आर्थिक भूगोल का परिचय
आर्थिक भूगोल एक ऐसा समेकित विज्ञान है जो मानवीय आर्थिक क्रियाओं को उनके स्थानिक (space-time) संदर्भ में समझने का प्रयत्न करता है। यह न केवल यह बताता है कि कौन-सी आर्थिक गतिविधि कहाँ हो रही है, बल्कि यह जानने का प्रयास भी करता है कि वह गतिविधि वहां क्यों हुई, उसे प्रभावित करने वाले प्राकृतिक तथा सामाजिक-आर्थिक कारण क्या हैं, और उस गतिविधि के परिणाम किस प्रकार के सामाजिक, आर्थिक और पारिस्थितिक प्रभाव उत्पन्न करते हैं। अतः आर्थिक भूगोल का अर्थ केवल “आर्थिक गतिविधियों का मानचित्रण” नहीं, अपितु कारणों की खोज, प्रक्रियाओं का विश्लेषण और नीतिगत निहितार्थों का विवेचन भी है।
1. आर्थिक भूगोल की परिभाषा
आर्थिक भूगोल की परिभाषा केवल शब्दपरिचय नहीं है; यह उस अनुशासन की सीमाएँ और दृष्टिकोण भी निर्धारित करती है। अलग-अलग विद्वानों ने इसे अलग शब्दों में परिभाषित किया है; परंतु सभी परिभाषाओं में कुछ अनिवार्य बिंदु सामान्य हैं — स्थान (where), कारण (why), प्रक्रियाएँ (how), और परिणाम (effects)।
आर्थिक भूगोल वह अध्ययन है जिसमें मानव की आजीविका संबंधी क्रियाओं — जैसे कृषि, उद्योग, खनन, व्यापार, परिवहन, सेवाएँ — का स्थानिक वितरण, उनका समयानुकूल परिवर्तन, तथा उनके पीछे कार्यरत भौगोलिक और आर्थिक कारणों का विश्लेषण शामिल है। यह प्राकृतिक संसाधनों के वितरण (मृदा, जल, वन, खनिज), तकनीकी प्रगति, बाजार व परिवहन नेटवर्क, जनसंख्या गतिशीलता, और नीतिगत ढाँचों के सम्मिलित प्रभावों को समझता है। आर्थिक भूगोल का एक अन्य लक्ष्य क्षेत्रीय असमानताओं का अध्ययन करना है — किस कारण से कुछ क्षेत्र समृद्धि की ओर बढ़ते हैं और कुछ क्षेत्र पिछड़े रहते हैं।
सार में: आर्थिक भूगोल — स्थानिक रूप से आर्थिक क्रियाओं की व्याख्या और कारण-परिणाम विश्लेषण का विज्ञान है, जो भूगोल व अर्थशास्त्र के बीच एक अंतःविषयक सेतु का काम करता है।
2.आर्थिक भूगोल के क्षेत्र
आर्थिक भूगोल का क्षेत्र व्यापक और बहुआयामी है। इसे हम अन्तरविभागीय दृष्टि से समझें तो इसके प्रमुख घटक, विषय और अन्वेषण-क्षेत्र निम्नानुसार विस्तारित होते हैं। मैं हर एक क्षेत्र को उदाहरण एवं विश्लेषण सहित समझाऊँगा ताकि परीक्षा-उत्तर जैसा व्यवस्थित और विस्तृत विवेचन मिले।
2.1 प्राकृतिक संसाधन और उनका वितरण
प्राकृतिक संसाधन (मृदा, जल, वन, खनिज, जलवायु) किसी भी क्षेत्र की आर्थिक संभावनाओं की आधारशिला होते हैं। आर्थिक भूगोल यह विवेचन करता है कि किन भौगोलिक परिस्थितियों में कौन-सा संसाधन पाया जाता है, उस संसाधन का खनन/उपयोग कैसे होता है, और संसाधन के उपयोग के सामाजिक-आर्थिक तथा पर्यावरणीय प्रभाव क्या हैं। उदाहरण के लिए, कोयला-उद्योग का विकास उन क्षेत्रों में तेज होता है जहाँ कोयला भंडार उपलब्ध हों (झारखंड, छत्तीसगढ़)। इसी प्रकार सिंचित मैदानों में कृषिक गतिविधि विविध और अधिक उत्पादक होती है। संसाधनों का स्थानिक असमान वितरण ही कई बार क्षेत्रीय विकास के आधार बन जाता है तथा असमानता का कारण भी।
