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हाल ही में समाचार आया कि भारत-अमेरिका के विवाद के बीच भाजपा देशभर में “वोकल फॉर लोकल” अभियान चलाएगी। यह अभियान स्वदेशी जागरण मंच जैसे संगठनों द्वारा पहले भी कई हिस्सों में चलाया गया है। लेकिन सवाल यह उठता है कि स्वदेशी केवल विदेशी सामानों के बहिष्कार तक सीमित क्यों रहेगा। पिछले बारह वर्षों में सरकार ने स्वदेशी और सनातन आर्थिक दृष्टिकोण के लिए क्या ठोस कदम उठाए, यह महत्वपूर्ण है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक और विचारक तथा हिंदू आर्थिक दृष्टिकोण पर गहन शोध करने वाले श्रद्धेय दत्तोपंत ठेंगड़ी जी ने भारत में वामपंथियों के विषैला एजेंडों को जन-जन तक पहुँचाने और उनके फैलाव को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने मजदूर संघ, किसान संघ और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद जैसे संगठनों की स्थापना की और उनका प्रारंभिक मार्गदर्शन स्वयं प्रदान किया। अनेक पुस्तकों के माध्यम से उन्होंने अपने विचारों से स्वयंसेवकों के लिए प्रेरणास्रोत रहे , जिनमें कार्यकर्ता पुस्तक विशेष महत्व की है। इस पुस्तक में उन्होंने संगठन निर्माण, जनसंपर्क, सामाजिक और आर्थिक दृष्टिकोण के कार्यान्वयन, तथा कार्यकर्ताओं के लिए स्पष्ट मार्गदर्शन का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया।
परंतु श्रद्धेय दत्तोपंत ठेंगड़ी जी और राजीव दीक्षित जी के गहन विचार और शोध कार्य भाजपा की बारह वर्षों की सरकार में अपेक्षित गंभीरता और पूर्णता से लागू नहीं हो सके । स्वदेशी का अभियान केवल नारों तक सीमित रह गया; असली अर्थ में स्थानीय उद्योगों, कृषि और आर्थिक आत्मनिर्भरता को जन-जन तक पहुँचाने के प्रयास अपर्याप्त रहे। न तो रामराज्य की आदर्श परिकल्पना को व्यावहारिक रूप में समझने और लागू करने का प्रयत्न हुआ, और न ही हिंदू आर्थिक दृष्टिकोण पर आधारित विकेंद्रीकृत आर्थिक मॉडल, कृषि सुधार और समाज के हाथ में वास्तविक आर्थिक नियंत्रण स्थापित करने के ठोस कदम नहीं उठाए गए। आज भी अनेक क्षेत्रों में सरकार सीधे व्यापार में हस्तक्षेप कर रही है, जो न केवल पूंजीवाद के सिद्धांतों, बल्कि हिंदू आर्थिक दृष्टिकोण के मूल आदर्शों के भी प्रतिकूल है। परिणामस्वरूप, सनातन आर्थिक सिद्धांतों और उनके समाजोपयोगी लाभ आज तक समाज के हित में पूरी तरह दिखाई नहीं दे पाए।
देश में रामराज्य की अवधारणा केवल नारों तक सीमित रह गई है। रामराज्य के सिद्धांतों को व्यवहार में उतारने और इसे संवैधानिक आदर्श बनाने पर पर्याप्त शोध कार्य नहीं हुआ। भाजपा के संविधान में गांधीवादी समाजवाद को स्वीकार किया गया है, लेकिन रामराज्य की संकल्पना को शामिल नहीं किया गया। कम्युनिज़्म और समाजवाद को विदेशी और नेहरूवादी दृष्टिकोण के आधार पर संविधान में स्थापित किया गया। जबकि रामराज्य की व्यवस्था आर्थिक, सामाजिक और नैतिक समाधान का मार्ग दिखाती है।
