वैचारिक औपनिवेशिक दशा से मुक्ति क्यों आवश्यक है ?



भारतवर्ष की सभ्यता विश्व की सबसे प्राचीन और समृद्ध परंपराओं में से एक है। यहाँ का दार्शनिक चिंतन, सामाजिक और आर्थिक संरचना, धर्म और न्याय की अवधारणा, मानव जीवन को संतुलन और उद्देश्य देने वाली रही है। वेद, उपनिषद, गीता, महाभारत, रामायण और अन्य ग्रंथ न केवल धार्मिक महत्त्व रखते हैं, बल्कि इनमें जीवन, समाज और नीति के गहन दर्शन निहित हैं। किंतु पिछले हजार वर्षों के विदेशी आक्रमणों और विशेष रूप से अंग्रेज़ी औपनिवेशिक शासन ने भारतीय समाज की केवल राजनीतिक स्वतंत्रता ही नहीं छीनी, बल्कि मानसिक और वैचारिक दृष्टि से भी उसे बाधित किया। इस प्रक्रिया ने समाज में वैचारिक गुलामी की स्थिति उत्पन्न की, जिसे आज भी हम अनुभव कर रहे हैं।

औपनिवेशिक शासन ने शिक्षा और प्रशासन के माध्यम से भारतीयों की सोच पर नियंत्रण स्थापित किया। लॉर्ड मैकाले ने 1835 में स्पष्ट निर्देश दिए कि ऐसी शिक्षा दी जाए जो भारतीय मस्तिष्क को पश्चिमी दृष्टिकोण, नैतिकता और बुद्धि का अनुयायी बनाए। परिणामस्वरूप भारतीय समाज ने अपनी परंपरा और ज्ञान पर संदेह करना शुरू कर दिया। हमारी शिक्षा प्रणाली में वेद, उपनिषद और गीता की जगह पश्चिमी सिद्धांतों और इतिहासकारों के विचारों ने ले ली। इससे समाज में एक मानसिक गुलामी की भावना विकसित हुई, जो राजनीतिक स्वतंत्रता के बावजूद हमारे बौद्धिक विमर्श में आज भी बनी हुई है।

आज भी अधिकांश विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों में राजनीति, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र और इतिहास का अध्ययन पश्चिमी दृष्टिकोण के आधार पर किया जाता है। राइट-लेफ्ट, पूंजीवाद, समाजवाद, मार्क्सवाद, साम्यवाद और लिबरल डेमोक्रेसी जैसे सिद्धांत यूरोप की ऐतिहासिक और सामाजिक परिस्थितियों से उपजे थे। भारतीय संदर्भ में इन सिद्धांतों को प्रत्यक्ष रूप से लागू करना अक्सर भ्रम पैदा करता है। इसके चलते भारतीय दृष्टिकोण और भारतीय ज्ञान परंपरा गौण हो गए।

भारतीय ज्ञान परंपरा जीवन और समाज को समग्र दृष्टि से देखने पर आधारित है। यहाँ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष—चार पुरुषार्थ—समाज और व्यक्ति के व्यवहार को संतुलित करने का आधार हैं। शिक्षा, शासन और सामाजिक जीवन का उद्देश्य केवल भौतिक लाभ नहीं, बल्कि नैतिक और सामाजिक कल्याण होता है। जबकि पश्चिमी दृष्टिकोण में राजनीतिक, आर्थिक और सामरिक हित प्राथमिक रहते हैं। इस अंतर को समझे बिना पश्चिमी सिद्धांतों को अपनाना भारतीय समाज में भ्रम और मानसिक द्वंद्व उत्पन्न कर रहा है।

इतिहास लेखन में भी यह समस्या स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। भारतीय सभ्यता की प्राचीनता को पश्चिमी मानकों के अनुसार छोटा करके प्रस्तुत किया गया। उदाहरण के लिए, वेदों और पुराणों में वर्णित मानव सभ्यता और कालगणना लाखों वर्षों की है, जबकि पश्चिमी इतिहासकार इसे केवल कुछ हजार वर्षों तक सीमित कर देते हैं। रामायण और महाभारत जैसी महाकाव्य कृतियों को केवल मिथक मान लिया जाता है, जबकि इनमें युद्धकला, सामाजिक संरचना, नीति और अर्थव्यवस्था के गहन सिद्धांत शामिल हैं। ऐसे दृष्टिकोण ने भारतीय समाज में अपनी सभ्यता और इतिहास के प्रति हीनभावना पैदा की।

