भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी विशेषता उसकी संस्थागत संरचना है—विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। इन तीनों के बीच संतुलन ही राष्ट्र की स्थिरता और जनता का विश्वास बनाए रखता है। यदि विधायिका जनता की आकांक्षाओं को अभिव्यक्त करती है और कार्यपालिका उन आकांक्षाओं को नीति में बदलकर लागू करती है, तो न्यायपालिका वह प्रहरी है जो संविधान की मर्यादा और न्याय की गरिमा को बनाए रखती है।
परंतु बीते दो दशकों में न्यायपालिका की भूमिका पर गम्भीर प्रश्नचिह्न खड़े होने लगे हैं। न्यायपालिका, विशेषकर उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों ने कई बार स्वयं को केवल ‘न्याय प्रदान करने वाले मंच’ तक सीमित नहीं रखा, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक जीवन को दिशा देने का दायित्व भी अपने हाथ में ले लिया। इसे ही जुडिशियल एक्टिविज़्म कहा जाता है।
प्रश्न यह है कि क्या यह सक्रियता वास्तव में न्याय की रक्षा है, या फिर एक वैचारिक परियोजना—जिसे पश्चिमी दुनिया में कल्चरल मार्क्सिज़्म और लिबरल एजेंडा कहा जाता है—को लागू करने का औज़ार बन चुकी है? जब हम पिछले बीस वर्षों के निर्णयों को देखते हैं, तो पाते हैं कि यह सक्रियता विशेष रूप से हिन्दू समाज की आस्था, भारतीय परिवार व्यवस्था, और राष्ट्रीय अखंडता पर ही केंद्रित रही है।
न्यायपालिका और राष्ट्र का वैचारिक संकट : 2005–2025 की पड़ताल
भारत की न्यायपालिका लोकतंत्र की रीढ़ मानी जाती है। किंतु पिछले दो दशकों में कई ऐसे निर्णय हुए, जिन्होंने यह प्रश्न उठाया कि क्या न्यायालय केवल विधिक दृष्टिकोण से निर्णय दे रहे हैं या फिर किसी वैचारिक दबाव और सांस्कृतिक एजेंडे के तहत?
2005 : हिंदू विवाह अधिनियम में हस्तक्षेप
सुप्रीम कोर्ट ने “लिव-इन रिलेशनशिप” को वैधानिक मान्यता दी। यह निर्णय भारतीय परिवार व्यवस्था की पारंपरिक परिभाषा पर प्रश्नचिह्न था। परिवार संस्था को कमजोर करने का यह पहला बड़ा कदम माना गया।
2009 : दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा धारा 377 निरस्त
दिल्ली हाईकोर्ट ने समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया। यद्यपि 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने इसे पलट दिया, लेकिन 2018 में इसे स्थायी रूप से वैध ठहरा दिया गया। इससे भारतीय समाज की सांस्कृतिक धारा में पश्चिमी मूल्यों का प्रवेश और अधिक तीव्र हुआ।
2010 : आयोध्या विवाद का निर्णय (इलाहाबाद हाईकोर्ट)
राम जन्मभूमि विवाद में तीन हिस्सों में बँटवारे का निर्णय हुआ। इसने हिंदुओं की आस्था पर गहरा प्रहार किया। यद्यपि 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने रामलला विराजमान के पक्ष में फैसला सुनाकर संतुलन स्थापित किया, लेकिन वर्षों तक हिंदू समाज को असंतोष झेलना पड़ा।
2013 : धारा 66A और इंटरनेट अभिव्यक्ति
सुप्रीम कोर्ट ने आईटी एक्ट की धारा 66A को असंवैधानिक करार दिया। इससे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तो सुरक्षित हुई, किंतु सोशल मीडिया पर भारत-विरोधी और धर्मविरोधी नैरेटिव का फैलाव भी बढ़ा।
2017 : तीन तलाक़ का निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने मुस्लिम समाज में तीन तलाक़ को अवैध ठहराया। यह एक सकारात्मक निर्णय था, किंतु इसने यह प्रश्न भी उठाया कि जब मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों पर इतना ध्यान है, तो हिंदू परंपराओं की रक्षा में वही संवेदनशीलता क्यों नहीं दिखाई जाती?
