🖋️ दीपक कुमार द्विवेदी
भारत की आत्मा को समझने के लिए केवल संविधान पढ़ना पर्याप्त नहीं है, उसके पीछे छिपी सभ्यता की चेतना को भी महसूस करना पड़ता है। यही चेतना है जो भारत को केवल एक “राज्य” नहीं, बल्कि एक जीवित राष्ट्र बनाती है। पर आज यही चेतना “सेकुलर स्टेट” की व्याख्या के नाम पर सबसे अधिक भ्रमित की जा रही है।
आज सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश सरकार के धर्मांतरण प्रतिषेध अधिनियम पर टिप्पणी करते हुए कहा कि “भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है, अतः कोई भी व्यक्ति अपनी इच्छा से धर्म परिवर्तन कर सकता है।” अदालत ने यह भी कहा कि धर्मांतरण से पहले या बाद में की जाने वाली घोषणाएँ व्यक्ति की निजता का उल्लंघन हो सकती हैं।
सुनने में यह तर्क “स्वतंत्रता” का प्रतीक लगता है, परंतु प्रश्न यह है कि क्या धर्मांतरण वास्तव में केवल व्यक्तिगत चयन का विषय है? या इसके पीछे संगठित विदेशी शक्तियाँ, मिशनरी संगठन, और वैचारिक एजेंडों का पूरा तंत्र सक्रिय है?
यदि धर्मांतरण वास्तव में केवल आस्था का परिणाम होता, तो देश के सीमांत, वनवासी और निर्धन क्षेत्रों में लाखों लोगों का एक ही धर्म विशेष में परिवर्तित होना कैसे सम्भव है? क्या यह केवल संयोग है कि जहाँ-जहाँ विदेशी फंडिंग और मिशनरी नेटवर्क सबसे अधिक हैं, वहीं सबसे अधिक धर्मांतरण होते हैं?
सन 1947—भारत स्वतंत्र हुआ था, पर आत्मा अभी भी उन जख्मों से लहूलुहान थी जो मजहबी विभाजन ने दिए थे। करोड़ों लोग विस्थापित हुए, लाखों मारे गए, और एक राष्ट्र की आत्मा धर्म के नाम पर चीर दी गई। संविधान सभा जब एक नए भारत की नींव रख रही थी, तब एक आवाज उस सभा में गूंजी थी — पंडित लक्ष्मीनारायण साहू की।
वे उस समय मध्य प्रांत से निर्वाचित सदस्य थे। उनका चेहरा शांत था, पर शब्दों में मातृभूमि के भविष्य की पीड़ा थी। उन्होंने कहा —
> “हमारे मध्य दो ऐसे मत हैं जो इस भूमि को अपनी पितृभूमि और मातृभूमि नहीं मानते। उनके ग्रंथ और उपदेश यह घोषित करते हैं कि संपूर्ण विश्व को वे अपने मत में दीक्षित करेंगे, चाहे स्वेच्छा से या तलवार के भय से। यदि ऐसे मतों को धर्मांतरण की खुली छूट दी गई, तो यह भारत की एकता और अखंडता के लिए भयावह सिद्ध होगा।”
सभा में क्षणभर के लिए सन्नाटा छा गया। यह वह समय था जब सबको 'धर्मनिरपेक्ष भारत' का स्वप्न आकर्षक लग रहा था। परंतु साहू जी की दृष्टि केवल वर्तमान तक सीमित नहीं थी — वह आने वाले समय के भारत को देख रही थी। उन्होंने आगे कहा —
> “यह भूमि मात्र भौगोलिक इकाई नहीं है, यह भारत माता की आत्मा है। यदि इस आत्मा को तोड़ा गया, यदि हमने उन शक्तियों को खुली छूट दी जो हमारे पूर्वजों की आस्था को नष्ट करना चाहती हैं, तो यह स्वतंत्र भारत फिर से खंडित हो सकता है। धर्मांतरण का प्रश्न केवल धार्मिक स्वतंत्रता का नहीं, यह राष्ट्रीय सुरक्षा का प्रश्न है।”
उनकी यह चेतावनी आज शब्दशः सत्य सिद्ध हो रही है। जिस समस्या को तब राष्ट्रीय सुरक्षा से जोड़ा जाना चाहिए था, उसे “अल्पसंख्यकों के अधिकार” के नाम पर ढक दिया गया। संविधान सभा ने उस दिन कोई कठोर निर्णय नहीं लिया, और वही शून्य आज समाज की आंतरिक एकता को खा रहा है।
आज जब सर्वोच्च न्यायालय यह कहता है कि “भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है, और हर व्यक्ति को धर्म परिवर्तन की स्वतंत्रता है,” तब प्रश्न उठता है — क्या यह स्वतंत्रता किसी राष्ट्र की अखंडता से बड़ी है? क्या धर्मांतरण केवल आस्था का परिवर्तन है, या यह जनसंख्या संतुलन, सांस्कृतिक वर्चस्व और राजनीतिक समीकरण बदलने का साधन बन चुका है?