2.2 कृषि भूगोल
कृषि भूगोल कृषि उत्पादन के स्थानिक पैटर्न, cropping pattern, कृषि प्रणालियों (खरीफ-रबी, बागवानी, मल्टी-क्रॉपिंग), सिंचाई सुविधाओं और भूमि उपयोग के अध्ययन से सम्बन्धित है। यह बताता है कि मौसम, मृदा प्रकार, जल-स्रोत, बाजार निकटता, और तकनीकी हस्तक्षेप (बीज, उर्वरक, मशीनरी) किस प्रकार फसल चयन और उत्पादकता को प्रभावित करते हैं। भारत में हरित क्रांति का प्रभाव, गंगा-यमुना के मैदानों में गेहूँ-चावल का वितरण और दक्कन-पठार पर दलहन एवं तिलहन की पैदावार — ये सब कृषि भूगोल के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।
2.3 औद्योगिक भूगोल
औद्योगिक भूगोल यह देखता है कि उद्योग कहाँ स्थापित होते हैं और क्यों। उद्योग की अवस्थिति (location) पर प्रभाव डालने वाले कारक — कच्चा माल, ऊर्जा-स्रोत, श्रम, बाजार, परिवहन लागत, नीति-विनियमन — का विश्लेषण औद्योगिक भूगोल के अन्दर आता है। ठोस सिद्धांत जैसे वेबर का ‘transport-cost based’ मॉडल, तथा बाद के क्लस्टर-और-नेटवर्क सिद्धांत इस क्षेत्र के मूल हैं। उदाहरणतः, स्टील उद्योग खनिज निकटता और भारी ऊर्जा पर निर्भरता के कारण जमशेदपुर, राउरकेला जैसे स्थानों पर विकसित हुए। वहीं सूचना प्रौद्योगिकी क्लस्टर श्रम-गुणवत्ता और शिक्षा-संस्थाओं के समीप विकसित होते हैं — बेंगलुरु, हैदराबाद का उदाहरण।
2.4 खनिज और ऊर्जा भूगोल
खानिज और ऊर्जा भूगोल उन स्रोतों के स्थानिक वितरण, उनके दोहन की पद्धतियों, तथा ऊर्जा सुरक्षा और अर्थव्यवस्था पर उनके प्रभाव का अध्ययन करता है। जीवाश्म ईंधन (कोयला, तेल, गैस) का सीमित तथा स्थानिक वितरण देश की नीति, औद्योगिक नीति और अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को प्रभावित करता है। नवीकरणीय ऊर्जा (सौर, पवन, जल) के भूगोलिक संभावनाओं का अध्ययन भी आज की आवश्यकताओं में प्रमुख है।
2.5 परिवहन और संचार भूगोल
परिवहन नेटवर्क (सड़क, रेल, जल, वायु) आर्थिक भूगोल का वह अंग है जो स्थानों को जोड़ता है और बाजार तक पहुंच सुनिश्चित करता है। एक समृद्ध परिवहन संरचना किसी क्षेत्र की औद्योगिक व व्यापारिक विकास क्षमता को बढ़ाती है। संचार (इंटरनेट, मोबाइल, उपग्रह) ने आज स्थानिक बाधाओं को घटाया है, परन्तु डिजिटल पहुँच की असमानता नए प्रकार के विभाजन उत्पन्न कर रही है।
2.6 व्यापार और बाजार भूगोल
व्यापार भूगोल अंताराष्ट्रीय और अन्तर्वतरण व्यापार, बाजारों का स्थानिक संगठन, बंदरगाहों और बॉर्डर-हब्स के महत्व का अध्ययन करता है। वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था में वैश्विक मूल्य-श्रृंखलाएँ (global value chains) और विशेष आर्थिक क्षेत्र (SEZ) भी भूगोल का हिस्सा बन गए हैं।
2.7 जनसंख्या, श्रम और आग्रह (labour) भूगोल
