भारत आज विश्व मानचित्र पर केवल क्षेत्रीय या भौगोलिक पहचान के आधार पर ही नहीं, बल्कि उसकी सामाजिक-आर्थिक संरचना और सांस्कृतिक विशिष्टता के कारण भी महत्वपूर्ण है। लेकिन पिछले दो-तीन शताब्दियों में भारत ने पश्चिमी विचारधाराओं—पूंजीवाद, समाजवाद और कम्युनिज्म—को अपनाने की प्रवृत्ति दिखाई, जबकि अपने मूल सनातन दृष्टिकोण, लोक प्रवाह और धर्म आधारित जीवन पद्धति को अनदेखा कर दिया। इस वैचारिक द्वंद के कारण भारत का आर्थिक और सामाजिक मॉडल अस्थिर और परावलंबी बन गया। पश्चिम के सिद्धांतों पर आधारित अर्थव्यवस्था, भले ही आधुनिक और तकनीकी रूप से सक्षम लगे, पर यह हमारे जीवन मूल्यों, ग्राम-नगर संतुलन, पर्यावरण संरक्षण और नैतिक शासन से पूर्णतः असंगत है।
भारत को आज एक स्व-आधारित आर्थिक मॉडल की आवश्यकता है, जो न केवल आत्मनिर्भरता सुनिश्चित करे, बल्कि सामाजिक न्याय, नैतिकता और सांस्कृतिक स्थिरता का भी पालन करे। यह मॉडल केवल नगरीय केंद्रित नहीं होना चाहिए, बल्कि ग्राम और नगर के बीच संतुलन, प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण, उत्पादन और उपभोग में सामंजस्य, और मानव श्रम का सम्मान सुनिश्चित करे। इसी दृष्टिकोण से भारत की अर्थव्यवस्था न केवल स्थानीय रूप से सुदृढ़ होगी, बल्कि वैश्विक स्तर पर भी उसका प्रभाव स्थायी और सकारात्मक रहेगा।
पश्चिमी मॉडल जैसे पूंजीवाद में व्यक्तिगत लाभ और धन संचय सर्वोपरि है, जबकि समाजवाद और कम्युनिज्म में वर्ग संघर्ष और संपत्ति का सामूहिक बंटवारा प्रमुख है। दोनों ही दृष्टिकोण भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक वास्तविकताओं के अनुरूप नहीं हैं। भारत को स्वयं के सनातन आर्थिक सिद्धांत की आवश्यकता है, जिसमें लाभ और कल्याण केवल नगरीय या व्यक्तिगत नहीं, अपितु पूरे समाज और मानवता के लिए हो। यही दृष्टिकोण रामराज्य के आदर्श मॉडल में परिलक्षित होता है।
रामराज्य का आदर्श केवल राजनीतिक शासन तक सीमित नहीं है, बल्कि यह संपूर्ण सामाजिक, आर्थिक और नैतिक संतुलन का मार्गदर्शक है। इसके माध्यम से भारत न केवल आत्मनिर्भर, न्यायप्रिय और स्थिर बनेगा, बल्कि वह वैश्विक स्तर पर नैतिक और सांस्कृतिक नेतृत्व भी स्थापित कर सकेगा। इस आवश्यकता को समझते हुए आज हमें अपने सनातन आर्थिक दृष्टिकोण और रामराज्य के आदर्शों को पुनः अपनाने का समय आ गया है।
तुलसीदास का रामचरितमानस: रामराज्य का आदर्श और आधुनिक व्याख्या
तुलसीदासजी ने अपने महाकाव्य रामचरितमानस में रामराज्य को केवल आदर्श शासन के रूप में ही नहीं प्रस्तुत किया, बल्कि इसे संपूर्ण मानव जीवन, समाज और अर्थव्यवस्था का संतुलित मॉडल बताया। रामराज्य में न तो दैहिक, न दैविक और न ही भौतिक पीड़ा का प्रभाव है। प्रत्येक प्राणी परस्पर प्रेम, सहयोग और धर्म के पालन में संलग्न रहता है। “दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा॥” – इस दोहे में रामराज्य का मूल संदेश है कि हर व्यक्ति अपने धर्म और कर्तव्य के अनुसार जीवन यापन करता है और समाज में शांति, समरसता और संतुलन का वातावरण रहता है।