औपनिवेशिक प्रभाव केवल अकादमिक और साहित्यिक क्षेत्र तक सीमित नहीं है। आज भी वैश्विक स्तर पर “डीप स्टेट”, “ग्लोबल मार्केट फोर्सेज”, “वैश्विक लोकतंत्र” और “लिबरल ऑर्डर” जैसी अवधारणाएँ प्रचलित हैं। इनके पीछे वही संरचनाएँ कार्य करती हैं, जो यूरोप के साम्राज्य और रोमन कैथोलिक चर्च द्वारा विकसित की गई थीं। भारत ने इन अवधारणाओं को अपनाकर आधुनिकता का दावा किया, लेकिन वास्तव में यह नई वैचारिक गुलामी है। भारतीय मस्तिष्क और समाज इन बाहरी विचारों के प्रभाव में अपनी स्वतंत्र सोच खो रहा है।

शिक्षा और अनुसंधान की विफलता इस समस्या को और बढ़ाती है। भारतीय विश्वविद्यालयों में वेद, उपनिषद, गीता, दर्शनशास्त्र और सामाजिक संरचनाओं पर गंभीर अनुसंधान नहीं किया जाता। इसके विपरीत, मार्क्स, रूसो, मैक्स वेबर और हाब्स जैसे पश्चिमी विचारकों के सिद्धांतों को बार-बार पढ़ाया जाता है। छात्र पश्चिमी दृष्टिकोण को ही श्रेष्ठ मानने लगते हैं और अपनी सभ्यता और ज्ञान पर संदेह करने लगते हैं। यही वैचारिक गुलामी की जड़ है।

स्वामी विवेकानंद ने स्पष्ट कहा था कि भारतीय मस्तिष्क को विदेशी विचारों से मुक्त करना आवश्यक है, अन्यथा यह अपनी पूरी क्षमता तक नहीं पहुँच पाएगा। उन्होंने यह भी कहा कि भारत का ज्ञान मानवता के लिए प्रकाशस्तंभ है, और अगर इसे सही दृष्टिकोण से प्रस्तुत नहीं किया गया, तो यह सिर्फ भौतिक दृष्टि से ही सीमित रह जाएगा।

अरविंद ने अपने ग्रंथ “फाउंडेशन ऑफ़ इंडियन कल्चर” में लिखा कि पश्चिमी सिद्धांत भारतीय जीवन और संस्कृति को समझने में असमर्थ हैं। दीनदयाल उपाध्याय ने “एकात्म मानव दर्शन” में प्रतिपादित किया कि भारतीय समाज की नीति तभी सार्थक होगी जब वह भारतीय संस्कृति और परंपरा पर आधारित होगी। इन विचारकों की दृष्टि स्पष्ट करती है कि भारतीय ज्ञान, दर्शन और संस्कृति वैश्विक स्तर पर प्रभावशाली हो सकती है, बशर्ते इसे सही संदर्भ में प्रस्तुत किया जाए।

वैचारिक स्वतंत्रता केवल पश्चिम का विरोध करना नहीं है। इसका अर्थ है भारतीय दृष्टि से विश्व और समाज को देखना। इसके लिए आवश्यक है कि शिक्षा प्रणाली में भारतीय दर्शन, इतिहास, सामाजिक संरचना और आर्थिक व्यवस्था का समग्र अध्ययन कराया जाए। इतिहास लेखन में भारतीय दृष्टिकोण अपनाया जाए और वैश्विक दृष्टि से भारतीय सभ्यता की सटीक प्राचीनता को दर्शाया जाए। भारतीय ज्ञान परंपरा, नीति, संस्कृति और दर्शन का अभ्यास विद्यार्थियों और समाज में बढ़ाया जाए।

भारत की स्वतंत्रता तभी पूर्ण होगी जब हम मानसिक और वैचारिक रूप से स्वतंत्र होंगे। जब तक हम अपनी परंपरा, दर्शन और ज्ञान को सम्मान नहीं देंगे, तब तक पश्चिमी मानकों की छाया में अपने आप को कमजोर समझते रहेंगे। मुक्ति का मार्ग यही है कि हम अपनी जड़ों को पहचानें, अपने ज्ञान पर भरोसा करें और विश्व को भारतीय दृष्टि से देखें। यही वास्तविक वैचारिक स्वतंत्रता और राष्ट्र की आत्मा की पुकार है।

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