जनसंख्या का वितरण, शहरीकरण, श्रम-बाज़ार की संरचना, प्रवासन — ये सभी आर्थिक गतिविधियों का अधार तैयार करते हैं। प्रवासन से उत्पन्न शहरी औद्योगिक श्रम, ग्रामीण क्षेत्रों की कृषि-श्रम पूँजी, और मौसम-आधारित प्रवासन सब विषयगत हैं।
2.8 सेवाक्षेत्र और पर्यटन
सेवाक्षेत्र — बैंकिंग, बीमा, शिक्षा, स्वास्थ्य, सूचना प्रौद्योगिकी आदि — आज अर्थव्यवस्था के बड़े हिस्से बन चुके हैं और इनके स्थानिक केन्द्र जैसे मेट्रो शहर सेवा-केंद्र के रूप में विकसित हो रहे हैं। पर्यटन भूगोल सुन्दरता, सांस्कृतिक विरासत, और सेवाओं के साथ-साथ स्थानीय अर्थनीति को प्रभावित करता है।
2.9 क्षेत्रीय विकास, योजना और नीति
क्षेत्रीय असमानताओं के विच्छेदन हेतु योजना और नीतियाँ आर्थिक भूगोल की समझ पर आधारित बनती हैं। क्षेत्रीय योजना, उपभोक्ता-बुनियादी ढाँचा, औद्योगिक नीतियाँ और संवर्धनात्मक हस्तक्षेप (लघु उद्यम प्रोत्साहन, अविकसित क्षेत्रों के लिए कर प्रोत्साहन) इन विषयों से जुड़ी हैं।
2.10 पर्यावरण, संसाधन प्रबंधन और सतत विकास
आर्थिक गतिविधियों के कारण होने वाले पर्यावरणीय प्रभाव — भूमि क्षरण, जलमानव, प्रदूषण — का अध्ययन और संसाधनों का दीर्घकालिक प्रबंधन आर्थिक भूगोल का अनिवार्य अंग है। सतत विकास (sustainable development) के लक्ष्य भूगोलिक नियोजन के बिना असंभव हैं।
> उपर्युक्त प्रत्येक घटक अपने आप में विस्तृत अध्याय मांगता है; इसलिए आर्थिक भूगोल का क्षेत्र बहुआयामी होने के साथ-साथ नीति-नियमन, सामाजिक-परिवर्तन और पर्यावरणीय संतुलन तक फैला होगा।
3. विषय-वस्तु (Subject Matter)
प्रश्न में ‘विषय-वस्तु की विवेचना’ माँगी गई है; अतः मैं अब प्रत्येक प्रमुख विषय को गहराई में समझाऊँगा — जहाँ सम्भव हो, भारतीय उदाहरणों के माध्यम से। यह भाग परीक्षा-उत्तर के अनुरूप विस्तृत तथ्यों और विश्लेषणों का संकलन है।
3.1 कृषि भूगोल
कृषि भूगोल में भूमि उपयोग, फसल-विन्यास, कृषि उत्पादन के स्थानिक परिवर्तन, तकनीकी हस्तक्षेप तथा बाजार-परिवहन सम्बन्धी प्रश्न आते हैं। कृषि की समृद्धि केवल प्राकृतिक शर्तों पर निर्भर नहीं करती; बाजार की पहुँच, सिंचाई, बीजारोपण, किसानी-प्रणाली और नीतिगत फैसलों का भी बड़ा हाथ होता है। उदाहरणतः हरित क्रांति ने पंजाब-हरियाणा के भू-विकास को बदल दिया — सिंचाई, उच्च उत्पादनशील बीज और उर्वरक के समन्वय ने फसल-भूगोल को बदल दिया। किन्तु हरित क्रांति के पर्यावरणीय एवं सामाजिक दुष्परिणाम (भूमि-क्षरण, जल ताल का गिरना, आर्थिक विषमता) भी देखने को मिले, जो कि कृषि भूगोल में सततता से जुड़े प्रश्न उठाते हैं।
कृषि भूगोल में भूमि उपयोग परिवर्तन (land-use change) का अध्ययन भी महत्वपूर्ण है — जैसे कृषि भूमि से आवास/औद्योगिक भूमि में परिवर्तन, बंजर भूमि में सुधार, या उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में बागवानी का विकास। जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में मानसून की अनिश्चितता तथा तापमान वृद्धि से फसलों के उपयुक्त क्षेत्रों में परिवर्तन भी कृषि भूगोल का आज बड़ा प्रश्न बन गया है।
