypothesis to explain these cases.”
(२) डॉ. ब्रायन वीस (Past Life Regression)
अमेरिकी चिकित्सक डॉ. वीस ने अपने मरीजों की सम्मोहन चिकित्सा के दौरान
उनकी पूर्वजन्म स्मृतियों का अनुभव कराया।
उनकी प्रसिद्ध पुस्तक Many Lives, Many Masters ने यह दिखाया कि
आत्मा का अनुभव चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में भी संभव है।
(३) ऊर्जा संरक्षण का सिद्धान्त
आधुनिक भौतिकी कहती है —
> “Energy can neither be created nor destroyed, it only changes form.”
यदि चेतना ऊर्जा का एक रूप है,
तो उसका लोप असंभव है —
वह केवल शरीर बदलती है।
यही पुनर्जन्म का वैज्ञानिक तर्क है।
४. One Life Concept” : भौतिकतावाद, उपभोक्तावाद और मानवीय विखंडन की जड़
आज की दुनिया में मनुष्य पहले से अधिक शिक्षित है, लेकिन पहले से अधिक अस्थिर भी।
घर हैं, पर परिवार नहीं; साधन हैं, पर संतोष नहीं।
मनुष्य अपने ही बनाए यंत्रों का दास बन चुका है — मोबाइल और मशीनों से घिरा,
पर भीतर से खाली।
यह शून्यता किसी आकस्मिक सामाजिक परिवर्तन का परिणाम नहीं,
बल्कि एक गहरी दार्शनिक भूल का परिणाम है — “One Life Concept” की भूल।
अब्राह्मिक मतों में कहा गया —
मनुष्य को केवल एक ही जीवन मिला है; यही एक अवसर है भोग का, सफलता का, और स्वर्ग अर्जन का।
यह विचार, देखने में सरल और भावनात्मक लगता है, परंतु इसका परिणाम अत्यंत विनाशकारी हुआ।
जब मनुष्य यह मान बैठा कि उसे केवल एक ही बार जीना है,
तो उसने हर सुख, हर संसाधन, हर अनुभव को उसी जीवन में समेट लेने की होड़ शुरू कर दी।
यहीं से जन्म हुआ — भौतिकतावाद (Materialism) का,
और फिर उसी से उपजा उपभोक्तावाद (Consumerism)।
भौतिकतावाद ने मनुष्य की दृष्टि को आत्मा से हटाकर वस्तुओं पर केंद्रित कर दिया।
परिवार, जो कभी भावनाओं और त्याग का केन्द्र था,
अब लाभ और सुविधा का समीकरण बन गया।
माता-पिता “बोझ” कहे जाने लगे,
संस्कार “पुराने जमाने की बातें” बन गए।
और हर संबंध, हर भावना, “लाभ” की गणना से मापी जाने लगी।
उपभोक्तावाद ने मनुष्य को ग्राहक में बदल दिया —
जहाँ उसका मूल्य उसके हृदय से नहीं, बल्कि उसकी क्रय शक्ति से तय होने लगा।
यही कारण है कि आज समाज के केंद्र में मनुष्य नहीं, वस्तु है;
और वस्तु के केंद्र में लाभ है।
इस दौड़ ने मनुष्य को धीरे-धीरे यंत्रवत् (robotic) बना दिया है —
जिसका जीवन किसी भावनात्मक चेतना से नहीं,
बल्कि बाज़ार और एल्गोरिथ्म से संचालित होता है।
प्रकृति का असीम दोहन, पर्यावरण का ह्रास, जलवायु का असंतुलन —
ये सब इसी एक जीवन की मानसिकता का विस्तार हैं।
जो मानता है कि मृत्यु के बाद कुछ नहीं,
वह वृक्ष काटते समय भविष्य नहीं सोचता,
नदियाँ प्रदूषित करते समय आने वाली पीढ़ियाँ नहीं देखता।
उसके लिए सृष्टि केवल उपभोग का साधन है,
संरक्षण का नहीं।
यही “One Life Concept” है —
एक ऐसी दृष्टि जिसने मनुष्य को भोगी बना दिया, योगी नहीं;
विजेता बना दिया, संरक्षक नहीं;
रोबोट बना दिया, रचनाकार नहीं।
५. सनातन दृष्टि : पुनर्जन्म और कर्म के माध्यम से सृष्टि का संतुलन
सनातन दर्शन इस असंतुलन का प्रतिविष है।
वह कहता है — जीवन एक यात्रा है, केवल एक अवसर नहीं।
हर जन्म, हर कर्म, हर अनुभव आत्मा की साधना का चरण है।
इसलिए मनुष्य को न केवल अपने वर्तमान की,
बल्कि आने वाले जन्मों और भविष्य की भी जिम्मेदारी लेनी चाहिए।
जो यह जानता है कि वह अपने कर्मों का फल अगली योनियों में भी भोगेगा,
वह वृक्ष काटने से पहले दस वृक्ष लगाता है।
जो जानता है कि पुनर्जन्म होगा,
वह परिवार को बोझ नहीं, आत्मा की शरण समझता है।
वह भोग में नहीं, त्याग में आनंद पाता है —
क्योंकि उसे पता है कि कर्म और आत्मा अमर हैं,
केवल शरीर नश्वर है।
इसीलिए सनातन दर्शन में परिवार को “गृहस्थ आश्रम” कहा गया है —
जहाँ परिवार केवल सामाजिक संस्था नहीं,
बल्कि आत्मा की परिपक्वता का प्रयोगशाला है।
जहाँ सेवा, त्याग और प्रेम के माध्यम से
मनुष्य अपनी चेतना को विस्तृत करता है।
६.आत्मा से ब्रह्म तक — एक सनातन यात्रा
पुनर्जन्म और कर्म सिद्धान्त केवल धार्मिक विश्वास नहीं,
बल्कि जीवन के विज्ञान हैं —
जो प्रकृति, नैतिकता और मानव चेतना को जोड़ते हैं।
“One Life” की विचारधारा मनुष्य को सीमित, भयभीत और स्वार्थी बनाती है,
जबकि पुनर्जन्म की दृष्टि उसे असीम, उत्तरदायी और करुणामय बनाती है।
जो समझ लेता है कि आत्मा अमर है, वह किसी से घृणा नहीं करता,
क्योंकि सब आत्माएँ उसी ब्रह्म के अंश हैं।
> “अहं ब्रह्मास्मि।” — यह ज्ञान केवल दार्शनिक नहीं,
बल्कि जीवन के संतुलन का सूत्र है।
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