जब भारत विक्रमादित्य काल में अपने वैभव और समृद्धि के शिखर पर था, तब इसे संसार में “सोने की चिड़िया” कहा जाता था। यह केवल भौतिक संपदा या व्यापारिक वैभव के कारण नहीं था, बल्कि समाज में धर्म, न्याय, प्रेम, सहयोग और नैतिकता की प्रधानता के कारण भी था। उस समय रामराज्य का आदर्श धरातल पर जीवित था। तुलसीदास जी ने उत्तरकांड में लिखा है—
“राम राज नहिं काहुहि ब्यापा।
सब नर करहिं परस्पर प्रीती।
चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥”
इस चौपाई में स्पष्ट है कि रामराज्य में न किसी को शारीरिक, दैविक या भौतिक कष्ट था, न कोई अन्याय या असमानता थी। सभी लोग प्रेम, सहयोग और सम्मान के साथ अपने-अपने धर्म और कर्तव्य में लगे थे।
“राम राज बैठें त्रैलोका, हरषित भये गए सब सोका।
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना, नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना॥”
राज्य में कोई भी गरीब, दीन या अज्ञानी नहीं था। चारों चरणों में धर्म और न्याय का पालन इतना पूर्ण था कि स्वप्न में भी कोई पाप प्रवेश नहीं करता था (“चारिउ चरन धर्म जग माहीं, पूरि रहा सपनेहुँ अघ नाहीं॥”)।
विक्रमादित्य ने अपने शासन में इसी आदर्श का पालन किया। उनका दृष्टिकोण कलियुग में भी रामराज्य का जीवंत उदाहरण था। उनका शासन केवल सत्ता के लिए नहीं था; संपत्ति का न्यायपूर्ण वितरण, सामाजिक कल्याण और सांस्कृतिक संरक्षण उनकी प्राथमिकता थी।
आज के आधुनिक समय में विभिन्न आर्थिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण देखें—
समाजवाद में उत्पादन और संसाधनों का केंद्रीकृत नियंत्रण होता है। गरीब और कमजोर वर्गों के लिए यह संसाधन सुनिश्चित करता है, पर अक्सर उत्पादकता में कमी और वितरण असंतुलन उत्पन्न होता है।
पूंजीवाद व्यक्तिगत संपत्ति और बाजार स्वतंत्रता पर आधारित है। यह उत्पादन और निवेश बढ़ाता है, लेकिन संपत्ति असमानता, उपभोक्तावाद, परिवार विखंडन और मानसिक तनाव जैसी समस्याएँ भी उत्पन्न करता है।
सनातनी आर्थिक दृष्टिकोण केवल धार्मिक या संस्कृतिक आदर्शों पर आधारित होता है। यह समाज में स्थायित्व और नैतिकता लाता है, पर संसाधनों के न्यायपूर्ण वितरण और व्यापक कल्याण में अक्सर असफल रहता है।
इन सभी दृष्टिकोणों की तुलना में रामराज्य और सनातन आर्थिक दृष्टिकोण सर्वोपरि था। इसमें संसाधनों का न्यायपूर्ण वितरण, श्रम और सेवा का सम्मान, व्यक्तिगत और सामूहिक कल्याण का संतुलन, संतोष, आत्मसंयम और नैतिकता शामिल थे। समाज में प्रेम और सहयोग का वातावरण था, परिवार और समुदाय के संबंध मजबूत थे, और उत्पादन तथा वितरण में कोई असंतुलन नहीं था।
2020 की कोरोना महामारी ने यह स्पष्ट कर दिया कि केवल पूंजीवाद या समाजवाद पर आधारित व्यवस्था स्थायी कल्याण नहीं दे सकती। रामराज्य और विक्रमादित्य का आदर्श दिखाता है कि धर्म, न्याय और संतुलन पर आधारित अर्थव्यवस्था ही समाज को स्थिर, समृद्ध और सुरक्षित बनाए रख सकती है। यही कारण है कि सनातन आर्थिक दृष्टिकोण आधुनिक पूंजीवाद, समाजवाद और केवल सांस्कृतिक दृष्टिकोण से श्रेष्ठ और स्थायी है, और इसे कलियुग में भी लागू किया जा सकता है।