2018 : सबरीमाला मंदिर परंपरा भंग
सुप्रीम कोर्ट ने सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश परंपरा को तोड़ते हुए फैसला दिया। करोड़ों श्रद्धालु आहत हुए, परंतु अदालत ने इसे “लैंगिक समानता” का मामला मानकर आस्था को हाशिए पर रख दिया।
2018 : धारा 377 की पुनः समाप्ति
पांच न्यायाधीशों की पीठ ने समलैंगिक संबंधों को पूरी तरह वैध घोषित किया। इसे मानवाधिकार का प्रश्न बताया गया, किंतु इसके परिणामस्वरूप विवाह संस्था और पारिवारिक मूल्य पर गहरा आघात हुआ।
2021 : कृषि कानूनों पर रोक
केंद्र सरकार द्वारा लाए गए तीन कृषि सुधार कानूनों को सर्वोच्च न्यायालय ने स्थगित कर दिया। परिणामस्वरूप आंदोलन भड़के और अंततः सरकार को कानून वापस लेना पड़ा। इसने न्यायपालिका की अनिर्णयकारी भूमिका को उजागर किया।
2023 : समान-लैंगिक विवाह पर सुनवाई
सुप्रीम कोर्ट ने समान-लैंगिक विवाह को वैधानिक मान्यता देने पर विस्तृत सुनवाई की। हालाँकि अंततः इसे खारिज कर दिया गया, किंतु इस बहस ने समाज में गहरे वैचारिक विभाजन उत्पन्न किए।
2023–24 : मणिपुर उच्च न्यायालय का निर्णय
मेइती समुदाय को अनुसूचित जनजाति दर्जा देने की अनुशंसा के बाद मणिपुर जल उठा। महीनों तक हिंसा, विस्थापन और सांप्रदायिक संघर्ष चलता रहा। न्यायपालिका के एक निर्णय ने पूरे पूर्वोत्तर को अस्थिर कर दिया।
2024–25 : धर्मांतरण विरोधी क़ानूनों पर सवाल
सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड और राजस्थान की सरकारों को नोटिस जारी कर पूछा कि धर्मांतरण विरोधी क़ानून क्यों न रद्द किए जाएँ। यह तब, जब देश में धर्मांतरण की समस्या गहराती जा रही है।
आस्था पर उपहास: CJI बी.आर. गवई का उदाहरण
भगवान विष्णु की खंडित मूर्ति की बहाली के लिए प्रार्थना करने वाले भक्त के प्रति CJI गवई की टिप्पणी—“जाओ भगवान से कहो।”—हिन्दू आस्था के प्रति असंवेदनशीलता और उपहास को दर्शाती है। यह केवल एक मूर्ति का मामला नहीं, बल्कि सम्पूर्ण हिन्दू धर्म और संस्कृति की गरिमा का प्रश्न है।
अंतर्राष्ट्रीय न्यायिक सक्रियता और समाज पर प्रभाव
न्यायपालिका का कल्चरल और वैचारिक हस्तक्षेप केवल भारत तक सीमित नहीं है। विश्व के कई लोकतंत्रों में उच्चतम न्यायालय ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया और विधायिका से ऊपर उठकर समाज की दिशा तय करने का प्रयास किया है। इसे वैश्विक न्यायिक सक्रियता कहा जा सकता है।
1. अमेरिका में गर्भपात का अधिकार – Roe v. Wade (1973) और Dobbs v. Jackson (2022)
1973 में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने Roe v. Wade में गर्भपात को महिलाओं का संवैधानिक अधिकार घोषित किया। यह निर्णय व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर दिया गया, लेकिन अमेरिकी समाज में पारिवारिक और धार्मिक संरचना पर दीर्घकालीन प्रभाव पड़ा।
करीब 50 वर्षों तक यह निर्णय महिलाओं के अधिकारों का प्रतीक माना गया, किंतु Dobbs v. Jackson (2022) में सुप्रीम कोर्ट ने इसे पलट दिया। इस दोहरे निर्णय ने दिखाया कि न्यायपालिका समाज की नैतिक और सांस्कृतिक संरचना पर कितना गहरा प्रभाव डाल सकती है। भारत के धारा 377 और सबरीमाला निर्णय के समान, अमेरिका में न्यायिक सक्रियता ने परिवार, नैतिकता और धर्म पर विवाद उत्पन्न किया।
2. अमेरिका में समलैंगिक विवाह – Obergefell v. Hodges (2015)
2015 में सुप्रीम कोर्ट ने Obergefell v. Hodges में समलैंगिक विवाह को वैध ठहराया। यह निर्णय अमेरिकी परिवार संरचना और परंपरा को सीधे प्रभावित करता है। समलैंगिक विवाह के वैधानिक होने के बाद सामाजिक मान्यता और शिक्षा में बदलाव, बच्चों की परवरिश के नए नियम, और धार्मिक संस्थाओं में संघर्ष उत्पन्न हुए।