रामराज्य में धर्म के चार चरण—सत्य, शौच, दया और दान—से समाज संपूर्ण रूप से संचालित होता है। पुरुष और स्त्री दोनों ही अपने कर्म, नीति और भक्ति के माध्यम से जीवन के चार पुरुषार्थ—धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष—की प्राप्ति करते हैं। तुलसीदासजी ने प्राकृतिक और सामाजिक संतुलन की भी महत्ता स्पष्ट की। “फूलहिं फरहिं सदा तरु कानन। रहहिं एक संग गज पंचानन॥” में वनस्पति, पशु और मानव समुदाय के मध्य प्रेम और सहयोग का आदर्श प्रस्तुत किया गया है। इसी प्रकार, “कूजहिं खग मृग नाना बृंदा। अभय चरहिं बन करहिं अनंदा॥” में शांति, सुरक्षा और आनंद के प्राकृतिक संदेश हैं।
रामराज्य में शासन केवल शक्ति और दंड पर आधारित नहीं है। तुलसीदासजी स्पष्ट करते हैं कि “दंड जतिन्ह कर भेद जहँ नर्तक नृत्य समाज। जीतहु मनहि सुनिअ अस रामचंद्र कें राज॥” – यानी दंड केवल औपचारिक रूप में है क्योंकि अपराध नहीं होता, और ‘जीत’ का अर्थ केवल मन की विजय के लिए है। प्रशासन का उद्देश्य संपूर्ण मानव जीवन के चार पुरुषार्थों का संतुलन सुनिश्चित करना है।
रामराज्य में संसाधनों का संरक्षण, प्राकृतिक संपदा का न्यायसंगत उपयोग और सामाजिक कल्याण महत्वपूर्ण है। “सागर निज मरजादाँ रहहीं। डारहिं रत्न तटन्हि नर लहहीं॥” में स्पष्ट है कि समुद्र अपनी मर्यादा में रहते हुए मानव कल्याण के लिए लाभ प्रदान करता है। नदियाँ निर्मल और शीतल जल बहाती हैं, भूमि उपजाऊ और समृद्ध रहती है। यही कारण है कि रामराज्य केवल आदर्श राजनीतिक मॉडल नहीं, बल्कि सनातन आर्थिक और सामाजिक संतुलन का वास्तविक उदाहरण है।
ग्राम-नगर संतुलन, त्रिगुणात्मक सृष्टि और वर्णाश्रम के आर्थिक सिद्धांत
रामराज्य का आर्थिक और सामाजिक ढांचा ग्राम और नगर के बीच संतुलन पर आधारित था। ग्राम उत्पादन का केंद्र था, नगर उपभोग और विनिमय का। इस संतुलन के माध्यम से समाज में स्थिरता, आत्मनिर्भरता और समरसता सुनिश्चित होती थी। सनातन आर्थिक दृष्टिकोण का मूल यह है कि लाभ केवल व्यक्तिगत या नगरीय केंद्रित नहीं, अपितु पूरे समाज और संस्कृति के कल्याण के लिए हो।
सनातन दर्शन में त्रिगुणात्मक सृष्टि सिद्धांत—सत्त्व, रज और तम—सभी गतिविधियों और समाज के स्वरूप का मार्गदर्शन करता है। अर्थव्यवस्था में यह सिद्धांत मानव कर्म, उत्पादन और उपभोग के बीच संतुलन सुनिश्चित करता है। इसी प्रकार, वर्णाश्रम व्यवस्था और धर्म के चार पुरुषार्थ—धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष—व्यक्ति और समाज दोनों को समग्र रूप से नियोजित करते हैं। वर्णाश्रम व्यवस्था में कर्म और कर्तव्य का स्पष्ट विभाजन होता है, जिससे प्रत्येक वर्ग समाज में अपना योगदान संतुलित रूप से देता है।
रामराज्य और सनातन आर्थिक दृष्टिकोण विकेंद्रीकरण पर आधारित हैं। प्रत्येक ग्राम या नगर अपने संसाधनों के अनुसार आत्मनिर्भर होता है, लेकिन सम्पूर्ण राष्ट्र की अर्थव्यवस्था के साथ संतुलित रहता है। उत्पादन, वितरण और उपभोग में सामंजस्य, प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण और मानव श्रम का मूल्य—ये सभी सिद्धांत रामराज्य के आर्थिक मूल तत्त्व हैं।
आज इसे अपनाने के लिए शून्य-तकनीकी और स्थानीय संसाधन आधारित उत्पाद—जैसे जैविक कृषि, हस्तनिर्मित वस्त्र, मिट्टी और बाँस के शिल्प, आयुर्वेदिक औषधियाँ—से प्रारंभ किया जा सकता है। यह ग्राम स्तर पर रोजगार, आत्मनिर्भरता और सतत विकास सुनिश्चित करेगा। जैसे-जैसे ये केंद्र सफल होंगे, इसे बड़े पैमाने पर अपनाया जा सकता है।
