संस्कृति क्या है ?


संस्कृति क्या है ? 

प्राकृतिक विधानके अनुरूप संस्कार की हुई पद्धति ही संस्कृति है। उसी संस्कृतिके किसी अंशको सभ्यता कहते हैं। एक

संस्कृति अनुभवजन्य ज्ञानके और सभ्यता बुद्धिजन्य ज्ञानके आधारपर निर्भर है। अनुभवजन्य ज्ञान नित्य और बुद्धिजन्य ज्ञान परिवर्तनशील होनेके कारण संस्कृति नित्य और सभ्यता परिवर्तनशील होती है।

किसी देश-कालकी सभ्यता किसीके लिये अहितकारी भी हो सकती है; किंतु संस्कृति सर्वदेश,सर्वकालमें सभीके लिये सर्वथा हितकारी ही होती है। संस्कृति किसी मानवकी उपज नहीं, प्रत्युत खोज है। इसी कारण वह नित्य है। उसका निरादर पतनका मूल है, उसका आदर विकासका हेतु है।

संस्कृतिरूपी भूमिमें धर्मरूप वृक्ष शोभा पाता है। जिस प्रकार वृक्षमें फल, फूल, पत्ते, शाखा आदि अनेक अंग हैं, उसी प्रकार धर्मरूपी वृक्षके सभी सम्प्रदाय अंग हैं। सार्वभौम सार्वजनिक साधनका नाम धर्म और व्यक्तिगत साधनका नाम सम्प्रदाय है। संस्कृतियुक्त धर्म ही वास्तवमें हिंदुत्व है, उस हिंदुत्वको अपनानेवाला हिंदू है।

हिंदुत्व अपना लेनेपर प्राणी किसीका ऋणी नहीं रहता और उसकी प्रसन्नता किसी अन्यपर निर्भर नहीं रहती। धर्म-विज्ञान, अध्यात्मविज्ञान एवं योगविज्ञान-तीनों ही हिंदुत्वके प्रधान अंग हैं। धर्मविज्ञानसे प्राणीका जीवन सुन्दर हो जाता है, अध्यात्मविज्ञानसे सब प्रकारकी परतन्त्रता मिट जाती है और योगविज्ञानसे शक्ति संचय होती है।

धर्म प्राणीको ह्राससे विकासकी तथा असत्यसे सत्यकी, सीमितसे असीमकी, जडतासे चेतनाकी और मृत्युसे अमृतत्वकी ओर ले जाता है।

धर्म अपने कर्तव्यसे दूसरोंके अधिकारोंको सुरक्षित रखनेकी प्रेरणा करता है। इस कारण धर्मात्माकी माँग सभीको है।
अपनी-अपनी योग्यताके अनुसार भिन्न-भिन्न साधन करते हुए एक ही साध्यके प्राप्त करानेमें धर्म समर्थ है। साधन-भेद होनेपर भी प्रीति-भेद तथा लक्ष्य-भेद नहीं होता। यही धर्मकी महत्ता है।

दो व्यक्ति भी सर्वांशमें समान योग्यताके नहीं होते; किंतु अनेक व्यक्तियोंकी आवश्यकता अर्थात् लक्ष्य एक ही होता है। इस कारण धर्म साधनकी भिन्नता और साध्यकी एकताका प्रतिपादन करता है।

जिस प्रकार गहरी नींदमें सभी प्राणी समान होते हैं, जाग्रत् और स्वप्नमें नहीं, उसी प्रकार साध्यकी प्राप्तिमें सभी समान होते हैं, साधनकालमें नहीं।

अपना निर्माण करनेके लिये साधनका भेद और साध्यकी एकता परम अनिवार्य है।

व्यक्ति-निर्माण ही समाज निर्माण और समाज-

निर्माण ही विश्वके हितका मुख्य हेतु है। व्यक्तिप्र निर्माण संस्कृतियुक्त धर्म अर्थात् हिंदुत्वके बिना किसी व भी प्रकार सम्भव नहीं है।

हिंदुत्व मानव जीवनको गुणोंका विकास, सीमित प उपभोग, सेवा और त्याग-इन चार भागोंमें विभाजित करनेके लिये प्रेरित करता है। प्रथम भाग और तीसरा भाग उपार्जन-काल हैं, उपभोग काल नहीं। दूसरा भाग विषयानन्द और चतुर्थ भाग निजानन्द तथा प्रेमानन्दको प्रदान करता है। प्रथम भागमें मानव दीक्षा तथा शिक्षाद्वारा अपनेको सुन्दर बनाता है अर्थात् ज्ञान-विज्ञान तथा कलाओंद्वारा सुशोभित करता है, जिससे समाज उसको स्थान देता है। द्वितीय भागमें अर्थ और कामकी वास्तविकताका अनुभव करनेके लिये धर्मानुकूल उपभोगमें प्रवृत्त होता है- अर्थात् न्यायपूर्वक उपार्जित अर्थसे रोगी, बालक एवं सेवक तथा विरक्तकी सेवा करता है तथा अपनेसे योग्य सन्तान उत्पन्नकर पितृ ऋणसे मुक्त होता है। तृतीय भागमें जितेन्द्रियतापूर्वक सेवाद्वारा समाजके ऋणसे मुक्त हो सत्यकी खोज करता है। चतुर्थ भागमें असत्यको त्याग अपनेमें ही अपने प्रीतमका अनुभव कर कृतकृत्य हो जाता है।

१. तप (धर्मार्थ कठिनाइयोंको प्रसन्नतापूर्वक सहन करना)।

२. व्रत (अपने लक्ष्यकी प्राप्तिके लिये दृढ़ संकल्प करना)।

३. प्रायश्चित्त (की हुई भूल पुनः न करना)।

४. प्रार्थना (अपनी निर्बलताओंको मिटानेके लिये व्यथित हृदयसे प्रेम-पात्रको पुकारना)।

- ये चारों ही हिंदुत्वके मुख्य अंग हैं, जिनके बिना कोई भी प्राणी- चाहे वह किसी भी देश, जाति अथवा संघका क्यों न हो-विकास नहीं कर पाता। इस दृष्टिसे यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि मानव-विकास हिंदुत्वके बिना सम्भव नहीं है।


जिससे किसीको भय न हो अर्थात् जिसके हृदयमें केवल प्रीतिकी गंगा लहराती हो तथा जिसका शरीर विश्वके काम आ गया हो एवं जिसका अहं अभिमानशून्य हो और जिसको किसीसे भय न हो -अर्थात् नित्य जीवन, नित्य रस, नित्य प्यार सतत उपलब्ध हों, वही हिंदू है।


प्रत्येक अहिंदू हिंदू हो सकता है। क्योंकि हिंदुत्व -प्राप्त करनेके लिये केवल प्राप्त योग्यताका सदुपयोग करना है, जिसके करनेमें मानव सर्वथा स्वतन्त्र है।

प्राणी परिस्थिति-परिवर्तनमें भले ही परतन्त्र हो, न पर उसके सदुपयोगमें लेशमात्र भी परतन्त्रता नहीं है। इस कारण हिंदू-धर्मके अपना लेनेमें किसीको भी कठिनाई नहीं है। जो जिस अवस्थामें है, उसीके अनुरूप साधन निर्माण करके हिंदुत्व प्राप्तकर अभय हो जाओ-यही मानव-समाजके लिये हिंदू-संस्कृतिका जयघोष है।

कर्मकी भिन्नता एवं स्नेहकी एकता ही हिंदुत्वका न गौरव है।

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