3.2 औद्योगिक भूगोल
औद्योगिक भूगोल के मूल प्रश्न हैं: उद्योग किस स्थान पर क्यों और कैसे संपन्न होंगे? कच्चे माल-आधारित उद्योग, बाजार-आधारित उद्योग, श्रम-आधारित उद्योग और लाभ-आधारित (profit-oriented) रणनीतियों के आधार पर उद्योगों का विभाजन देखा जाता है। वेबर का स्थानिक चयन सिद्धांत लागत-आधारित सिद्धांत देता है — परन्तु आधुनिक समय में क्लस्टर सिद्धांत, नेटवर्किंग, और नवाचार-आधार (innovation ecosystem) भी निर्णायक होते जा रहे हैं।
बेंगलुरु का आईटी-क्लस्टर इसका आदर्श उदाहरण है — उच्च शिक्षण संस्थान, अंग्रेजी-भाषी शिक्षित कार्यबल, उद्यमिक वातावरण और विदेशी निवेश एक साथ आए तो शहर ने वैश्विक रूप से प्रतिस्पर्धी सेवा-उद्योग विकसित किया। वहीं, पारंपरिक उद्योग जैसे वस्त्र-उद्योग कोल्हापुर, मुंबई के आसपास एवं दिल्ली-एनसीआर के आस-पास के छोटे-बड़े क्लस्टरों में विकसित होते रहे हैं, जिनमें बाजार और श्रम की आसानी महत्वपूर्ण रहा है।
औद्योगिक भूगोल अभी भी नीति-निर्माताओं के लिए एक मार्गदर्शक क्षेत्र है: कहा-कहा उद्योग स्थापित हों (पर्यावरणीय, श्रम, बुनियादी ढाँचा, परिवहन) और किस प्रकार के उद्योग किसी क्षेत्रीय विनिर्देश से तालमेल खाते हैं — यह निर्णय आर्थिक भूगोल के अध्ययन से ही आता है।
3.3 खनिज व ऊर्जा भूगोल — नीति तथा प्रभाव
खानिज और ऊर्जा भूगोल यह समझने में मदद करता है कि किस क्षेत्र में कौन-सा खनिज क्यों है, उसके दोहन के आर्थिक और सामाजिक लागत क्या होंगे, और ऊर्जा-नीति का दीर्घकालिक प्रभाव क्या होगा। भारत में कोयला खदान जो परंपरागत रूप से झारखंड-छत्तीसगढ़ में हैं, वे देश की ऊर्जा-तमक आवश्यकता को पूरा करते हैं, परन्तु सामाजिक विस्थापन, पर्यावरणीय क्षति तथा नदियों के जल-चरित्र पर प्रभाव के कारण इनकी समुचित भूगोलिक समझ आवश्यक होती है। साथ ही नवीकरणीय ऊर्जा का भूगोल — जैसे राजस्थान एवं गुजरात के सौर संसाधन, महाराष्ट्र और तमिलनाडु के पवन संसाधन — यह दिखाता है कि ऊर्जा परिवर्तन केवल तकनीकी नहीं, स्थानिक नीति का भी विषय है।
3.4 परिवहन और संचार — आर्थिक क्रियाओं का जाल
परिवहन का अर्थ केवल मार्गों का निर्माण नहीं, बल्कि यह बाजार तक पहुँच, मूल्य निर्धारण, और आर्थिक समेकन का मूल तंत्र है। बंदरगाह (ports) जैसे मुम्बई, चेन्नई, कन्यार्क, और गुड्स-हब्स जैसे नागपुर का उदय परिवहन-भूगोल की स्पष्ट मिसाल हैं। संचार की क्रांति — इंटरनेट और मोबाइल — ने भौगोलिक सीमाओं को घटाया है पर डिजिटल विभाजन (digital divide) ने नये भूगोलिक असमानताएँ भी पैदाइश की हैं।
3.5 व्यापार भूगोल और वैश्विक मूल्य श्रृंखला
