रामराज्य का स्वरूप



राम राज राजत सकल धरम निरत नर-नारि। राग न रोष न दोष दुख सुलभ पदारथ चारि ॥ राम राज संतोष सुख घर बन सकल सुपास।

तरु सुरतरु सुरधेनु महि अभिमत भोग विलास ॥ खेती बनि विद्या बनिज सेवा सिलिप सुकाज। तुलसी सुरतरु सरिस सब सुफल राम के राज ॥ दंड जतिन्ह कर भेद जहें नर्तक नृत्य समाज। जीतहु मनहि सुनिअ अस रामचंद्र के राज ॥ कोपें सोच न पोचकर करिअ निहोर न काज। तुलसी परमिति प्रीतिकी रीति राम के राज ॥

भारतवर्षमें अनेकानेक राज्य प्रतिष्ठापित हुए, जिनपर अनेकों प्रतापशाली तथा धर्मसम्पन्न राजाओंने शासन किया। नहुष, ययाति, शिवि, सत्यवादी हरिश्चन्द्र जैसे प्रतापी सम्म्राट् भारतमें हुए। महाराज दशरथ जैसे सच्चे भगवत्-प्रेमी तथा सत्यप्रिय सम्राट् भी भारतमें हुए जिन्होंने शरीरका त्याग कर दिया, किंतु सत्यको नहीं छोड़ा। इन सबका हम श्रद्धा-सम्मानके साथ स्मरण करते हैं। परंतु हम इनके राज्योंको नहुषराज्य, शिबिराज्य, हरिश्चन्द्रराज्य अथवा दशरथराज्य कहकर स्मरण नहीं करते; पर हम 'रामका राज्य' अथवा 'रामराज्य' कहकर स्मरण करते हैं, राम और उनके राज्य- दोनोंके प्रति सप्रेम श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। इसका मुख्य कारण क्या है?

श्रीराम मर्यादापुरुषोत्तम क्यों ?

वास्तवमें परब्रह्म परमात्माके रामस्वरूपको 'मर्यादा पुरुषोत्तम' क्यों कहते हैं, इसे कम लोग जानते हैं। श्रीरामने सब प्रकारकी सर्वोत्तम मर्यादाएँ प्रतिष्ठित को थीं। आपने सम्म्राट् होनेके पूर्व अपने निर्मल पूत चरित्रोंद्वारा व्यष्टिको सर्वोत्तम मर्यादाओंको स्वयं पालन करके दिखलाया। एक व्यक्ति समाज, परिवार आदिके साथ कैसा व्यवहार करे, एक व्यक्तिको जीवनयात्रा चलानेके लिये तथा जीवनके महान् उद्देश्य परब्रह्म परमात्माकी प्राप्तिके लिये किस प्रकारके गुणोंकी, किस प्रकारके त्याग तपकी आवश्यकता होती है-इसका दिष्टर्शन भगवान् श्रीमन्दीरे अपनी लीलाग मर्यादाएँ प्रतिष्ठापित करके प्रत्यक्ष करा दिया।

राज्यारोहणके पश्चात् उन्होंने जो सर्वोत्तम शासन व्यवस्था अर्थनीति, धर्मनीति, समाजनीति तथा राजनीतिक मर्यादाएँ स्थापित कीं, उन सबके समूहका नाम ही 'रामराज्य' है। उन्होंने व्यष्टि तथा समष्टि दोनोंके लिये ही रची हुई मर्यादाओंका अपने जीवनमें तथा राज्यके द्वारा भलीभाँति परिपालन किया।

रामराज्य क्या और कैसा?

अब प्रश्न उठता है 'रामराज्य क्या और कैसा था?' तो इसका उत्तर यह है- रामराज्यमें सभी वर्गकि समस्त नर-नारी सच्चरित्र, वर्णाश्रम-धर्म-परिपालक तथा स्व-कर्तव्यनिष्ठ थे। कर्तव्यका मानदण्ड अपनी इच्छामात्र नहीं थाः गोस्वामीजीके शब्दोंमें 'करहु जाड़ जा कहूँ जो भावा' नहीं था। वे वेदमार्गको-शास्त्रवचनोंको मानदण्ड मानकर जीवनशकटको अग्रगमितः करते थे। इसके फलस्वरूप रोग, शोक तथा भयकी प्राप्ति उनको नहीं होती थी। सभी स्वधर्मपरायण तथा काम-क्रोध-लोभ मदादिकोंसे सर्वथा रहित थे। कोई किसीसे वैर नहीं करता था। वैरके अभावमें प्रेम स्वाभाविक ही है। सभी गुणज्ञ, गुणसम्पन्न, पुण्यात्मा, ज्ञानी और चतुर थे; पर उनकी चतुरता भजनमें, ज्ञानमें थी-परदारा, परधनापहरणमें नहीं।

मानवद्वारा आचरित इस धर्मका कर्तव्य पालनका प्रभाव प्रकृति तथा पशु-पक्षियोंपर भी पड़े बिना नहीं रहा। गोस्वामीजी पशु-पक्षियंकि लिये लिखते हैं-'रहहिं एक सँग गज पंचानन।'

