ऋषि पंचमी पर विशेष : “ऋषि परंपरा – भारतीय संस्कृति की आत्मा और विश्व मानवता का पथप्रदर्शन

ऋषि पंचमी पर विशेष : “ऋषि परंपरा – भारतीय संस्कृति की आत्मा और विश्व मानवता का पथप्रदर्शन” 
भारत का इतिहास केवल साम्राज्यों, राजाओं और युद्धों का नहीं है, बल्कि वह ऋषियों और मुनियों की तपोभूमि का इतिहास है। जिस भूमि पर सप्तऋषियों ने अपने ज्ञान, तप और त्याग से मानवता को दिशा दी, जिस धरा पर महर्षियों ने वेदों, उपनिषदों और शास्त्रों का सृजन किया, वही भारत विश्वगुरु कहलाया। ऋषि पंचमी का पर्व इस बात का स्मरण है कि हमारी संस्कृति की जड़ें केवल भौतिक विजय में नहीं, बल्कि आत्मविजय और ज्ञान में निहित हैं।

सप्तऋषि परंपरा : ज्ञान की अखंड ज्योति
ऋग्वेद और प्राचीन ग्रंथों में सप्तऋषियों को ब्रह्मा के मानस पुत्र माना गया है। वे सृष्टि व्यवस्था के प्रथम शिक्षक और मानव समाज के मार्गदर्शक थे। सप्तऋषि केवल धार्मिक पुरुष नहीं थे, बल्कि उन्होंने समाज, विज्ञान, दर्शन, चिकित्सा, राजनीति और अध्यात्म – जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को दिशा दी।

महर्षि अत्रि अपनी तपस्या और आयुर्वेदिक ज्ञान के लिए प्रसिद्ध थे। चरक संहिता में जिन सूत्रों का उल्लेख है, उनका आधार अत्रि परंपरा में मिलता है। महर्षि भारद्वाज ने आयुर्वेद के साथ-साथ ज्योतिष और खगोल का भी प्रतिपादन किया। आयुर्वेद का "भरद्वाज संहिता" नामक खंड आज भी उनके योगदान का साक्षी है। महर्षि गौतम न्याय दर्शन के जनक माने जाते हैं। उनके सूत्रों में तर्क और प्रमाण की जिस पद्धति का प्रतिपादन मिलता है, वह आधुनिक लॉजिक (Logic) की प्राचीन जड़ है। महर्षि जमदग्नि अपनी तपस्या और संयम के लिए विख्यात रहे। उन्होंने जीवन में ब्रह्मचर्य और धर्मपालन के आदर्श स्थापित किए। महर्षि कश्यप को "जीवसृष्टि का पिता" कहा जाता है। उनकी संहिता में वनस्पति, प्राणी और जातियों का वर्गीकरण मिलता है, जो आधुनिक जीवविज्ञान के सिद्धांतों से मेल खाता है। महर्षि वशिष्ठ राजऋषि थे, जिन्होंने राम जैसे शिष्य को नीति और संस्कार दिए। उनके योग वशिष्ठ ग्रंथ में अद्वैत वेदांत की उच्चतम व्याख्या मिलती है। महर्षि विश्वामित्र ने अपनी तपस्या से "ऋषि" से "ब्रह्मर्षि" तक की यात्रा पूरी की और गायत्री मंत्र जैसे अद्वितीय मंत्र का उपहार मानवता को दिया।

सप्तऋषियों की यह परंपरा कालांतर में भी जीवित रही। प्रत्येक युग में ऋषियों ने समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप नए शास्त्र, नए विचार और नए मार्गदर्शन दिए।

वेद और उपनिषद : ज्ञान की विश्वकोशीय धरोहर

चारों वेद – ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद – केवल धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि मानव सभ्यता की प्राचीनतम विश्वकोश हैं। ऋग्वेद में देवताओं के स्तोत्र हैं, जिनमें प्रकृति और ब्रह्मांड का रहस्य समाहित है। सामवेद ने संगीत और स्वरशास्त्र की नींव रखी। यजुर्वेद ने यज्ञ और कर्म की पद्धति बताई। अथर्ववेद ने औषधि, चिकित्सा, ज्योतिष और लोकाचार का ज्ञान दिया।