जब देशों के बीच विनिमय बड़े पैमाने पर होता है, तब व्यापार भूगोल महत्वपूर्ण बन जाता है। वस्तुओं का उत्पादन और विनिमय जहां-जहां होता है, वहाँ के श्रम, नीति, और संसाधन पर प्रभाव पड़ता है। वैश्विक मूल्य-श्रृंखलाओं (GVCs) में किसी देश की हिस्सेदारी उसके आर्थिक भूगोल को बदल देती है — जैसे चीन का मैन्युफैक्चरिंग-हब बनना, या भारत में सेवाक्षेत्र का वैश्विक बाजारों में आना।
3.6 शहरी आर्थिक भूगोल, आवास और अर्ध-वैबिक अर्थव्यवस्था
शहर आर्थिक भूगोल के केन्द्र हैं। शहरी भूगोल में भूमि-मूल्य, रिक्तता, आवासीय नीति, औद्योगिक पार्क, और शहरी सेवाओं की उपलब्धता का समन्वित अध्ययन शामिल है। अनौपचारिक (informal) क्षेत्र — छोटे दुकानदार, स्ट्रीट-वेंडर्स, असंगठित कारखाने — शहरी भारत की अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा है और इसे समझे बिना शहरी नीति अधूरी रहेगी।
3.7 पर्यावरण और संसाधन प्रबंधन
आर्थिक गतिविधियों के प्रभाव से पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव (प्रदूषण, भूमि क्षरण, जल संकट) पर विचार करना आर्थिक भूगोल की जिम्मेदारी है। सतत संसाधन-प्रबंधन, पर्यावरणीय न्याय, और स्थानीय समुदायों की भागीदारी आज आर्थिक भूगोल की विषय-वस्तु में निहित है।
4. आर्थिक भूगोल के अध्ययन की पद्धतियाँ
आर्थिक भूगोल के अध्ययन में विभिन्न पद्धतियों का प्रयोग किया जाता है — पारम्परिक, परिमाणात्मक और समकालीन तकनीकी विधियाँ। प्रत्येक विधि के उपयोग और सीमाओं का विवेचन आवश्यक है।
4.1 क्षेत्रीय और वर्णनात्मक अध्ययन
क्षेत्रीय पद्धति में किसी विशेष क्षेत्र (district, state, region) का विस्तृत सर्वे, क्षेत्रीय विशेषताओं का लिखित विवरण, और ऐतिहासिक विकास-दिशाओं का विश्लेषण किया जाता है। यह पद्धति नीति-निर्माण और स्थानीय योजना के लिए उपयोगी है।
4.2 परिमाणात्मक और मॉडल-आधारित पद्धति
यह पद्धति आँकड़ों, गणितीय मॉडलों और सांख्यिकीय तकनीकों पर आधारित है। स्थानिक परस्पर क्रिया के मॉडल (gravity model), लोकेशन-अल्गोरिदम, और इनपुट-आउटपुट विश्लेषण इस श्रेणी में आते हैं। परिमाणात्मक पद्धति से कारण-परिणाम के बीच सम्बन्धों की पुष्टि की जा सकती है।
4.3 GIS एवं रिमोट सेंसिंग
स्थानिक डेटा (spatial data) के विश्लेषण में GIS (Geographic Information Systems) और रिमोट सेंसिंग क्रांतिकारी उपकरण हैं। भूमि उपयोग का मानचित्रण, संसाधन का आकलन, परिवहन नेटवर्क विश्लेषण और जोखिम-मानचित्र (hazard mapping) में ये अत्यंत उपयोगी होते हैं।
4.4 क्षेत्रीय मामलों का तुलनात्मक अध्ययन एवं केस-स्टडी
किसी विशेष क्षेत्र की गहन केस-स्टडी और राज्यों/क्षेत्रों के तुलनात्मक अध्ययन से नीति-एनालिटिक्स को बल मिलता है। उदाहरण के लिए, किन नीतियों ने किसी क्षेत्र को उद्योग के लिए सफल बनाया और किन नीतियों ने विफलता दी—ऐसे अध्ययन व्यवहारिक ज्ञान देते हैं।
4.5 सामाजिक-अर्थशास्त्रीय और बहु-विधागत दृष्टिकोण
