सृष्टि-संतुलन और मानव सभ्यता का भविष्य


मानव जाति ने अपने ज्ञान-विज्ञान और तकनीक के बल पर प्रकृति से बहुत कुछ प्राप्त किया है। आज यह स्थिति है कि पृथ्वी पर सात अरब से अधिक लोग निवास कर रहे हैं और प्राकृतिक संसाधनों का अति-दोहन किया जा चुका है। यह अति केवल वर्तमान की आवश्यकता की पूर्ति तक सीमित नहीं रही, अपितु भविष्य के अस्तित्व पर भी संकट का संकेत दे रही है। जब मनुष्य अपनी सीमा भूलकर प्रकृति के शाश्वत नियमों से विमुख हो जाता है, तब संतुलन अवश्य ही डगमगाने लगता है।

विज्ञान के क्षेत्र में अनेक ऐसे अनुसन्धान हो रहे हैं, जिन पर चिंतन आवश्यक है। कुछ प्रयोग ऐसे हैं जो मानव सभ्यता की प्रगति नहीं, अपितु उसके विनाश का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं। मनुष्य अब अमरता की खोज में है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता और यांत्रिक युग ने ऐसी सम्भावनाएँ खोल दी हैं कि वह कार्य जो ऋषियों को सहस्रों वर्षों की तपस्या से प्राप्त होता था, अब क्षणमात्र में उपलब्ध हो सकता है। किन्तु प्रश्न यह है कि क्या यह सृष्टि-संतुलन के अनुकूल है? क्या यह धरती और जीवन के शाश्वत प्रवाह के हित में है?

प्रकृति का नियम है – जहाँ असंतुलन होता है, वहाँ वह स्वयं किसी न किसी रूप में संतुलन स्थापित करती है। इतिहास साक्षी है कि जब-जब मानव ने अपने अहंकार से प्रकृति की मर्यादा लाँघी, तब-तब महाविनाशकारी घटनाएँ घटित हुईं। भविष्य भी इस नियम से अछूता नहीं रह सकता। अगले सौ वर्षों में सम्भव है कि कुछ महाविनाशकारी आपदाएँ घटित हों—कुछ प्रकृति की ओर से और कुछ मनुष्य की मूढ़ता से—जिनके माध्यम से संतुलन पुनः स्थापित होगा।

जनसंख्या का अत्यधिक दबाव स्वयं एक संकट है। सात अरब लोग आज पृथ्वी पर हैं और यह संख्या और भी बढ़ेगी। किंतु इन अरबों में से अधिकांश असुरी प्रवृत्तियों से प्रेरित होकर सम्पूर्ण मानवता के लिए संकट बन चुके हैं। जब अधर्म और हिंसा ही जीवन का आधार बना दी जाती है, तब उनका विनाश निश्चित है। यह विनाश किसी दैवी चमत्कार से नहीं, अपितु उनके आपसी संघर्ष और युद्धों से घटित होगा। सम्भव है कि भविष्य में मानव-निर्मित नरसंहार, व्यापक युद्ध और परमाणु विध्वंस सृष्टि को झकझोर दें।

फिर भी यह समझ लेना चाहिए कि यह कलियुग का अन्त नहीं होगा। कलियुग की अवधि चार लाख बत्तीस हजार वर्ष है, और उसका समापन अभी दूर है। हाँ, यह अवश्य है कि समय-समय पर प्रकृति महाघटनाओं द्वारा संतुलन साधती है। यही उसका सनातन नियम है।

ध्यान देने योग्य तथ्य यह भी है कि जिन मत-पंथों और विचारधाराओं का उद्भव मात्र कुछ शताब्दियों पूर्व हुआ, उनका अन्त भी निश्चित है। इस्लाम, ईसाईयत, वामपंथ और ऐसी अनेक विचारधाराएँ धीरे-धीरे समाप्त हो जाएँगी, क्योंकि जन्म लेने वाले का नाश शाश्वत सत्य है। ऋग्वैदिक ऋषि का वचन है—“जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु:”। जो उत्पन्न हुआ है, उसका अंत भी निश्चित है। यही नियम मतों, पंथों और कृत्रिम विचारधाराओं पर भी लागू होता है।

अतः हमें स्मरण रखना चाहिए कि सृष्टि का संचालन मानव के हाथ में नहीं, वरन् उस परम शक्ति के हाथ में है जो अनादि और अनन्त है। मनुष्य चाहे कितना भी विज्ञान और तकनीक का गर्व करे, अंततः उसे उसी सनातन व्यवस्था के अधीन रहना पड़ेगा।


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