उत्तर प्रदेश धर्मांतरण प्रतिषेध अधिनियम हो या अन्य राज्यों के समान कानून — उनका उद्देश्य किसी की आस्था छीनना नहीं, बल्कि उन संगठित तंत्रों को रोकना है जो छल, प्रलोभन और धोखे से समाज की संरचना को तोड़ रहे हैं। लेकिन हर बार जब ऐसी पहल होती है, तब “सेकुलरिज़्म” का ढाल खड़ा कर दिया जाता है।
भारत का धर्मनिरपेक्षता मॉडल पश्चिम से लिया गया है, जहाँ Religion केवल पूजा-पद्धति तक सीमित है। पर भारत का धर्म केवल आस्था नहीं — यह कर्तव्य, मर्यादा, सत्य और न्याय की समग्र व्यवस्था है। इसलिए यह भूमि कभी “धर्मनिरपेक्ष” नहीं हो सकती; यह सदा धर्म-सापेक्ष रही है — क्योंकि धर्म ही यहाँ जीवन का आधार है।
आज धर्मांतरण के नाम पर जनसांख्यिकीय परिवर्तन, विदेशी फंडिंग, मिशनरी गतिविधियाँ, और कट्टरपंथी जिहाद — यह सब उसी संकट के स्वरूप हैं जिसकी भविष्यवाणी पं. लक्ष्मीनारायण साहू ने संविधान सभा में की थी।
उन्होंने कहा था —
> “धर्मांतरण रोकना किसी के पूजापद्धति में हस्तक्षेप नहीं है, यह राष्ट्र के आत्मरक्षा का कर्तव्य है।”
परंतु उस पुकार को अनसुना कर दिया गया। परिणाम हमारे सामने है — केरल, बंगाल, असम, झारखंड और उत्तर-पूर्व भारत में जनसंख्या संतुलन बदल चुका है। कई गाँवों में भारत की आत्मा के स्वर मद्धिम पड़ चुके हैं।
आज आवश्यकता उस दृष्टि को पुनः जागृत करने की है — जो धर्म और राष्ट्र को दो विरोधी नहीं, बल्कि एक ही सत्य के दो रूप मानती है। धर्मनिरपेक्षता तब तक संभव है जब तक धर्मनिष्ठता जीवित है।
जब धर्म लुप्त होगा, तब न भारत बचेगा, न उसकी आत्मा।
सेकुलरिज़्म : पश्चिम की उपज, भारत के लिए विष
भारत का संविधान “सेकुलर” शब्द को 1976 में 42वें संशोधन द्वारा अपनाता है, पर “धर्मनिरपेक्षता” की यह अवधारणा भारतीय चिंतन की नहीं, बल्कि यूरोपीय राजनीति की उपज है।
पश्चिम में “सेकुलरिज़्म” का अर्थ था — Church और State का विभाजन, अर्थात शासन को ईसाई धर्म के प्रभाव से मुक्त करना। वहाँ “Religion” केवल पूजा-पद्धति और ईश्वर में विश्वास तक सीमित था।
भारत का जीवन सदा से धर्मप्रधान रहा है। यहाँ धर्म केवल पूजा-पद्धति, मत या संप्रदाय का नाम नहीं है; यह जीवन का शाश्वत नियम है, समाज की रीढ़ है और राष्ट्र की आत्मा है। धर्म वह शक्ति है जो व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र को संतुलित रखती है और जिसे हम आस्था और कर्तव्य के रूप में धारण करते हैं। धर्म का आधार ईश्वर है, पर यह केवल ईश्वर की आज्ञा तक सीमित नहीं है। धर्म ईश्वर से भी श्रेष्ठ है, क्योंकि ईश्वर स्वयं धर्म के नियमों का पालन करते हैं और कभी श्रीराम, कभी कृष्ण या बुद्ध के रूप में धर्म का पालन कर मानवता को मार्गदर्शन देते हैं।
