सनातन वैदिक धर्म: भारत की आत्मा, राष्ट्रधर्म और सुरक्षा का आधार



🖋️दीपक कुमार द्विवेदी 


इस्लाम, ईसाई धर्म और वामपंथ से उत्पन्न समस्याओं का समाधान केवल धर्मविहीन राज्य अर्थात सेक्युलरिज्म से नहीं किया जा सकता। ये विचारधाराएँ पश्चिम से प्रविष्ट हुईं और यूरोपीय राजनीति तथा जीवन पर गहरा प्रभाव छोड़ गईं। इनमें राष्ट्रवाद, प्रजातंत्र और समाजवाद विशिष्ट स्थान रखते हैं। इसके साथ ही, विश्व-एकता और शांति की कामना करने वाले भी वहाँ उत्पन्न हुए, और उस दिशा में कुछ प्रयास भी हुए।

इनमें राष्ट्रवाद सबसे प्राचीन, दृढ़ और प्रभावशाली है। रोम साम्राज्य के पतन के पश्चात् और रोमन कैथोलिक चर्च के प्रभाव में कमी तथा उसके प्रति विद्रोह के फलस्वरूप यूरोप में स्वतंत्र राष्ट्रों का उदय हुआ। यूरोप का एक हजार वर्षों का इतिहास इसी राष्ट्रों के आविर्भाव, उनके उत्थान और आपसी संघर्ष का जीवंत दस्तावेज है। ये राष्ट्र यूरोप महाद्वीप से बाहर जाकर अपने उपनिवेश स्थापित करने लगे और अन्य स्वतंत्र देशों को अपने अधीन किया।

राष्ट्रवाद के उत्कर्ष से राष्ट्र और राज्य की एकता की प्रवृत्ति प्रबल हुई, और यूरोप में राष्ट्रीय राज्य (National States) का निर्माण हुआ। इसी क्रम में, रोमन कैथोलिक चर्च का केंद्रीय प्रभाव घटा, जिससे कुछ स्थानों पर राष्ट्रीय चर्च की स्थापना हुई अथवा धार्मिक नेतृत्व का राजनीतिक क्षेत्र सीमित हुआ। परिणामस्वरूप, राजनीति में धार्मिक गुरुओं का विशिष्ट स्थान समाप्त हुआ और धर्मनिरपेक्ष राज्य की अवधारणा जन्मी।
पश्चिमी जगत में जिन सिद्धांतों के आधार पर धर्मनिरपेक्ष (सेकुलर) राज्य की अवधारणा गढ़ी गई, वे मूलतः रोमन चर्च की सत्ता और नीतियों के विरुद्ध निर्मित थे। पर क्या हमने कभी गंभीरतापूर्वक विचार किया कि इन सिद्धांतों की तुलना सनातन वैदिक धर्म, उसकी शाखाओं—बौद्ध, जैन, सिख—और अनेकों लोकपरंपराओं से कैसे की जा सकती है? क्या पश्चिम के ये सिद्धांत वास्तव में अब्राहमिक या मरोचित विचारधारा से पूर्णतः मुक्त हो गए हैं?

क्या रोमन चर्च ने हिंदू धर्मांतरण रोक दिया है? क्या वामपंथियों ने हिंदू परिवार, समाज, राष्ट्र और संस्कृति को विघटित करने, उन्हें छिन्न-भिन्न करने के प्रयास बंद कर दिए हैं? क्या इस्लामियों ने भारत को दारुल इस्लाम बनाने और ‘ग़ज़वा-ए-हिंद’ के विचार को त्याग दिया है? जब तक इन प्रयासों का निरंतर चलन है, तब तक यह कैसे कहा जा सकता है कि धर्मनिरपेक्षता अपनाने से भारत सुरक्षित रह जाएगा?

भारत को 1976 में धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया गया था। तब भी समस्याओं का समाधान नहीं हुआ। केवल यह कहा गया कि “राज्य का कोई धर्म नहीं होगा।” पर क्या राज्य इस्लाम और ईसाई मतों का तुष्टिकरण बंद कर सका? नहीं। उन्हें विशेषाधिकार प्राप्त हैं। क्या इस पर कभी गंभीर विचार हुआ?