यह उदाहरण भारत के धारा 377 निर्णय के समान है, जहाँ न्यायपालिका ने व्यक्तिगत अधिकार को प्राथमिकता दी और पारंपरिक विवाह और संस्कृति पर प्रभाव डाला।
3. कनाडा – जीवन और मृत्यु का निर्णय (Carter v. Canada, 2015)
कनाडा सुप्रीम कोर्ट ने Carter v. Canada में सहायक मृत्यु (Assisted Dying / Euthanasia) को संवैधानिक अधिकार घोषित किया। जीवन और मृत्यु के निर्णय को व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर मान्यता दी गई।
इस निर्णय ने कनाडाई समाज में नैतिक, धार्मिक और पारिवारिक संरचना पर प्रभाव डाला। वृद्धों और रोगियों के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण में बदलाव आया। यह दर्शाता है कि न्यायपालिका का हस्तक्षेप जीवन और मृत्यु जैसे संवेदनशील मामलों तक फैल सकता है।
4. यूरोपियन कोर्ट ऑफ ह्यूमन राइट्स (ECHR) – धार्मिक प्रतीकों पर निर्णय
2011 में Lautsi v. Italy मामले में यूरोपियन कोर्ट ने इतालवी स्कूलों में क्रॉस और धार्मिक प्रतीकों पर विवादित निर्णय दिया। न्यायपालिका ने धर्म और सार्वजनिक जीवन के बीच संतुलन स्थापित करने का प्रयास किया, लेकिन कई धार्मिक समूहों ने इसे उनकी आस्था पर आघात माना।
यह उदाहरण दिखाता है कि न्यायपालिका का हस्तक्षेप केवल विधिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और धार्मिक संरचना तक फैल सकता है। भारत में सबरीमाला और विष्णु मूर्ति मामले से यह समानता दिखती है।
5. ब्रिटेन – Gender Recognition Act और न्यायपालिका
ब्रिटेन में न्यायपालिका ने Gender Recognition Act के माध्यम से जैविक लिंग की परिभाषा और शिक्षा, खेल, स्वास्थ्य सेवा में लिंग पहचान को चुनौती दी।
यह निर्णय समाज में नैतिक और पारिवारिक मूल्यों पर गहरा प्रभाव डालता है। यह दिखाता है कि कैसे न्यायपालिका शिक्षा, खेल और स्वास्थ्य जैसे सार्वजनिक क्षेत्रों में भी वैचारिक एजेंडा लागू कर सकती है।
अंतर्राष्ट्रीय न्यायिक सक्रियता का वैश्विक पैटर्न
बीते दो दशकों के अनुभव ने यह साफ़ कर दिया है कि न्यायपालिका केवल कानून की रक्षा करने वाला संस्थान नहीं रह गया, बल्कि कई बार समाज की धारा को दिशा देने वाला सक्रिय खिलाड़ी बन गया है। फैसलों की यह प्रवृत्ति—चाहे धारा 377, सबरीमाला, धर्मांतरण कानून, मणिपुर का विवाद या कृषि कानून—स्पष्ट रूप से दर्शाती है कि न्यायपालिका कभी-कभी भारतीय सभ्यता, आस्था और परिवार व्यवस्था की संवेदनाओं को नजरअंदाज कर देती है।
हिन्दू समाज की आस्था और परंपरा बार-बार अदालत की दृष्टि से चुनौतीपूर्ण निर्णयों का सामना कर रही है। कभी पूजा स्थल की परंपरा पर सवाल उठते हैं, कभी विवाह और पारिवारिक मूल्यों को ‘व्यक्तिगत अधिकार’ के नाम पर चुनौती दी जाती है। ऐसे निर्णय न केवल भावनात्मक चोट देते हैं, बल्कि समाज में अविश्वास और असंतोष भी पैदा करते हैं।
अंतर्राष्ट्रीय उदाहरण—जैसे अमेरिका में Roe v. Wade और Obergefell v. Hodges, कनाडा में Carter v. Canada, यूरोप में Lautsi v. Italy—दिखाते हैं कि न्यायपालिका के फैसले केवल कानूनी निहितार्थ नहीं रखते, बल्कि वे सामाजिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय मूल्यों पर स्थायी प्रभाव डालते हैं। भारत में भी यही प्रवृत्ति दिखाई देती है।
यदि न्यायपालिका संवेदनशीलता और संतुलन अपनाए, तो भारत की एकता, अखंडता और सनातन संस्कृति सुरक्षित रह सकती है। अन्यथा, न्यायिक सक्रियता समाज और संस्कृति के लिए गंभीर खतरा बन सकती है। भारतीय समाज का भविष्य न्यायपालिका की सोच और संवेदनशीलता पर निर्भर करता है। न्यायपालिका का सर्वोच्च कर्तव्य केवल कानून की रक्षा नहीं, बल्कि संस्कृति, आस्था और परिवार व्यवस्था के संरक्षक के रूप में राष्ट्र की सेवा करना भी है।
✍️Deepak Kumar Dwivedi
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