साक्षात्कार, फोकस-ग्रुप, ऐतिहासिक अभिलेखों का अध्ययन—ये सभी आर्थिक भूगोल को सामाजिक परिपेक्ष्य में समझने में सहायक हैं। आर्थिक गतिविधियों के पीछे भावनात्मक, सांस्कृतिक और राजनीतिक कारण भी काम करते हैं जिन्हें मात्र संख्यात्मक विधि से नहीं समझा जा सकता।
5. आर्थिक भूगोल के प्रमुख सिद्धांत और उनका आलोचनात्मक मूल्यांकन
आर्थिक भूगोल का सैद्धान्तिक ढाँचा कई क्लासिकल और आधुनिक सिद्धांतों से बना है। यहाँ कुछ प्रमुख सिद्धांतों का विवेचन और उनकी प्रासंगिकता पर चर्चा की जा रही है।
5.1 वॉन थ्यूनन (Von Thünen) का कृषि मॉडल
वॉन थ्यूनन ने बताया कि मार्केट-सिटी के निकटता के अनुसार किस तरह की कृषि व भूमि-मूल्य निर्धारित होते हैं। उनकी धारणा परिवहन लागत पर आधारित है। आलोचना में कहा गया कि मॉडल ने भौगोलिक विविधता, बहु-मार्केट और परिवहन-मौसमी विवाद को नजरअंदाज किया परंतु शहरी-कृषि सम्बन्ध को समझने का उपयोगी आरम्भ है।
5.2 वेबर का औद्योगिक अवस्थिति सिद्धांत
वेबर ने उद्योग की अवस्थिति को कच्चे माल, श्रम और परिवहन लागत के सम्मिलित प्रभाव से समझने का प्रयत्न किया। इस सिद्धांत का उपयोग भारी उद्योगों के स्थानिक निर्णय में अभी भी उपयोगी है, परंतु आधुनिक सेवा-उद्योग और तकनीकी क्लस्टरिंग को यह ठीक से समझा नहीं पाता।
5.3 क्रिस्टालर (Christaller) का केंद्रीय स्थान सिद्धांत
क्रिस्टालर ने बाजारों और सेवाओं के केंद्रीय स्थानों का जाली नेटवर्क-मॉडल दिया, जिससे शहरी केन्द्रों और छोटे-बड़े बाजारों का तार्किक विभाजन निकला। यह सिद्धांत बाजार की स्थानिक संगठन की समझ देता है पर वास्तविक दुनिया की बाधाएँ (जैसे प्राचीन व्यापार मार्ग, राजनीतिक सीमाएँ) इसे सरल बनाते हैं।
5.4 लॉश (Lösch) और समाकलन सिद्धांत
लॉश ने बाजार क्षेत्र के लाभ की अवधारणा से स्थानिक व्यवस्था को अधिक व्यापक रूप दिया। उनके सिद्धांत ने आर्थिक भूगोल को अधिक आर्थिक रूप दिया परन्तु जटिल मॉडल प्रयोग में आते समय डाटा-आवश्यकताएँ भी बढ़ जाती हैं।
5.5 आधुनिक आलोचना और संशोधन
वर्तमान में क्लस्टर-थ्योरी, नेटवर्क-थ्योरी, नवाचार-प्रणाली (innovation systems) और राष्ट्रीय/क्षेत्रीय प्रतिस्पर्धा (regional competitiveness) के सिद्धांत अधिक प्रासंगिक माने जा रहे हैं। साथ ही राजनीतिक अर्थशास्त्र और पर्यावरणीय न्याय भी आर्थिक भूगोल के सिद्धांतों के साथ जुड़ रहे हैं — यानी केवल लागत-लाभ के आँकड़ो से परे सामाजिक और पर्यावरणीय आयामीय निर्णय भी महत्व लेने लगे हैं।
6. भारत का आर्थिक भूगोल
भारत उत्तरोत्तर आर्थिक परिवर्तन के मार्ग पर अग्रसर है और इसका भूगोल इस परिवर्तन में निर्णायक भूमिका निभाता रहा है। यहाँ मैं भारत के आर्थिक भूगोल के कुछ प्रमुख पहलुओं को गहराई से विवेचित कर रहा हूँ।
6.1 कृषि का वितरण और परिवर्तन