यह स्पष्ट है कि इस्लाम केवल धर्म नहीं, बल्कि एक राजनीतिक संगठित शक्तिकेंद्र है, जिसका उद्देश्य विश्व को ‘दारुल इस्लाम’ में परिवर्तित करना और मानव समाज को तीन भागों में विभाजित करना है। अतः यदि इस्लाम के सिद्धांतों और कृत्यों को केवल धर्मनिरपेक्ष दृष्टि से देखा जाए, तो समस्याओं का समाधान कभी संभव नहीं। यह कोई संप्रदाय या उपासना पद्धति नहीं, बल्कि संगठित राजनीतिक गुट है।

इसी प्रकार, ईसाई धर्म भी केवल ‘रिलीजन’ के रूप में समझा जाता है। परंतु प्रश्न यह है कि धर्म क्या है? उसका क्षेत्र क्या है? उसके सिद्धांत अपरिवर्तनीय हैं या परिवर्तनीय? इन प्रश्नों पर अनेकों विचार उत्पन्न होते हैं। इसलिए धर्म की स्पष्ट और सटीक परिभाषा करना अत्यंत आवश्यक है।

सच तो यह है कि धर्म शब्द का अंग्रेजी अनुवाद ‘Religion’ ही भ्रम का मूल कारण है। यह संकीर्ण और अधूरी व्याख्या है। अंग्रेज़ों ने इसे केवल ‘पंथ’, ‘मजहब’ या ‘उपासना पद्धति’ के रूप में पेश किया, जबकि धर्म का वास्तविक स्वरूप इससे कहीं व्यापक, गहन और सार्वभौमिक है।

यदि हम धर्म और संस्कृति की इस स्पष्टता को समझे बिना पश्चिमी सेकुलर विचारों को अपनाते हैं, तो केवल भ्रम और विघटन ही हमारे हिस्से में आएगा। भारतीय समाज और राष्ट्र की रक्षा केवल तब संभव है, जब हम अपने सनातन मूल्यों और वैदिक परंपराओं के दृष्टिकोण से अपनी संस्कृति, धर्म और परिवार व्यवस्था को समझें, पहचानें और उन्हें सशक्त बनाएं।
अर्थात, किसी समुदाय द्वारा अपनी परंपराओं और रीति-रिवाजों के अनुसार अपनाई गई उपासना पद्धति तथा उसके अनुरूप किए जाने वाले कार्य ही ‘रिलीजन’ कहलाते हैं। अंग्रेज़ी शब्दकोष में ‘Religion’ का स्पष्ट अर्थ दिया गया है—‘Religion means a system of faith and worship’। अर्थात, किसी विशिष्ट प्रकार की श्रद्धा और उपासना की पद्धति को ही रिलीजन कहा जाता है।

यह उपासना पद्धति केवल श्रद्धा का विषय होती है, इसमें कोई तत्वज्ञान या विचार नहीं होता। इसमें अंधविश्वास या अंधश्रद्धा ही प्रधान होती है। ऐसी उपासना पद्धतियां किसी व्यक्ति विशेष या साधु-महात्मा द्वारा प्रतिपादित की जाती हैं। इनके पालन से उस समुदाय या वर्ग का व्यक्ति ईश्वर की प्राप्ति का साधन मानता है।

इतिहास में विभिन्न कालों में ऐसे महत्वपूर्ण व्यक्तित्व हुए, जिन्होंने विभिन्न उपासना पद्धतियों को प्रतिपादित किया। जैसे हिन्दू धर्म में—भगवान राम, श्रीकृष्ण, महावीर, गुरु नानक, बुद्ध आदि; मुसलमानों में—हज़रत मोहम्मद साहब; ईसाई धर्म में—ईसा मसीह। इस प्रकार, प्रत्येक धर्म की उपासना पद्धति भिन्न है, परंतु उद्देश्य संभवतः एक ही है—परमेश्वर की प्राप्ति।