गांधी जी: रामराज्य के आधुनिक ब्रांड एंबेसडर और व्यवहारिक अनुकरण
गांधी जी ने रामराज्य की अवधारणा को व्यावहारिक, नैतिक और आर्थिक दृष्टि से अपनाया। उन्होंने भारतीय समाज के लोक प्रवाह और संस्कृति की गहरी समझ के आधार पर ग्राम आधारित स्वराज, आत्मनिर्भरता और नैतिक व्यापार को प्राथमिकता दी। 1932 में जब डॉ. आंबेडकर दलितों के लिए अलग निर्वाचन मंडल (दलिस्तान) की मांग कर रहे थे, गांधी जी ने “हरिजन” शब्द का प्रयोग कर और अस्पृश्यता के विरुद्ध अभियान चलाकर सामाजिक समरसता और न्याय की नींव रखी। यह केवल सामाजिक सुधार नहीं, बल्कि रामराज्य के सिद्धांतों—सर्व कल्याण, धर्म, न्याय और ग्राम-नगर संतुलन—का प्रत्यक्ष अनुपालन था।
गांधी जी ने पश्चिमी आर्थिक सिद्धांतों को त्यागकर सनातन आर्थिक दृष्टिकोण अपनाया। उनके मॉडल में ग्राम उत्पादन, स्थानीय संसाधन, नैतिक व्यापार, समाज में विकेंद्रीकरण और मानव श्रम का सम्मान सर्वोच्च था। उन्होंने रामराज्य को केवल आदर्श शासन के रूप में नहीं, बल्कि व्यवहारिक आर्थिक, सामाजिक और नैतिक मॉडल के रूप में प्रस्तुत किया। इस दृष्टि से गांधी जी रामराज्य के आधुनिक ब्रांड एंबेसडर हैं। उनके जीवन, नीति और संघर्ष रामराज्य के सिद्धांतों का जीवंत उदाहरण हैं।
रामराज्य एवं सनातन आर्थिक दृष्टिकोण से आधुनिक भारत की दिशा
आज जब भारत विश्व में अपनी स्थिति सुदृढ़ करना चाहता है, तब रामराज्य और सनातन आर्थिक दृष्टिकोण ही उसे स्थायी मार्गदर्शन दे सकते हैं। यह मॉडल केवल भारत के लिए नहीं, बल्कि पूरी मानवता के कल्याण, सामाजिक न्याय, नैतिक शासन और पर्यावरणीय संतुलन का आधार है।
भौतिकवाद, उपभोक्तावाद, परिवार विखंडन, वर्ग संघर्ष और पर्यावरणीय संकट जैसी चुनौतियों का समाधान रामराज्य और सनातन आर्थिक दृष्टिकोण में है। यह मॉडल समाजवाद, पूंजीवाद और कम्युनिज्म जैसी पश्चिमी विचारधाराओं की तुलना में कई गुना अधिक प्रभावशाली और समग्र समाधान प्रस्तुत करता है।
सम्राट विक्रमादित्य से लेकर आज तक रामराज्य ने भारत को न्याय, नैतिक शासन, आर्थिक स्थिरता और सामाजिक समरसता का मार्गदर्शन दिया है। इसे अपनाकर भारत केवल “सोने की चिड़िया” नहीं, बल्कि सिंह के समान तेज, न्यायप्रिय और शक्तिशाली राष्ट्र बन सकता है। ग्राम-नगर संतुलन, वर्णाश्रम व्यवस्था, त्रिगुणात्मक सृष्टि सिद्धांत और धर्म के चार पुरुषार्थ—ये सभी तत्व आधुनिक भारत की आत्मनिर्भर और नैतिक अर्थव्यवस्था का आधार हैं।
रामराज्य और सनातन आर्थिक दृष्टिकोण केवल आदर्श नहीं, बल्कि व्यावहारिक और स्थायी शासन और समाज के मॉडल हैं। इन्हें अपनाकर भारत अपने लोक प्रवाह, संस्कृति और नैतिक मूल्यों को संरक्षित रखते हुए वैश्विक नेतृत्व, आत्मनिर्भरता और सामाजिक कल्याण सुनिश्चित कर सकता है। यह मॉडल न केवल आर्थिक स्थिरता लाता है, बल्कि समाज को न्यायपूर्ण, संतुलित और शक्तिशाली बनाता है।
आज का भारत केवल भौतिक संपन्न नहीं, बल्कि धार्मिक, नैतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टि से समग्र शक्तिशाली राष्ट्र बनने की दिशा में अग्रसर होना चाहिए। रामराज्य और सनातन आर्थिक दृष्टिकोण ही इस यात्रा के प्रामाणिक मार्गदर्शक
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