लेकिन सनातन आर्थिक दृष्टिकोण, जिसे रामराज्य की अवधारणा का आधार माना जाता है, उसमें आर्थिक स्थिरता और समाज के भौतिक, आर्थिक एवं आध्यात्मिक उत्थान का समन्वय निहित होता है। यह दृष्टिकोण लोगों के लिए एक सुदृढ़ आर्थिक आधार बन सकता है, क्योंकि इसमें केवल धन-संपत्ति के निर्माण पर नहीं, बल्कि समाज के समग्र विकास और संतुलित जीवन पर बल दिया गया है। हमारे पास पूंजीवाद और समाजवाद से भी श्रेष्ठ आर्थिक दृष्टिकोण मौजूद हैं, और इस पर गहन शोध तथा अध्ययन कार्य की आवश्यकता है।
लेकिन सनातन आर्थिक दृष्टिकोण, जिसे रामराज्य की अवधारणा का आधार माना जाता है, उसमें आर्थिक स्थिरता और समाज के भौतिक, आर्थिक एवं आध्यात्मिक उत्थान का समन्वय निहित होता है। यह दृष्टिकोण लोगों के लिए एक सुदृढ़ आर्थिक आधार बन सकता है, क्योंकि इसमें केवल धन-संपत्ति के निर्माण पर नहीं, बल्कि समाज के समग्र विकास और संतुलित जीवन पर बल दिया गया है। हमारे पास पूंजीवाद और समाजवाद से भी श्रेष्ठ आर्थिक दृष्टिकोण मौजूद हैं, और इस पर गहन शोध तथा अध्ययन कार्य की आवश्यकता है।
आज के विश्वविद्यालयों में केवल कार्ल मार्क्स की थ्योरी को दर्शन के नाम पढ़ाया जाता है, जबकि गांधीवादी चिंतक धर्मपाल और श्रद्धेय दत्तोपंत ठेंगड़ी जी के विचारों को नजरअंदाज किया जाता है। कार्ल मार्क्स को दर्शन के नाम पर पढ़ाया जा सकता है, लेकिन बौद्ध, जैन और चार्वाक जैसे दर्शन, जो हमारी सनातन परंपरा और भारतीय दार्शनिक धारा के अनिवार्य अंग हैं, उन्हें भी शिक्षा प्रणाली में शामिल किया जाना चाहिए था। इसके परिणामस्वरूप समाज में नास्तिक और वामपंथी प्रवृत्तियों का प्रसार हुआ, जबकि हमारी सांस्कृतिक, धार्मिक और आर्थिक समझ कमजोर पड़ी।
आज हमें एंटोनियो ग्राम्सी और कल्चरल मार्क्सवाद के सिद्धांतों को पढ़ाया जाने लगा है, जो समाज में विभाजन की रेखाएँ खींचते हैं—जैसे कि आइडेंटिटी पॉलिटिक्स, क्रिटिकल रेस थ्योरी और नारीवाद जैसे विभाजनकारी एजेंडे अब पाठ्यक्रम में शामिल हो चुके हैं। वहीं, हमारे अपने महान विचारकों को—चाहे वह आचार्य चाणक्य हों या विक्रमादित्य शासन के दौरान के आर्थिक विशेषज्ञ—उनके विचारों को पढ़ाने की आवश्यकता थी, लेकिन उनका नाम पाठ्यक्रम से हटा दिया गया।
यदि नास्तिक दर्शन पढ़ाया जाना है, तो इसे सनातन धर्म से जुड़े नास्तिक दर्शन के संदर्भ में पढ़ाया जाना चाहिए था। बौद्ध, जैन और चार्वाक जैसे दर्शन हमारी भारतीय दार्शनिक परंपरा का अभिन्न हिस्सा हैं, जिन्होंने समाज, अर्थव्यवस्था और नीति-निर्माण पर गहन विचार प्रस्तुत किए हैं। फिर भी इन्हें शिक्षा प्रणाली में शामिल नहीं किया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि समाज में नास्तिक और वामपंथी विचारधारा की प्रधानता बढ़ गई, जबकि हमारी अपनी प्राचीन और वैदिक-सनातन नास्तिक परंपराएँ, जो तर्क, न्याय और संतुलित जीवन के आदर्श प्रस्तुत करती हैं, उपेक्षित रह गईं।