भारत की कृषि भूगोलिक विविधता अत्यधिक है — गंगा-यमुना मैदानी क्षेत्र, दक्कन पठार, पूर्वोत्तर पहाड़ी मैदान, तथा राजस्थान व मरुस्थल। हर क्षेत्र की कृषि प्रथाएँ, फसल-चक्र और भूमि-प्रक्रिया भिन्न हैं। हरित क्रांति के बाद कुछ राज्यों में उत्पादन बढ़ा परन्तु पर्यावरणीय असंतुलन और क्षेत्रीय विभाजन भी गहरा गया। आज कृषिगत संकट, कर्ज-दायरों की समस्या, और किसान-प्रोटेस्ट जैसी सामाजिक घटनाएँ भी कृषि भूगोल की नीतियों से जुड़ी हैं।
6.2 औद्योगिकीकरण और शहरों का विकास
औद्योगिक विकास में कोयला-धाराएँ, बंदरगाह-केंद्रित अभियोग, और आईटी-क्लस्टर — तीनों का मिश्रण देखा गया है। मुंबई का वित्तीय-वाणिज्यिक केंद्र बनना, कोलकाता का पारंपरिक औद्योगिक चेहरा और बंगलूरू का आईटी-हब बनना — ये सभी स्थानिक विशेषताओं का परिणाम हैं। शहरी विस्फोट, मेट्रो क्षेत्र और झुग्गी-बस्तियों का विस्तार आज भारत के शहरी भूगोल के मुख्य प्रश्न हैं।
6.3 ऊर्जा व खनिज भूगोल
भारत का ऊर्जा भूगोल कोयला-आधारित परंपरा से निकलकर विविध ऊर्जा स्रोतों की ओर बढ़ रहा है। असम का तेल, राजस्थान-गुजरात का सौर संसाधन, तथा तमिलनाडु-गुजरात के पवन फार्म आज ऊर्जा क्षेत्र में नए केन्द्र हैं। परन्तु ऊर्जा-वितरण की असमानता और ऊर्जा-निर्यात/आयात पर निर्भरता भूगोलिक कदमों की मांग करती है।
6.4 परिवहन, बंदरगाह और व्यापार
नया भारत बंदरगाहों और लॉजिस्टिक-हब पर निर्भर विकसित हो रहा है। मुंद्रा से लेकर दिल्ली-मुम्बई कॉरिडोर तक, परिवहन-भूगोल ने निवेश के पैटर्न और औद्योगिक अवस्थिति को प्रभावित किया है। भारत में आंतरिक बाजारों की जुड़ाव क्षमता में वृद्धि ने स्थानीय आर्थिक एकीकरण को प्रोत्साहित किया है।
6.5 क्षेत्रीय असमानता और विकास नीति
भारत में राज्य और जिलास्तरीय असमानता स्पष्ट है — कुछ क्षेत्र तेज आर्थिक वृद्धि का अनुभव करते हैं जबकि कुछ पिछड़े खंड लगातार पीछे रह जाते हैं। इस परिशिष्ट असमानता का हल नीति-हस्तक्षेप, बुनियादी ढाँचा निवेश और मानव विकास की उपस्थिति पर निर्भर है।
7. समकालीन चुनौतियाँ और नीति-निर्देश
आर्थिक भूगोल के समक्ष आज कई जटिल चुनौतियाँ खड़ी हैं; इनका विवेचन और नीति-उपाय इस अनुशासन की उपयोगिता को परिभाषित करता है।
7.1 जलवायु परिवर्तन और कृषि असुरक्षा
मानसून में अनिश्चितता, तापमान में वृद्धि और चरम मौसमी घटनाएँ कृषि को अस्थिर कर रही हैं। आर्थिक भूगोल को यह बताना होगा कि किन स्थानों में कौन-सी फसल किस प्रकार सुरक्षित रहेगी, और किस प्रकार की उपयुक्त जल-प्रबन्धन नीतियाँ अपनाई जानी चाहिए।
7.2 ऊर्जा संक्रमण और प्रकृति-संपर्क
जीवाश्म-ईंधन से नवीकरणीय ऊर्जा की ओर संक्रमण भौगोलिक निवेश की माँग करता है — सौर ऊर्जा के लिए विस्तृत मैदानी स्थान, पवन के लिए तटीय एवं पठारी क्षेत्र, जलविद्युत के लिए पर्वतीय धाराएँ — सभी की योजना भूगोलिक रूप से करनी होगी।
7.3 शहरीकरण और बुनियादी ढाँचा