इसी कारण इसे सीधे धर्म नहीं कहा जा सकता, क्योंकि धर्म केवल उपासना पद्धति तक सीमित नहीं है। अतः रिलीजन को धर्म का समानार्थी शब्द माना जा सकता है, परन्तु यह धर्म के विस्तृत अर्थ को व्यक्त नहीं करता। रिलीजन धर्म का संकुचित अर्थ प्रस्तुत करता है। यह केवल एक उपासना पद्धति का बोध कराता है, जबकि हमारे धर्म में अनेक उपासना पद्धतियां विद्यमान हैं।

यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि श्रद्धा या उपासना पद्धति धर्म का केवल एक अंग मात्र है। धर्म शब्द का मूल संस्कृत में अर्थ अत्यधिक व्यापक है। यह ‘धृ’ धातु से बना है, जिसका मूल अर्थ ‘धारण करना’ है। धर्म का संबंध समाज द्वारा धारण की गई मूल्य-व्यवस्थाओं से है। अतः धर्म केवल उपासना तक सीमित नहीं, बल्कि यह व्यक्ति-धर्म, परिवार-धर्म, समाज-धर्म, राष्ट्र-धर्म और सृष्टि-धर्म तक विस्तृत है।

इस प्रकार रिलीजन धर्म की व्यापकता को सीमित कर देता है और केवल एक विशेष उपासना पद्धति तक ही दृष्टि को केंद्रित करता है। जबकि वास्तविक धर्म असीम, व्यापक और समग्र है।

धर्म केवल मंदिर, मस्जिद, चर्च या गुरुद्वारे तक सीमित नहीं है। पं. दीनदयाल उपाध्याय जी ने अपने एकात्म मानव दर्शन में स्पष्ट रूप से कहा है कि किसी हिन्दू के मंदिर, किसी मुसलमान की मस्जिद, किसी ईसाई के चर्च या किसी गुरुद्वारे को धर्म का पर्याय मान लेना उचित नहीं है। ये स्थल केवल उपासना पद्धति के स्थान हैं। इन्हें धर्म का अंग कहा जा सकता है, परन्तु इन्हें पूर्ण रूप से धर्म कहना मिथ्या होगा।

मंदिर, मस्जिद, चर्च या गुरुद्वारे लोगों में धार्मिक शिक्षा देने का माध्यम हो सकते हैं। परंतु जिस प्रकार कोई बालक प्रतिदिन विद्यालय या कॉलेज जाता है, फिर भी कभी-कभी अपढ़ रह जाता है, उसी प्रकार कोई व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह प्रतिदिन मंदिर, मस्जिद, चर्च या गुरुद्वारे जाता है, पर इसका यह अर्थ नहीं कि वह धर्म की वास्तविक समझ प्राप्त कर ले। वह नास्तिक भी हो सकता है।

अतः, मंदिर-मस्जिद-चर्च में जाना केवल उपासना या रिलीजन की प्रकटता है। परन्तु यही रिलीजन यदि अज्ञान या भ्रम के कारण धर्म मान लिया जाए, तो धर्म का वास्तविक स्वरूप विकृत हो जाता है। पाश्चात्य अनुवाद ने धर्म के अर्थ को संकीर्ण और सीमित कर दिया है। उन्होंने इसे केवल ‘Religion’ कहा, जो केवल एक उपासना पद्धति का बोध कराता है, जबकि धर्म असीम, व्यापक और समग्र है।

धर्म का संबंध केवल श्रद्धा और उपासना तक सीमित नहीं है। धर्म व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र और सृष्टि के समग्र नियम, मूल्य, कर्तव्य और आचार का समुच्चय है। यह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सत्य, न्याय, कर्तव्य और आध्यात्मिक प्रबोधन का मार्गदर्शन करता है। उपासना पद्धति इसका केवल एक अंग मात्र है। यदि हम केवल उपासना या रिलीजन तक धर्म को सीमित कर देंगे, तो धर्म की व्यापकता, उसका समाजोपयोगी और व्यक्तिविकासकारी स्वरूप छिन्न-भिन्न हो जाएगा।

