नवरात्रि का रास और गरबा : भक्ति से भोग तक और पुनर्जागरण की पुकार



भारत की संस्कृति की जड़ें साधना और मर्यादा में रही हैं। हमारे पर्व केवल मनोरंजन का साधन नहीं बल्कि आत्मा को ऊँचा उठाने और समाज को संगठित करने का मार्ग रहे हैं। नवरात्रि भी ऐसा ही पर्व है, जो नौ दिनों तक देवी शक्ति की उपासना और भक्ति का पवित्र अवसर प्रदान करता है। किंतु दुखद है कि आज यह पर्व अपने मूल स्वरूप से भटककर बाजारवाद, मनोरंजन और अश्लीलता का शिकार हो गया है।

रास की परंपरा का आधार श्रीकृष्ण का महारास है। भागवत पुराण के दशम स्कंध में वर्णित है कि गोपियों और श्रीकृष्ण के बीच हुआ यह रास केवल नृत्य नहीं बल्कि आत्मा और परमात्मा का दिव्य मिलन था। यह साधना का उच्चतम रूप था, जिसमें देह से ऊपर उठकर आत्मा ईश्वर से एकाकार हो जाती है। गरबा का आधार भी उतना ही पवित्र है। गरबा शब्द संस्कृत के ‘गर्भ’ से आया है, जो शक्ति और सृजन का प्रतीक है। दीपक से प्रकाशित घड़ा अखंड ऊर्जा का संकेत करता है और उसके चारों ओर भक्त गोलाकार घूमते हुए देवी की महिमा का गान करते हैं। भक्त कवि नरसिंह मेहता की रचनाओं में भी गरबा को मां की आराधना और साधना का अंग बताया गया है— “जय अड्या शक्तिने आर्ति उतारिये, गरबा रमे मां अंबा अंगणे।”

नवरात्रि के आयोजन का वातावरण कभी मंदिर जैसा पवित्र होता था। स्त्रियाँ और पुरुष शालीन वस्त्रों में माता के समक्ष नृत्य करते थे। गीतों में देवी की स्तुति, ढोल और मंजीरों की लय, और नृत्य की हर गति में साधना का भाव होता था। संगीत साधना का माध्यम था, नृत्य भक्ति की अनुभूति था और पूरा आयोजन एक अनुष्ठान की तरह होता था।

लेकिन समय के साथ इस परंपरा का स्वरूप बदल गया। बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक गरबा और रास ग्रामीण और लोकजीवन में अपनी पवित्रता और मर्यादा में ही रहा। सत्तर और अस्सी के दशक तक यह केवल लोकधुनों और भक्ति गीतों का हिस्सा था। किंतु शहरीकरण के बढ़ते प्रभाव ने इसमें व्यावसायिकता घुसा दी। नब्बे के दशक में निर्णायक मोड़ आया जब बॉलीवुड ने इस परंपरा में प्रवेश किया। देवी गीतों की जगह फिल्मी गाने बजने लगे, शालीनता की जगह भड़कीली वेशभूषा छा गई और भक्ति का माहौल डीजे, डिस्को लाइट और बाजार के शोर में दब गया। दो हजार के बाद तो गरबा एक टिकट वाला शो बन गया, जिसमें भक्ति पीछे और भोगवादी प्रदर्शन आगे आ गया।

यह स्थिति केवल बॉलीवुड या व्यावसायिक संस्थाओं की ही देन नहीं बल्कि कुछ संगठनों और आयोजकों ने भीड़ जुटाने और धन कमाने के लोभ में गरबा को भक्ति से काटकर मनोरंजन और फूहड़ता का साधन बना दिया। जो पर्व समाज की आत्मा को शुद्ध करता था, उसे व्यवसाय का साधन बना दिया गया।

आज हिंदू समाज के सामने सबसे बड़ा प्रश्न यही है कि क्या हम अपनी परंपराओं को बचाएंगे या उन्हें बाजार के हवाले कर देंगे। समाज का दायित्व है कि वह रास और गरबा को पुनः उसके मूल स्वरूप में जीवित करे। युवाओं को यह समझाना होगा कि गरबा केवल नृत्य नहीं बल्कि मां की उपासना और शक्ति साधना है। आयोजनों में शालीनता और अनुशासन को पुनः स्थापित करना होगा। भक्ति गीतों और लोकधुनों को मंच पर वापस लाना होगा और व्यावसायिकता से ऊपर उठकर हमारी सनातन संस्कृति को पावन रूप में प्रतिष्ठित करना होगा।

यह समय चेतावनी का है। यदि यह विकृति इसी तरह बढ़ती रही तो आने वाली पीढ़ी रास और गरबा को केवल क्लब और डिस्को का हिस्सा समझेगी। उनके लिए नवरात्रि साधना का पर्व नहीं बल्कि केवल भोग का साधन रह जाएगा। तब हमारी संत परंपरा, हमारी भक्ति धारा और हमारी सांस्कृतिक जड़ें आने वाली पीढ़ियों की चेतना से मिट जाएँगी।

यदि हमने अभी सुधार का मार्ग नहीं अपनाया तो कल पछताने के अलावा हमारे पास कुछ शेष नहीं रहेगा। हमें आज ही यह संकल्प लेना होगा कि नवरात्रि का रास और गरबा पुनः उसी रूप में जीवित हो, जैसा हमारे ग्रंथों और संत कवियों ने हमें दिया था। यह पर्व केवल आनंद नहीं बल्कि साधना है, केवल नृत्य नहीं बल्कि आत्मबल है और केवल उत्सव नहीं बल्कि हमारी सनातन अस्मिता का प्रतीक है। यही हमारी पीढ़ियों के प्रति जिम्मेदारी है और यही हमारे धर्म का आह्वान भी।
लेखक 
महेन्द्र सिंह भदौरिया

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