तेज़ शहरीकरण के कारण आवासीय दबाव, जल आपूर्ति, कचरा-प्रबंधन, और आवागमन के बड़े प्रश्न उठे हैं। शहरी भूगोल के मार्गदर्शन के बिना शहर अनियोजित रूप में फैल जाते हैं जिससे सामाजिक असमानता व प्रदूषण बढ़ता है।
7.4 वैश्वीकरण और स्थानीय अर्थव्यवस्था
वैश्वीकरण अवसर देती है पर स्थानीय विकरालता (vulnerability) भी बढ़ाती है — विदेशी प्रत्यक्ष निवेश से कुछ क्षेत्र लाभ पाते हैं पर छोटे काफ़िले व पारंपरिक उद्योग दब जाते हैं। आर्थिक भूगोल को यह सूचित करना चाहिए कि कैसे वैश्विक-स्थानीय संतुलन बनाए रखा जाए।
7.5 संसाधन संघर्ष, विस्थापन और सामाजिक-न्याय
खनन, बाँध और औद्योगिक औद्योगिक परियोजनाओं के कारण भूमि-विस्थापन और जातीय/आदिवासी समुदायों पर प्रभाव बढ़ते जा रहे हैं — ये भूगोल और राजनीति का जटिल क्रॉस सेक्शन हैं। नीति-निर्माता इन सामाजिक आयामों की गंभीरता से जाँच करते हुए निर्णय लेनी चाहिए।
8. अध्ययन के उपयोगी उपकरण एवं अनुप्रयोग (प्रायोगिक दिशानिर्देश)
आर्थिक भूगोल का अध्ययन अकादमिक ज्ञान ही नहीं देता; यह नीति-निर्माण, क्षेत्रीय योजना, आपदा-जोखिम कमी तथा परिसंपत्ति-प्रबंधन में प्रत्यक्ष उपयोगी है। कुछ विशेष अनुप्रयोग जिनका जिक्र करना आवश्यक है:
1. क्षेत्रीय योजना और औद्योगिक नीति निर्माण — कौन-सा क्षेत्र औद्योगिक निवेश हेतु अनुकूल है?
2. कृषि नीति तथा जल प्रबंधन — किस क्षेत्र में किस प्रकार की सिंचाई या किसानी उपयुक्त होगी?
3. पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन (EIA) — परियोजनाओं के पर्यावरणीय प्रभाव का अनुमान।
4. शहरी तथा ग्रामीण बुनियादी ढाँचा विकास — परिवहन, स्वास्थ्य और शिक्षा सेवाओं का स्थानिक नियोजन।
5. आपदा प्रबंधन और रिस्क अस्सेसमेंट — भूकम्प, बाढ़ एवं सूखा-प्रवण क्षेत्रों का नक्शानिर्माण।
इन सभी में GIS, रिमोट सेंसिंग, और बड़े-डेटा-विश्लेषण का उपयोग निर्णायक बन चुका है।
9. भविष्य की दिशा-प्रवृत्तियाँ
आर्थिक भूगोल का भविष्य स्थानिक-डेटा, क्लाइमेट-एडाप्टेशन, एवं सामाजिक-न्याय पर केन्द्रित होगा। स्मार्ट सिटी, ग्रीन-इन्फ्रास्ट्रक्चर, नवीकरणीय ऊर्जा क्लस्टर, स्थानीय-स्थायी अर्थव्यवस्था, तथा डिजिटल-कनैक्टिविटी के नए भूगोलिक पैटर्न आकार लेंगे। आर्थिक भूगोल को इन नव-रुझानों के अनुरूप नीतिगत सिफारिशें और कामयाब मॉडलों का निर्माण करना होगा।
समापन
आर्थिक भूगोल एक व्यापक, समन्वित और समय के साथ विकसित होता हुआ अनुशासन है जो आर्थिक गतिविधियों को उनके स्थानिक संदर्भ में समझने का मार्ग प्रदर्शित करता है। इसकी परिभाषा सिर्फ स्थानिक पहचान तक सीमित नहीं है; यह कारण-विश्लेषण, प्रक्रियाओं की व्याख्या, और परिणामों के नीतिगत अर्थों तक फैली हुई है। विषय-वस्तु में कृषि, उद्योग, खनिज, ऊर्जा, परिवहन, व्यापार, जनसंख्या तथा सेवाक्षेत्र आते हैं; और आज के परिदृश्य में पर्यावरणीय संतुलन, जलवायु परिवर्तन, ग्लोबल वैल्यू-चेन के प्रभाव और
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