हड़प्पा में तो स्वास्तिक चिन्ह मिला ही मिला किंतु इसका अंकन उस इतिहास में भी दर्ज है जिसे लिखा नही गया, प्रागैतिहासिक काल के बर्तनों पर सनातन धर्म का पवित्र चिन्ह प्राप्त होता है। इस बार प्रमाण के साथ भारतीय पुरातत्व विभाग की उस रपट की एक तस्वीर लगा रहा हूं जिसमें स्वास्तिक की खोज का वर्णन है।
वैदिक लोक परंपरा में स्वास्तिक का प्रयोग मंगल कार्यक्रम के पहले किया जाता है। स्वास्तिक शुभ अस्तित्व का द्योतक है, प्रकाश और ज्ञान के प्राथमिक होने का घोष है।
कार्यक्रम का प्रारंभ स्वास्तिक से होने के कारण यह गणेश का प्रतीक है साथ ही साथ सूर्य के गुणों का प्रतिनिधित्व करता है। ऋग्वेद के अनुसार सूर्य समस्त देव शक्तियों का नाभिक है, वह पृथ्वी तथा अन्तरिक्ष में जीवन प्रदान करने वाला है। स्वस्तिक सूर्य की इहलौकिक प्रतिमा है, उसकी चार भुजाएं चार दिशाएं हैं। ऋग्वेद स्वस्तिक के देवता के रूप सवृन्त का उल्लेख करता है जो मनोवांछित फलदाता, सम्पूर्ण जगत का कल्याण करने और देवताओं को अमरत्व प्रदान करने वाला है।
स्वास्तिक का प्रसार प्रत्येक सभ्यता और संस्कृति में देखा जा सकता है। भगवान बुद्ध के पद कमल के रूप में, भगवान महावीर के चिन्ह के रूप में और जैन परम्परा की चार गतियों नरक, त्रियंच, मनुष्य एवं देव का द्योतक है। यह कहने में भी कोई हर्ज नहीं कि पवित्र क्रॉस स्वास्तिक का ही एक स्वरूप है।
स्वास्तिक के सिंधु घाटी और उससे पहले के समयकाल से प्राप्त होने से धर्म की वह कड़ी मिलती है जो सनातन धर्म की परंपरा को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी से जोड़ती है, हजारों हजार साल पहले जोड़ती थी और आज भी वह हमारे धर्म में व्याप्त है। स्वास्तिक हमारी सांस्कृतिक निरंतरता का उद्घोष है।
स्वास्तिक के अलावा यज्ञ वेदियां भी मिली है सिंधु सरस्वती सभ्यता के स्थलों से। अभी गंगा यमुना दोआब के पुरातात्विक स्थलों का पर्याप्त वैज्ञानिक उत्खनन नही हो पाया है। सिनौली, बरनावा, हस्तिनापुर के स्थलों का दीर्घकालीन उत्खनन और इस्सोपुर टीले का भी पुरातात्विक उत्तखनन किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त गंगा और शारदा के मध्य सेटेलाइट इमेजरी के द्वारा पुरातात्विक स्थलों का पता लगाकर उनका विस्तृत उत्खनन किया जाना चाहिए। परिणाम हमारी वर्तमान इतिहास की जानकारी को सदैव के लिए बदल देंगे।
पुनः दोहराऊंगा, भारत का अर्थ प्रकाशित है, भारत का प्रकाश सम्पूर्ण विश्व को प्रकाशित कर रहा है।
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