यह स्थिति 12 वर्षों से सत्ता में रही भाजपा सरकार के बावजूद भी बनी हुई है। आज भी विश्वविद्यालयों और पाठ्यक्रमों में वामपंथी विमर्श, कल्चरल मार्क्सवाद और उनके विभाजनकारी सिद्धांत का अध्ययन किया जाता है, जबकि हमारे सांस्कृतिक और सनातन आर्थिक दृष्टिकोण के सिद्धांत उपेक्षित हैं।
सनातन धर्म के चिन्ह संविधान में दिखाई नहीं देते, जबकि बौद्ध दर्शन से प्रेरित अशोक और बौद्ध मत के प्रभावित सिद्धांतों ने अपने प्रतीक और सिद्धांत विकसित किए। जब मैं आठवीं कक्षा में था, तब सामाजिक विज्ञान में रामायण और महाभारत को केवल कल्पना के रूप में पढ़ाया जाता था। विक्रमादित्य का नाम कहीं नहीं आया। कलियुग में महान सम्राट का उल्लेख नहीं किया गया, जिन्होंने इस युग में रामराज्य की स्थापना की थी। उन्होंने कालगणना के लिए शक संवत तक स्थापित किया।
समाजवाद का महिमामंडन किया गया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमने समाजवाद को संवैधानिक आदर्श के रूप में स्थापित किया। आपातकाल के दौरान, इंदिरा गांधी ने 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से समाजवाद को संविधान की प्रस्तावना में शामिल किया। इसके विपरीत, गांधी जी की रामराज्य दृष्टि और उनकी आर्थिक-सांस्कृतिक विचारधारा को संविधान में आदर्श के रूप में नहीं अपनाया गया। विदेशी विचारधारा के समाजवाद और कार्ल मार्क्स के सिद्धांतों को समाजशास्त्र और राजनीति में महिमामंडित किया गया, जबकि भारतीय सनातन दृष्टिकोण और बौद्ध-जैन-चार्वाक दर्शन को उपेक्षित किया गया।
आज हमारे देश में शिक्षा और विमर्श का स्वरूप गहराई से प्रभावित हो चुका है। एंटोनियो ग्राम्सी और कल्चरल मार्क्सवाद के सिद्धांत अब शैक्षणिक पाठ्यक्रम का हिस्सा बन चुके हैं, जो समाज में विभाजन की रेखाएं खींचते हैं—आईडेंटिटी पॉलिटिक्स, क्रिटिकल रेस थ्योरी और नारीवाद जैसे एजेंडे इसके उदाहरण हैं। इसके विपरीत, हमारे अपने महान विचारकों—चाहे आचार्य चाणक्य हों या विक्रमादित्य शासन के दौरान के आर्थिक विशेषज्ञ—उनके विचारों को पढ़ाने की बात तो दूर, उनके नामों को शिक्षा और पाठ्यक्रम से ही हटा दिया गया। सनातन धर्म और उसके चिन्ह भी संविधान में पर्याप्त रूप से प्रस्तुत नहीं हैं।
इतिहास के पन्नों में बौद्ध दर्शन से प्रेरित अशोक और उनके मत की अपनी विशिष्ट थ्योरी और प्रतीक व्यवस्था रही, लेकिन हमारे महान सम्राटों और उनके योगदानों का उल्लेख शिक्षा में नहीं मिलता। कलियुग में महान सम्राटों का जिक्र नहीं मिलता, जिन्होंने इस कलियुग में रामराज्य की स्थापना की थी। कैलेंडर तक शक संवत के अनुसार निर्मित किया गया है, पर इसकी महत्ता को अनदेखा किया गया।
समाज में नास्तिकता और धर्मविहीनता को फैलाने का कार्य समाजवाद और सेकुलरिज्म के नाम पर किया गया। इस प्रक्रिया के तहत हिंदू समाज को जाति, भाषा और क्षेत्र के आधार पर विभाजित करने का प्रयास निरंतर जारी रहा। चाहे एससी-एसटी आरक्षण हो, ओबीसी आरक्षण हो, या एससी एक्ट, भाषा और क्षेत्र के नाम पर विवाद—सभी में यही विभाजनकारी नीति दिखाई देती है। आज भी जातिगत जनगणना के नाम पर यह प्रयास जारी है, क्योंकि हमने रामराज्य को संवैधानिक आदर्श के रूप में स्थापित नहीं किया।