इस प्रकार, हमें यह समझना होगा कि धर्म केवल अंधश्रद्धा, अनुष्ठान या पवित्र स्थल तक सीमित नहीं, बल्कि यह जीवन, चरित्र, समाज और राष्ट्र की समग्र दिशा है। जब तक हम इस व्यापक दृष्टिकोण को अपनाएंगे, तब तक धर्म केवल रिलीजन के संकीर्ण ढांचे में बंधा रहेगा, और समाज में उसके वास्तविक उद्देश्य—सत्य, न्याय, मानव कल्याण और परमात्मा की प्राप्ति—की दिशा का ज्ञान नहीं होगा।
अतः यह कहना कि भारत में सेकुलरिज्म अपनाने से इस्लाम या अन्य समास्याओं का समाधान हो जाएगा, वास्तविकता से परे है। इस्लाम की समस्याओं को समझने के लिए केवल पश्चिमी सिद्धांत या धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण पर्याप्त नहीं हैं। इन समस्याओं का समाधान एक ही सिद्धांत कर सकता है, जो कि स्वयं धर्म है। जैसा कि मनुस्मृति में कहा गया है—

"हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः। तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत्॥" (अध्याय 8, श्लोक 15)

अर्थात, जो धर्म का नाश करता है, धर्म उसका नाश करता है; और जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म भी उसकी रक्षा करता है। इसलिए धर्म का नाश नहीं करना चाहिए, ताकि नष्ट हुआ धर्म हमारा नाश न कर दे।

अहिंसा परम धर्म है। अहिंसा परम तपस्या है। अहिंसा परम सत्य है। अहिंसा से धर्म की प्रवृत्ति बढ़ती है। यथा—"अहिंसा परमो धर्मः, धर्म हिंसा तथैव च।"

इसी संदर्भ में, महर्षि अरविंद ने 1911 में उतरपाड़ा के अपने भाषण में कहा कि जब सनातन वैदिक धर्म का उत्थान होता है, तभी भारत का उत्थान संभव है। और जब सनातन धर्म की अवनति होती है, तब भारत की भी अवनति होती है। क्योंकि सनातन धर्म ही भारत का राष्ट्रधर्म है। सनातन धर्म के बिना भारत की कल्पना असंभव है।

व्यक्ति एवं राष्ट्र धर्म पर पं. दीनदयाल उपाध्याय ने स्पष्ट किया कि राष्ट्र का भी अपना धर्म होता है। राष्ट्र वह होता है जहाँ विभिन्न पंथ, मत और संप्रदाय के व्यक्ति निवास करते हैं। उनकी प्रवृत्तियाँ और दर्शन भिन्न होते हुए भी, यदि वे उस राष्ट्र की भूमि को मातृभाव से देखते हैं, उसका आदर करते हैं, तो वह राष्ट्र कहलाता है। इसी राष्ट्र का अपना धर्म—राष्ट्र धर्म या देशभक्ति—होता है।

राष्ट्र धर्म में यह अपेक्षा होती है कि मातृभूमि अपने निवासियों को जीवन, अन्न, जल, उपज आदि प्रदान करे, और निवासियों का धर्म होता है कि वे मातृभूमि की सुरक्षा का संकल्प लें। जब यह संतुलन स्थापित होता है, तब व्यक्ति और राष्ट्र का धर्म सुरक्षित रहता है। भारत की भूमि शस्य-श्यामला, प्राकृतिक और मानव साधनों से परिपूर्ण है। यहाँ नदियाँ, पहाड़, वन, खनिज और उर्वरा भूमि निवासियों का पालन करती हैं। स्वतंत्रता के संघर्ष और बलिदानों के माध्यम से भारतवासी इस मातृभूमि की रक्षा करते आए हैं—अमर शहीदों द्वारा ‘वन्देमातरम्’, ‘करो या मरो’, ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा’ जैसी गाथाएँ इसका प्रमाण हैं।