उपनिषदों में दार्शनिक चिंतन की पराकाष्ठा है। ईश, केन, कठ, मुण्डक, छांदोग्य, बृहदारण्यक जैसे उपनिषद आज भी आत्मा, ब्रह्म और संसार के रहस्यों की व्याख्या करते हैं। “अहं ब्रह्मास्मि” और “सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म” जैसे सूत्रों ने मानवता को अध्यात्म की सर्वोच्च ऊँचाई पर पहुँचाया।
भारतीय दर्शन और ऋषियों का योगदान

ऋषियों ने छः दर्शनों की स्थापना कर विश्व के बौद्धिक इतिहास को दिशा दी,सांख्य दर्शन के प्रवर्तक कपिल ऋषि ने ब्रह्म और प्रकृति के संबंध को स्पष्ट किया,योग दर्शन के महर्षि पतंजलि ने योगसूत्रों के माध्यम से मन, शरीर और आत्मा की एकता का मार्ग दिखाया,न्याय दर्शन के गौतम ऋषि ने तर्क और प्रमाण की व्यवस्थित पद्धति दी,वैशेषिक दर्शन के कणाद ऋषि ने परमाणु सिद्धांत का प्रतिपादन किया, जो आधुनिक विज्ञान का आधार है,मीमांसा दर्शन के जैमिनि ने कर्मकांड और धर्म की गहराई का विवेचन किया,वेदांत दर्शन के बाद शंकराचार्य ने अद्वैत वेदांत की व्याख्या कर उसे पुनर्जीवित किया।

आयुर्वेद और चिकित्सा विज्ञान
चरक ऋषि की चरक संहिता और सुश्रुत की शल्य चिकित्सा ने आयुर्वेद को अमर बना दिया। चरक ने रोग, निदान और औषधि का वैज्ञानिक विवेचन किया। सुश्रुत को आधुनिक शल्य चिकित्सा का जनक माना जाता है। उनके द्वारा वर्णित ऑपरेशन की तकनीकें आज भी चिकित्साविज्ञान को आश्चर्यचकित करती हैं।

ज्योतिष और खगोल विज्ञान
भृगु ऋषि ने ज्योतिष को व्यवस्थित किया। उनकी भृगु संहिता भविष्यवाणी की अद्भुत परंपरा है। आर्यभट, वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त आदि इसी ऋषि परंपरा के उत्तराधिकारी थे। उन्होंने ग्रहों की गति, सौरमंडल और खगोल के सिद्धांत प्रतिपादित किए जो आधुनिक खगोल विज्ञान से हजारों वर्ष पहले थे।

समाज और राष्ट्र जीवन में ऋषियों की भूमिका
ऋषि केवल ग्रंथकार नहीं थे। वे समाज और राष्ट्र जीवन के निर्माता भी थे। आचार्य चाणक्य ने राजनीति और अर्थशास्त्र के सिद्धांत गढ़कर भारतीय साम्राज्य को सुदृढ़ किया। वशिष्ठ और विश्वामित्र जैसे ऋषि राजाओं के मार्गदर्शक बने। आदि शंकराचार्य ने देश भर में चार मठों की स्थापना कर सांस्कृतिक एकता का सूत्रपात किया।

ऋषि परंपरा का आधुनिक संदेश
आज का समाज भौतिकवाद, उपभोक्तावाद और हिंसा की चपेट में है। ऋषि परंपरा हमें बताती है कि जीवन का उद्देश्य केवल धन और शक्ति नहीं बल्कि आत्मकल्याण और लोककल्याण है। सत्य, अहिंसा, धर्मरक्षा, स्त्री-सम्मान, साधु-संतों और मठ-मंदिरों की रक्षा, समाज का व्यसनमुक्त और शिक्षित होना – यही ऋषियों की शिक्षा है,यदि भारत की वर्तमान पीढ़ी ऋषियों के आदर्शों को अपनाए तो भारत पुनः विश्वगुरु बन सकता है। ऋषि पंचमी हमें यह प्रेरणा देती है कि अपनी सभ्यता और संस्कृति का पुनर्जागरण करें, धर्म और ज्ञान के दीपक को पुनः प्रज्वलित करें और मानवता को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाएँ।

ऋषि परंपरा – तप, ज्ञान और विज्ञान का अमर दीप जो मानवता को अज्ञान से ज्ञान, असत्य से सत्य और अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाता है।

लेखक 
महेन्द्र सिंह भदौरिया 
प्रांत सेवा टोली सदस्य
सहमंत्री साबरमती 
विश्व हिन्दू परिषद उत्तर गुजरात प्रांत 




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