धर्म सृष्टि का शाश्वत नियम है। सूर्य अपने प्रकाश का धर्म निभाता है, नदी और समुद्र अपने प्रवाह का धर्म निभाते हैं, पृथ्वी अपने घूर्णन का धर्म निभाती है। इसी प्रकार, प्रत्येक व्यक्ति का धर्म उसके जीवन, चरित्र और समाज के प्रति कर्तव्य में प्रकट होता है। व्यक्ति के स्वधर्म से राष्ट्रधर्म जन्म लेता है, और राष्ट्रधर्म से विश्वधर्म की दिशा तय होती है। धर्म अल्पमत में भी श्रेष्ठ है, क्योंकि उसकी शक्ति संख्या या लोकप्रियता से नहीं, बल्कि उसके सत्य, न्याय और नैतिक मूल्यों से मापी जाती है।
यहाँ धर्म और रिलीजन में स्पष्ट अंतर करना आवश्यक है। रिलीजन या पश्चिमी Religion केवल किसी विशेष उपासना और आस्था की प्रणाली है—“Religion means a system of faith and worship।” यह केवल निजी श्रद्धा और पूजा तक सीमित है। जबकि धर्म व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र और सृष्टि के समग्र नियम, मूल्य, कर्तव्य और आचरण का समुच्चय है। उपासना केवल धर्म का एक अंग मात्र है।
इसलिए “सेकुलरिज़्म” की पश्चिमी परिभाषा भारत में लागू करना, भारत की आत्मा पर पश्चिमी आवरण चढ़ाने जैसा है।
जिस सभ्यता में धर्म ही जीवन का आधार है, वहाँ धर्म से विमुख होना आत्मविनाश के समान है।
सेकुलरिज़्म के नाम पर धर्मविहीन राष्ट्र का निर्माण
आज सेकुलरिज़्म के नाम पर ऐसी व्यवस्था बनाई जा रही है जहाँ राष्ट्र की आत्मा से धर्म को काट दिया गया है।
धर्मशून्यता को आधुनिकता और प्रगतिशीलता का प्रतीक बना दिया गया है।
सेकुलरिज़्म अब निष्पक्षता नहीं, बल्कि नास्तिकता का राजनीतिक रूप बन गया है —
जहाँ हिन्दू आस्था को “बहुसंख्यकवाद” कहकर तिरस्कृत किया जाता है,
और मजहबी कट्टरता को “अल्पसंख्यक अधिकार” बताकर प्रश्रय दिया जाता है।
यह वही मार्ग है जिस पर चलकर भारत के विभाजन की नींव रखी गई थी।
यदि आज भी वही गलती दोहराई गई, तो भारत फिर वैचारिक रूप से खंडित होगा —
इस बार बिना रक्तपात के, लेकिन आत्मिक रूप से।
धर्मांतरण और राष्ट्रघात
धर्मांतरण केवल आस्था का परिवर्तन नहीं है — यह संस्कृति, पहचान, और निष्ठा का परिवर्तन है।
जब किसी क्षेत्र की जनसंख्या का धार्मिक स्वरूप बदला जाता है, तो वहाँ की भाषा, संस्कृति, परंपरा और सामाजिक संबंध भी बदल जाते हैं।
यह एक जनसांख्यिकीय युद्ध है — जो बंदूकों से नहीं, बल्कि प्रचार, प्रलोभन और फंडिंग से लड़ा जा रहा है।
सुप्रीम कोर्ट यदि “सेकुलरिज़्म” के नाम पर इस प्रक्रिया को स्वतंत्रता का अधिकार मानता है,
तो यह राष्ट्र की एकता, अखंडता और सांस्कृतिक अस्तित्व के लिए घातक है।
क्योंकि राष्ट्र केवल भूखंड नहीं होता, वह एक साझा चेतना होता है —
और वह चेतना धर्म से ही पोषित होती है।
भारत धर्मसापेक्ष है, धर्मनिरपेक्ष नहीं