स्वतंत्रता के पश्चात भी कई आंदोलन—‘कच्छ आंदोलन’, धारा 370 का विरोध, अयोध्या का राम मंदिर निर्माण आंदोलन, कार सेवकों का बलिदान—यह स्पष्ट करते हैं कि राष्ट्रधर्म और व्यक्ति धर्म के बीच संतुलन ही समाज और राष्ट्र की सुरक्षा सुनिश्चित करता है।

विश्व धर्म की दृष्टि से, पं. दीनदयाल उपाध्याय ने इसे ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के सिद्धांत के अनुरूप समझाया। अर्थात, प्रत्येक राष्ट्र को आपसी प्रेम, सद्भाव और सहयोग के साथ कार्य करना चाहिए, ताकि विश्व में शांति और सौहार्द बना रहे। इस धर्म की उपेक्षा करने से वैमनस्य, ईर्ष्या और युद्ध की संभावना बढ़ती है, जो मानव जीवन और समाज के लिए खतरा उत्पन्न करती है।

सृष्टि धर्म और पर्यावरण धर्म के माध्यम से भी उन्होंने धर्म की व्यापकता को स्पष्ट किया। धर्म केवल उपासना, अनुष्ठान या विधि तक सीमित नहीं, बल्कि यह व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और सृष्टि के समग्र उत्थान और कल्याण का मार्गदर्शन करता है।

जैसा कि एक श्लोक में कहा गया है—
"यतोऽभ्युदयनिः, श्रेयस्, सिद्धिः स धर्मः।"
अर्थात, जिसे अपनाने मात्र से समाज का उत्कर्ष होता है, व्यक्ति उन्नति करता है और चरम मोक्ष की प्राप्ति होती है, वही सच्चा धर्म है।

नियमों का आधार हमेशा धर्म सम्मत होना चाहिए। ‘धर्म’ अत्यंत व्यापक होता है और नियमों के पालन के पश्चात उनका क्रियान्वयन भी परिवर्तनशील हो जाता है। अतः हमारे लिए आवश्यक है कि हम स्वयं को उस अनुरूप परिवर्तित करें। यदि हम ऐसा नहीं कर पाते, तो व्यापक व्यावहारिक समस्याएँ उत्पन्न होती हैं, जिससे न केवल व्यक्ति स्वयं परेशान होता है, बल्कि उसके परिवारजन और मित्र भी प्रभावित होते हैं।

पं. दीनदयाल उपाध्याय जी ने इसे सरल शब्दों में स्पष्ट किया कि कुछ नियम अल्पकालीन होते हैं और कुछ दीर्घकालीन। समय की समाप्ति के साथ कुछ नियमों का पालन समाप्त हो जाता है और उसी अनुरूप व्यक्ति का व्यवहार भी बदल जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, यदि किसी मंच पर भाषण हो रहा है, तो वक्ता और श्रोता दोनों के अपने-अपने धर्म होते हैं। इसे सभा का धर्म कहा जा सकता है। वक्ता का धर्म है विषयानुसार बोलना, श्रोताओं का धर्म है शांतिपूर्वक सुनना। यदि ऐसा होता है, तो सभा का धर्म विधिवत् पूरा हुआ और दोनों को आनंद प्राप्त होता है। परन्तु सभा समाप्ति के बाद यदि वक्ता घर जाकर भी भाषण जारी रखे या श्रोता घर पर मौन रहे, तो इससे परिवार में भ्रम उत्पन्न होगा। सभा धर्म की समाप्ति अर्थात सभा का विसर्जन यही है।

इसी प्रकार कवि का मंच पर कविता पाठ, शिक्षक का विद्यालय में शिक्षण कार्य, वकील का अदालत में बहस—ये सभी अपने-अपने समय और स्थान पर धर्म का पालन हैं, और उनके समाप्त होते ही व्यवहार सामान्य हो जाता है। इस प्रकार नियमों को धर्म कहा जाता है, क्योंकि वे मनमाने नहीं, बल्कि सत्ता और व्यवस्था की धारणा पर आधारित होते हैं।

