आज जब हम भारतभूमि की वर्तमान दशा पर दृष्टिपात करते हैं, तो सहज ही यह प्रतीत होता है कि धर्म की गिलानी हो रही है। पापाचार, भ्रष्टाचार और अत्याचार चरमसीमा पर पहुँच चुके हैं। यह पुण्यभूमि, जहाँ से विश्व को धर्म, अध्यात्म और सत्य का संदेश मिला, वहीं अब असुरता, पिशाचत्व और अराजक प्रवृत्तियों का बोलबाला बढ़ता जा रहा है। यदि इस अधर्म का उन्मूलन नहीं किया गया, तो धर्म की विजय कैसे सम्भव होगी?
वास्तव में धर्म की विजय केवल तब होती है, जब अधर्म का नाश किया जाए। प्रकाश का अस्तित्व तभी सिद्ध होता है, जब अंधकार मिटे। किंतु दुःख का विषय यह है कि आज सज्जनशक्ति निष्क्रिय, निष्ठुर, कायर और जड़ बन चुकी है। हमारी संवेदनाएँ सुप्त हो गई हैं। जब तक हमारी अपनी पीड़ा न हो, तब तक हम मौन रहते हैं। किसी बेटी पर अत्याचार हो तो हम केवल सोशल मीडिया पर चर्चा करेंगे, परन्तु प्रतिकार के लिए आगे नहीं बढ़ेंगे। यह मानसिकता धर्म की विजय के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है।
भगवान श्रीकृष्ण का वचन स्मरणीय है— “विनाशाय च दुष्कृताम्।” दुष्टता का विनाश आवश्यक है। जब तक अधर्म का उन्मूलन नहीं होगा, तब तक न तो धर्म की प्रतिष्ठा होगी और न ही राष्ट्र में शान्ति, सौहार्द, न्याय और धर्म का वातावरण निर्मित होगा। अधर्म के नाश से ही राष्ट्र परम वैभव को प्राप्त कर सकता है।
किन्तु वर्तमान समाज की स्थिति अत्यन्त चिंताजनक है। प्रतिदिन लाखों गौमाताओं की हत्या हो रही है। नशे का व्यापार फल-फूल रहा है, परिवार और समाज नष्ट हो रहे हैं, किन्तु शासन को केवल कर-राजस्व की चिन्ता है। खनन-माफ़िया नदियों और पर्वतों का अस्तित्व मिटा रहे हैं। वनों की चोरी-छिपे कटाई हो रही है, उन्हें आग के हवाले किया जा रहा है। नदियाँ, जिन्हें हमारी संस्कृति में मातृस्वरूपा कहा गया, वे मनुष्य की ही कृत घृणित प्रवृत्तियों से प्रदूषित की जा रही हैं। माँ नर्मदा जैसी पवित्र धारा तक नगरों के गन्दे नालों से भर दी गई है, और उसी जल से हम स्नान-भोजन करते हैं। विचारणीय है— यह कैसी भक्ति है? क्या यह छद्म-भक्ति नहीं है?
भारतवर्ष की महान परम्परा नवरात्रि में देवी-पूजन की रही है। साधना, उपासना, अनुष्ठान, जप और व्रत इस पर्व का सार रहे हैं। परन्तु आज देवी-आराधना भी प्रदर्शन और प्रतिस्पर्धा का माध्यम बन गई है। बड़े-बड़े पण्डाल, भव्य सजावट और लाखों रुपये की अपव्ययता हो रही है, जबकि समाज का एक बड़ा वर्ग निर्धनता और अभाव से जूझ रहा है। यदि भक्तगण विवेकपूर्ण होकर दुर्गा-पूजन में अल्प व्यय करें और शेष धन निर्धनों की सेवा में लगाएँ, तो देवी की कृपा सहस्रगुणा बढ़कर प्राप्त होगी। निश्चय ही माँ जगदम्बा ऐसे भक्त से प्रसन्न होकर कहेंगी— “मेरा यह उपासक बुद्धिमान, समाजसेवी और संवेदनशील है।”
भाइयो! यह सम्पूर्ण समाज उसी विराट महामाया की छाया है। इसकी रक्षा, पालन-पोषण और सेवा करना ही माँ भारती की सच्ची उपासना है। स्वामी विवेकानन्द जी ने यही प्रतिपादित किया था कि ईश्वर की पूजा का श्रेष्ठतम मार्ग मानवता की सेवा है।
अतः समय की पुकार है कि हम अपनी जड़ता, कायरता और निष्ठुरता को त्यागें। अधर्म और असुरता के विरुद्ध संगठित होकर खड़े हों। तभी धर्म की विजय होगी, तभी राष्ट्र का कल्याण सम्भव होगा, और तभी भारतभूमि पुनः परम वैभव को प्राप्त कर सकेगी।
ईश्वर हम सबको सद्बुद्धि प्रदान करें और राष्ट्र एवं समाज का कल्याण करें। 🙏
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