भारत कभी “धर्मनिरपेक्ष” नहीं रहा। यह हमेशा धर्मसापेक्ष रहा है — ऐसा देश जहाँ शासन और जीवन के हर पहलू में धर्म का संरक्षण और सम्मान किया गया। यहाँ राजा धर्म से बड़ा नहीं था; राज्य का आधार राजधर्म था। यही वह नींव थी जिसने भारतीय समाज और शासन को सदैव स्थिर और न्यायपूर्ण रखा।
इतिहास इसके जीवंत उदाहरणों से भरा है। महाराज मनु ने धर्म और न्याय को शासन की रीढ़ माना। राम ने अपने जीवन में धर्म और नीति को सर्वोपरि रखा। युधिष्ठिर ने सत्य और धर्म के पालन से राज्य का आधार मजबूत किया। विक्रमादित्य ने धर्म को शासन और समाज की आत्मा बना दिया। वीर शिवाजी ने धर्म और संस्कृति के संरक्षण को अपने जीवन का उद्देश्य बनाया। और आज, आधुनिक भारत में, नरेंद्र मोदी जैसे नेता भी राष्ट्र की नींव पर धर्म और संस्कृति को मान्यता देते हैं।
इसलिए यदि भारत से धर्म को अलग कर दिया जाएगा, यदि धर्म केवल निजी आस्था या पूजा तक सीमित रह जाएगा, तो देश केवल भौगोलिक नाम रह जाएगा। उसकी चेतना, उसकी संस्कृति और उसकी आत्मा धीरे-धीरे खो जाएगी। भारत की असली पहचान उसकी धार्मिक चेतना और सांस्कृतिक धरोहर से ही है, और इसे सुरक्षित रखना हर नागरिक की जिम्मेदारी है।
भारत को “सेकुलर स्टेट” कहना उस भूमि का अपमान है जिसने वेदों में कहा —
धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा।”
अर्थात् — धर्म ही इस विश्व का आधार है।
भारत धर्मनिरपेक्ष नहीं हो सकता क्योंकि यहाँ धर्म कोई मजहब नहीं, बल्कि जीवन का मूल नियम है।
भारत का संविधान तभी जीवंत रह सकता है जब वह अपनी सभ्यता की जड़ों से जुड़ा रहे। धर्म को राजनीति से काट देने का अर्थ भारत को उसकी आत्मा से काट देना है।
पश्चिमी “सेकुलरिज़्म” की सीमाएँ वहाँ तक हैं जहाँ “रिलिजन” समाप्त होता है; भारत का “धर्म” वहाँ से आरम्भ होता है जहाँ जीवन का शाश्वत सत्य आरम्भ होता है।
सेकुलरिज़्म के नाम पर यदि धर्मांतरण को “व्यक्तिगत अधिकार” कहा जाएगा, तो यह राष्ट्र की अखण्डता, सांस्कृतिक एकता और जनसंख्या-संतुलन — तीनों के लिए घातक सिद्ध होगा।
धर्मांतरण का प्रश्न केवल आस्था का नहीं, बल्कि राष्ट्र-सुरक्षा का प्रश्न है।
भारत की एकता तभी तक अटूट है, जब तक उसकी धार्मिक और सांस्कृतिक चेतना जीवंत है।
यदि यह चेतना टूट गई, तो भारत केवल एक भूगोल रह जाएगा — राष्ट्र नहीं।
अतः यह समय है कि हम स्मरण करें —
“धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः।”
धर्म के बिना न व्यक्ति टिकता है, न समाज, न राष्ट्र।
भारत का अस्तित्व धर्म से है, और धर्म का अस्तित्व भारत से।
सेकुलर स्टेट के नाम पर इस सम्बन्ध को तोड़ना, भारत की आत्मा को मूक कर देना है।
और जब आत्मा मूक हो जाती है — तब राष्ट्र केवल एक शव रह जाता है।
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