मैं 2014 में आठवीं कक्षा में था। उस समय सामाजिक विज्ञान में रामायण और महाभारत को मात्र कल्पना के रूप में पढ़ाया जाता था। आज, 2025 में, 12 वर्ष भाजपा की सत्ता के बाद भी स्थिति वही बनी हुई है—इतिहास और संस्कृति के मूल पहलुओं को शिक्षा में महत्व नहीं दिया जा रहा है। स्कूल और विश्वविद्यालयों में छात्र और समाज वामपंथी विचारों से प्रभावित हो रहे हैं। हमारी सरकारें, सत्ता में रहते हुए भी, अपने फैसलों और नीतियों में CSDS जैसे वामपंथी थिंक टैंकों और विदेशी समर्थित संस्थाओं पर निर्भर रहती हैं।
वामपंथियों का उद्देश्य भारत की आत्मा—सनातन वैदिक धर्म—को समाप्त करना है, और इसके लिए वे किसी भी स्तर तक जाने से नहीं चूकते। इसके विपरीत, हमने समाजवाद, सेकुलरिज्म और राष्ट्रीय आदर्शों को प्रमुखता दी हुई है। सनातन आर्थिक दृष्टिकोण, रामराज्य की अवधारणा और गांधी जी के विचारों को नजरअंदाज किया गया। सेकुलर शब्द के नाम पर भारत को धर्मविहीन और नास्तिक राज्य बनाने की कोशिश की गई। इसके परिणामस्वरूप हिंदू समाज और हमारी संस्कृति पर आंतरिक और वैचारिक दबाव लगातार बढ़ता जा रहा है, और रामराज्य जैसी हमारे सांस्कृतिक आदर्श अवधारणाओं को शिक्षा और नीति के स्तर पर नजरअंदाज किया जाता है।
हिंदुनिष्ठ थिंक टैंक बनाने का प्रयास 2014 के चुनाव के बाद कुछ संघ विचारकों के मन में आया। उनका विचार था कि छोटे-छोटे 40 से 50 और एक-दो बड़े स्तर के थिंक टैंक स्थापित किए जाएँ, जो स्वतंत्र रूप से हिंदू चिंतन और अध्ययन पर कार्य करें। लेकिन इस योजना पर कोई ठोस काम नहीं हुआ। जो लोग प्रयास करना चाहते थे, उन्हें अनुसांगिक संगठन बनाने के लिए कह दिया जाता, जिससे वे स्वतंत्र होकर कार्य नहीं कर पाते।
सरकार चाहे और संगठन चाहे—यदि सही दिशा में प्रयास होता, तो आज हर शहर में रिसर्च सेंटर और 40 से 50 छोटे-बड़े थिंक टैंक सक्रिय रूप से काम कर रहे होते। कुछ बड़े थिंक टैंक भी होने चाहिए थे, लेकिन वे नहीं बने। इसके बजाय केवल टोलियाँ बनाई गईं, जो बाहरी रूप से सक्रिय प्रतीत होती हैं, लेकिन इनके माध्यम से वास्तविक रिसर्च और गहन अध्ययन नहीं हो पाया। इस कारण हिंदू चिंतन और वैचारिक कार्य अभी तक स्वतंत्र और प्रभावपूर्ण रूप में विकसित नहीं हो सका।
हिंदुत्व और सनातन धर्म के विचारों पर गंभीर और व्यवस्थित शोध करने के लिए योजनाबद्ध तरीके से काम करना आवश्यक है। इसके लिए विचारकों और शोधकर्ताओं को आर्थिक सहयोग प्रदान किया जाता है और उनसे गुणवत्तापूर्ण रिसर्च करवाया जाता है। लेकिन जब कोई स्वयं इस क्षेत्र में शोध करना चाहता है, तो उसे सुविधाएँ कहाँ मिलती हैं?
हिंदुत्व और सनातन धर्म के विचारों पर गंभीर और व्यवस्थित शोध करने के लिए योजनाबद्ध तरीके से काम करना आवश्यक है। इसके लिए विचारकों और शोधकर्ताओं को आर्थिक सहयोग प्रदान किया जाता है और उनसे गुणवत्तापूर्ण रिसर्च करवाया जाता है। लेकिन जब कोई स्वयं इस क्षेत्र में शोध करना चाहता है, तो उसे सुविधाएँ कहाँ मिलती हैं?