खग मृग सहज बयरु बिसराई। सबन्हि परस्पर प्रीति बढ़ाई ।। स्वार्थत्याग तथा धर्मपालनका प्रकृतिपर कैसा प्रभाव पड़ा, इसको श्रीगोस्वामीजी इस प्रकार व्यक्त करते हैं-प्रगटर्टी गिरिह बिबिध मनि खानी। जगदातमा भूप जग जानी ॥ सरिता सकल यहहि वर बारी। सीतल अमल स्वाद सुखकारी ॥ सागर निज मरजादाँ रहहीं। डारहि रत्न तन्हि नर लहहीं ।॥ विधु महि पूर मयूखन्हि रवि तप जेतनेहि काज।

मागें बारिद देहिं जल रामचंद्र के राज ॥


त्रिविध तापका अभाव

तीन प्रकारके ताप होते हैं- दैहिक, दैविक, भौतिक। ये तीनों ही रामराज्यमें बिलकुल नहीं रह गये थे।

दैहिक दैबिक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि व्यापा ॥

धर्म तथा तदन्तर्गत स्वाध्यायके नियमोंका पालन करनेवालोंको भय, शोक, रोग आदि दैहिक तापोंकी पीड़ा कैसे हो सकती थी। भौतिक ताप प्रकृतिके उपर्युक्त प्रकारसे प्रभावित हो जानेके पश्चात् कैसे हो सकते थे। दैविक ताप तो स्वकर्तव्यविमुख तथा अधार्मिक व्यक्तियोंको दण्डस्वरूप मिला करते हैं, उनकी रामराज्यमें स्थिति ही कहाँ थी ?

त्रिविध विषमताका अभाव

रामराज्यमें (१) आत्मिक (आन्तरिक) (२)

बाह्य और (३) आर्थिक विषमताएँ बिलकुल नहीं थीं। १-सद्भाव, सद्विचार, सद्भावना और परमार्थ ही परम लक्ष्य होनेके कारण साधनाके द्वारा सभीके अन्तःकरण शुद्ध हो गये थे और सभी लोग भगवान्‌की प्रेमभक्तिमें निमग्न होकर परमपदके अधिकारी हो गये थे। इससे उनमें 'आत्मिक वैषम्य' नहीं था। वे सबमें अपने भगवान्‌को देखते थे-'निज प्रभुमय देखहिं जगत।'

२-आत्मिक विषमता दूर हो जानेके कारण 'बाह्य विषमता' भी सर्वथा नष्ट हो गयी थी। किसीको किसी बातका गर्व करने अथवा छोटे-बड़ेका प्रश्न उठानेके लिये अवसर ही न था। शुद्ध अन्तःकरणवालोंको किसीसे राग-द्वेष अथवा छोटे-बड़ेका गर्व हो ही कैसे सकता था।

३-पर्वतोंके द्वारा मनोवांछित मणिमाणिक्य दिये जानेसे, समुद्रद्वारा रत्नोंके बाहर फेंक देनेसे, विलासिता एवं आरामतलबीके न रहनेसे, स्वकर्तव्यपालनको निष्ठावे तथा मुद्राके सर्वथा न रहनेसे रामराज्यमें 'आर्थिक विषमता' भी नहीं थी। इसका अर्थ यह नहीं कि रामराज्यमें विशाल व्यापार ही नहीं था। वैश्यवर्ग अपना कर्तव्य समझकर बड़े-बड़े व्यापार करते थे। परंत रामराज्यमें सभी वस्तुएँ बिना मूल्य बिकती थीं जिसको जिस वस्तुकी आवश्यकता हो, वह उसी वस्तुको बाजारसे जितनी चाहे. उतने परिमाणमें प्राप्त कर सकता था। इसलिये कोई विशेष संग्रह भी नहीं करता था।

राजा और प्रजाका सम्बन्ध

जिस राज्यमें पाप अथवा अपराधकी कभी स्थिति ही न हो, जिस राज्यके लिये श्रीगोस्वामीजीके अनुसार-

दंड जतिन्ह कर भेद जहँ नर्तक नृत्य समाज। जीतहु मनहि सुनिअ अस रामचंद्र कें राज ॥

- ऐसी स्थिति हो, उस राज्यमें, तथा जिसमें सम्राट् भगवान् रामचन्द्र प्रजासे कुछ आध्यात्मिक ज्ञानपर कहना चाहते हैं तो हाथ जोड़कर कहते हैं कि 'यदि आप लोगोंका आदेश हो तो मैं कुछ कहूँ। आपको अच्छा लगे तो सुनिये, अच्छा न लगे अथवा मैं कोई अनीतिपूर्ण बात कहूँ तो मुझे रोक दीजिये।'

जीं अनीति कछु भाषौं भाई। तौ मोहि बरजहु भय बिसराई॥

- वहाँ, उस राज्यमें राजा-प्रजाके कैसे क्या

सम्बन्ध हो सकते हैं- सो स्पष्ट है।

रामराज्यमें सभी व्यक्तियोंने इहलोक और परलोक दोनोंको सफल किया था। उस समयके-जैसा सर्वतोभावेन मर्यादा-मण्डित राज्य कभी स्थापित नहीं हो सका। इसीलिये आज भी युगोंके पश्चात भी भारतकी जनता पवित्र रामराज्यका स्मरण करती है!

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