यदि हम किसी सहकारी समिति या कंपनी का निर्माण करते हैं, तो उसके नियम और उपनियम संविधान के अनुरूप होने चाहिए। इसी प्रकार देश में बनने वाले अधिनियम, नियम और संविधान भी राष्ट्र की धारणाओं के अनुरूप होने चाहिए। संविधान भी किसी प्रकार की मनमानी नहीं करता; उसे राष्ट्र की मूलभूत धारणाओं का पालन करना आवश्यक है। यदि संविधान राष्ट्र की इच्छाओं और धारणाओं के विपरीत हो, तो उसमें परिवर्तन आवश्यक हो जाता है।

उदाहरण के लिए, स्वतंत्रता के पश्चात देश की विभिन्न रियासतों के विलय में प्रथम गृहमंत्री श्री वल्लभ भाई पटेल ने देश की अखंडता सुनिश्चित की। परन्तु कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने का निर्णय और धारा 370 के लागू होने के बाद यह जनता की मूलधारणा के अनुरूप नहीं था, इसलिए इसमें परिवर्तन की आवश्यकता बनी।

यहाँ यह भी प्रश्न उठता है कि संसद के दो-तिहाई बहुमत से क्या सब कुछ संभव है? उत्तर स्पष्ट है—सभी अधिकारों के बावजूद संसद भी धर्म के विपरीत कोई निर्णय नहीं ले सकती। संविधान और नियम धर्मानुसार और धर्मसम्मत होने चाहिए, क्योंकि धर्म समाज की धारणाओं और नैतिक संरचना का आधार है।

‘धर्म’ अल्पमत में भी श्रेष्ठतम होता है। पं. दीनदयाल उपाध्याय जी के अनुसार, धर्म की प्रधानता और श्रेष्ठता के कारण ही आदर्श राज्य को ‘धर्म राज्य’ कहा जाता है। प्राचीन काल में राजा अपने राज्य का संचालन धर्म की रक्षा हेतु करता था, राजा धर्म के ऊपर नहीं होता था। अभिषेक के समय, राजा खड़ा होकर कहता था—‘अदण्ड्योऽस्मि!’ अर्थात, मुझे कोई दंड नहीं दे सकता। तब राजपुरोहित पलाश की लकड़ी से राजा की पीठ पर मारते हुए उच्चारित करते थे—‘धर्मदण्डोऽस्ति!’ यह प्रदर्शित करता है कि राजा भी धर्म के अधीन है।

धर्म अल्पमत में भी श्रेष्ठतम होता है। उदाहरण के लिए, मित्र राष्ट्रों द्वारा जर्मनी पर अधिकार होने के बावजूद, हिटलर ने राष्ट्र धर्म के संकल्प के अनुसार अपने देश को गुलामी से मुक्त कराया। बहुमत की शक्ति उसके लिए श्रेष्ठ नहीं थी, पर राष्ट्र धर्म की प्रतिज्ञा ने उसे महान कार्य करने के लिए प्रेरित किया। इस प्रकार राष्ट्र धर्म का महत्व अन्य अधिकारों से भी उच्चतम और सर्वोपरि है।

धर्म की विराट चेतना और उसकी सर्वोपरिता को समझे बिना भारत की वास्तविक शक्ति और उसकी स्थिरता को समझना असंभव है। केवल यह कह देना कि सेकुलरिज्म अपनाने से भारत सुरक्षित रहेगा, गहरी भ्रांति है। यदि ऐसा पर्याप्त होता, तो भारत पहले ही सुरक्षित रह जाता। परन्तु सेकुलरिज्म केवल एक विचारधारा बनकर रह जाता है और इसे अपनाने मात्र से भारत की रक्षा संभव नहीं है। यह भारत को धर्मविहीन, जड़विहीन और प्राणविहीन राष्ट्र में बदल देता है।