यदि कोई हिंदुनिष्ठ और राष्ट्रवादी व्यक्ति, जो स्वयं संघ का स्वयंसेवक हो, सनातन धर्म के सिद्धांतों, सनातन आर्थिक दृष्टिकोण, तथा सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक विषयों पर शोध कार्य करना चाहता है, तो उसके पास कोई प्लेटफॉर्म उपलब्ध नहीं है। उसे यह शोध भी अपने निजी समय और संसाधनों पर करना पड़ता है। यही वर्तमान स्थिति है—अपने पैसों और मेहनत से प्लेटफॉर्म तैयार करना पड़ता है।
संगठन और सरकारें अपनी विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए शोधकार्य, थिंक टैंक या रिसर्च सेंटर बनाने की कोई ठोस योजना नहीं बनातीं। बीजेपी की सरकार 2014 में बनी थी और अब 2025 में 11 साल पूरे हो चुके हैं, लेकिन इस दिशा में विशेष रूप से कोई ठोस काम नहीं हुआ। इसके बावजूद यह कहा जाता है कि हिंदुत्व के विचारों के लिए कोई काम नहीं करना चाहता। लोगों में निस्वार्थ भाव तो होता है, परंतु उन्हें काम करने का कोई व्यवस्थित प्लेटफॉर्म ही उपलब्ध नहीं कराया जाता।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकारें स्थायी नहीं रहतीं। इसलिए जब अवसर मिले, उसे छोड़ना नहीं चाहिए। सनातन धर्म और भारत विरोधी इको-सिस्टम ने अपने 12 वर्षों में जो प्रभाव और बदलाव किए, उसे वे एक बार सत्ता में आकर एक झटके में बदल देंगे। सोनिया गांधी के सलाहकार अहमद पटेल कहते थे कि “एक बार हम सत्ता में आ गए, तो हिंदूवादियों के लिए 200 फिट गढ़ा गाड़ देंगे।”
हमारी सरकारें और संगठन केवल नारेबाजी तक सीमित रह जाते हैं। वे अपने कार्यकर्ताओं को स्वदेशी और अन्य विषयों के नाम पर सड़कों पर उतार देते हैं और उनकी भावनाओं का दोहन करते हैं। जमीनी स्तर पर कोई ठोस कार्य नहीं करते।
वहीं, वामपंथी अपने शोध और नवाचार कार्यों में अपने लोगों पर अरबों रूपये खर्च करने में संकोच नहीं करते। कार्ल मार्क्स और कल्चरल मार्क्सवाद के सिद्धांत, एंटोनियो ग्राम्सी के सम्यावाद और समाजवाद की थ्योरी के माध्यम से लाखों विचारकों और लेखकों को पोषण मिलता है। उनकी योजनाएँ इतनी सुव्यवस्थित और सुदृढ़ हैं कि विचारक, लेखक और शोधकर्ता व्यवस्थित रूप से और सामूहिक प्रयासों के साथ काम कर सकते हैं। इसके विपरीत, हमारे हिंदुत्व विचारक अपने प्रयासों में अक्सर अकेले संघर्ष करते हैं, और उनके लिए यह मार्ग बहुत कठिन और चुनौतीपूर्ण होता है।
वास्तविकता यह है कि अनेक ऐसे क्षेत्र हैं, जिन पर बड़े पैमाने पर काम किया जा सकता था, लेकिन नहीं हुआ। पहले अमेरिका कई दशकों तक आदर्श और मित्रवत था, पर हमने उस पर अत्यधिक निर्भरता बना ली। पहले नेहरू-गांधी परिवार ने समाजवाद के नाम पर देश की अर्थव्यवस्था को कमजोर किया, और 1991 के अधूरे आर्थिक सुधारों ने इसे और बढ़ाया। आज भी हम न पूरी तरह समाजवादी बन पाए हैं, न पूर्ण पूंजीवादी; हमारी अर्थव्यवस्था पेंडुलम की भांति झूलती हुई प्रतीत होती है।
इसलिए अब यह आवश्यक है कि हम अपने सनातन आर्थिक दृष्टिकोण, रामराज्य के आदर्श और गांधी जी के विचारों के आधार पर नीति निर्माण और शोध कार्य को सुदृढ़ करें। केवल नारे और भावनाओं से कोई परिणाम नहीं आएगा। हमें थिंक टैंक, रिसर्च सेंटर और आर्थिक-सांस्कृतिक अध्ययन संस्थान बनाने होंगे, जहां विचारक स्वतंत्र रूप से अध्ययन और अनुसंधान कर सकें। तभी हम समाज में स्थायित्व, आर्थिक समृद्धि और सांस्कृतिक अखंडता ला पाएंगे और भारत को धर्मविहीन, नास्तिक और विभाजित समाज बनने से बचा पाएंगे
✍️ दीपक कुमार द्विवेदी
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