भारत की आत्मा सनातन वैदिक धर्म में निहित है। यह केवल उपासना का मार्ग नहीं, बल्कि राष्ट्रधर्म, संस्कृति, समाज और जीवन की जीवंत चेतना है। इतिहास स्वयं इसका प्रमाण है—जहाँ वैदिक धर्म की चेतना कमजोर हुई, वहाँ सभ्यता, संस्कृति और पहचान क्षीण हो गई। समस्याओं का समाधान—चाहे वह इस्लाम, क्रिश्चियनिटी या वामपंथ से उत्पन्न हों—केवल सनातन धर्म की जीवंत चेतना, नैतिकता और एकात्म दृष्टि से ही संभव है।

धर्म सर्वोपरि है। धर्म ईश्वर से भी श्रेष्ठ है। यह केवल किसी व्यक्ति, ईश्वर या संस्था का गुण नहीं, बल्कि सृष्टि, समाज और जीवन की शाश्वत संरचना है। धर्म की स्थापना के लिए ही ईश्वर बार-बार अवतार लेते हैं। जैसा कि भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा—

"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥"

अर्थ: जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म बढ़ता है, तब-तब मैं प्रकट होकर सज्जनों की रक्षा करता, दुष्टों का नाश करता और धर्म की स्थापना करता हूँ।

धर्म केवल उपासना या श्रद्धा तक सीमित नहीं है। यह नैतिकता, सामाजिक संरचना, राष्ट्रधर्म और सृष्टि के शाश्वत नियमों का समग्र स्वरूप है। पं. दीनदयाल उपाध्याय ने स्पष्ट किया कि राष्ट्रधर्म के अनुसार भूमि और उसके निवासी एक-दूसरे के प्रति जिम्मेदार होते हैं। भूमि अपने पुत्रवत् संसाधन देती है; नागरिक अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए संकल्पित रहते हैं। यही धर्म की जीवंत चेतना है।

संविधान और कानून भी धर्म से पृथक नहीं हैं। वे धर्म के नियमों और नैतिक आधारों पर ही निर्मित होते हैं। यदि कानून, संविधान या नियम राष्ट्र और समाज के मूल्यों के विपरीत हों, तो उन्हें सुधारना आवश्यक है। यही कारण है कि धारा 370 का संशोधन, भारत की अखंडता और राष्ट्रधर्म की रक्षा के लिए अनिवार्य था।

इसलिए यह स्पष्ट है कि सनातन वैदिक धर्म को भारत का राष्ट्रधर्म मान्यता देना ही स्थायी और वास्तविक सुरक्षा का मार्ग है। जिस दिन यह चेतना सार्वजनिक रूप से स्थापित होगी, उस दिन भारत की सभी समस्याएँ—सांस्कृतिक, सामाजिक और धार्मिक—स्वयं ही हल होने लगेंगी। उसी दिन भारत में रामराज्य का आदर्श स्वरूप भी साकार होगा। उस दिन क्रिश्चियनिटी, इस्लाम और वामपंथ से उत्पन्न विघटनकारी परिस्थितियाँ स्थायी रूप से समाप्त हो जाएँगी।

धर्म की रक्षा करेंगे, धर्म आपकी रक्षा करेगा। यह केवल कथन नहीं, बल्कि अनुभव और इतिहास की सत्यता है। धर्म वह जीवंत चेतना है जो राष्ट्र, समाज और व्यक्ति को संरक्षित करती है। धर्म ईश्वर से भी श्रेष्ठ है, क्योंकि यह शाश्वत नियम है और इसके पालन के लिए ही ईश्वर बार-बार अवतार लेते हैं। सनातन वैदिक धर्म के बिना भारत की सुरक्षा, संस्कृति और उसकी पहचान अधूरी है।

संदर्भ ग्रंथ 

१. एकात्म मानववाद दर्शन पंडित दीनदयाल उपाध्याय 
२. राष्ट्रवाद की सही कल्पना पंडित दीनदयाल उपाध्याय


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