“सनातन की आत्मा, अलग नहीं — अभिन्न हैं: अनुसूचित जातियों की गौरवगाथा”

“सनातन की आत्मा, अलग नहीं — अभिन्न हैं: अनुसूचित जातियों की गौरवगाथा” 



 जब इतिहास को सत्य की दृष्टि से देखें, तो भेद नहीं, केवल भारत की आत्मा दिखाई देती है।

भारतीय समाज को तोड़ने के लिए विदेशी शक्तियों द्वारा रची गई सबसे बड़ी साजिश जातिवाद के नाम पर सनातन समाज को विभाजित करने की रही है। यह प्रचार किया गया कि सनातन व्यवस्था में शोषण और उत्पीड़न हुआ, जबकि सत्य यह है कि भारतीय संस्कृति की मूल आत्मा ही समभाव, समरसता और सबके कल्याण में निहित रही है। सनातन धर्म में कोई जातिगत उत्पीड़न नहीं था, बल्कि प्रत्येक वर्ग समाज के अंग की भांति था। कोई पराया नहीं था, कोई नीचा नहीं था, सबके कर्म अलग-अलग थे, किंतु उद्देश्य एक ही था – धर्म, सेवा और राष्ट्र की उन्नति।

शबरी एक वनवासी महिला थीं, जिन्होंने अपने तप, भक्ति और प्रेम से प्रभु श्रीराम को अपने झूठे बेर खिलाकर भी प्रसन्न कर लिया। निषादराज गुह एक निषाद थे, लेकिन भगवान राम के अत्यंत निकटतम और आत्मीय मित्र थे। महर्षि वाल्मीकि प्रारंभ में शिकारी थे, किंतु अपने आत्मबोध से आदिकवि बन गए और रामायण जैसे महाकाव्य की रचना की। संत रविदास एक चर्मकार कुल में जन्मे, लेकिन उनकी भक्ति, विचार और दृष्टिकोण ने राजमहलों को भी झुका दिया। उन्होंने समाज को समरसता और कर्मवाद का मार्ग दिखाया।

यह दुर्भाग्य है कि ऐसे महान उदाहरणों की उपेक्षा कर, विदेशियों ने भारत को एक जातीय अत्याचार प्रधान भूमि के रूप में प्रचारित किया। अंग्रेजों ने 1901 से जातिगत जनगणना शुरू की, जिससे भारतीय समाज को स्थायी जातियों में बाँटकर तोड़ा जा सके। ईसाई मिशनरियों ने दलित समुदाय को “शोषित” कहकर ईसाई धर्म में परिवर्तित करने के प्रयास किए। इस्लामिक प्रचारकों ने ‘बराबरी’ का झूठा नारा देकर मतांतरण को गति दी। वामपंथी विचारकों ने इन विदेशी साजिशों को बौद्धिक संरक्षण प्रदान किया और पीढ़ियों तक हिन्दू समाज को आत्महीनता का पाठ पढ़ाया।

आज जब हम अनुसूचित जातियों की बात करते हैं, तो यह नहीं भूलना चाहिए कि वे सनातन की आत्मा हैं। उन्होंने भारत की संस्कृति, समाज, धर्म और रक्षा में अभूतपूर्व योगदान दिया है। इन्हें अलग बताना, शोषित सिद्ध करना, या केवल लाभार्थी वर्ग के रूप में देखना, यह उसी दुष्प्रचार का हिस्सा है जिसे विदेशी शक्तियों ने आरंभ किया। अनुसूचित जातियाँ भारत के हर मंदिर, हर आन्दोलन, हर युद्ध, हर सेवा और हर संघर्ष में अग्रिम पंक्ति में रही हैं।

इसलिए आवश्यक है कि हम 'सब एक' के भाव को फिर से जागृत करें। समाज के सभी वर्गों को एक मंच पर लाकर उन्हें आत्मगौरव, सांस्कृतिक गर्व और सनातन परंपरा से जोड़ा जाए। संत रविदास जयंती, वाल्मीकि जयंती, और अन्य महापुरुषों के पर्व समाज के सभी वर्गों के साथ मिलकर भव्यता से मनाए जाएं। गाँव-गाँव समरसता भोज हो, जिसमें कोई ऊँच-नीच नहीं, केवल राष्ट्र और संस्कृति की भावना हो। विद्यालयों में समरसता का पाठ पढ़ाया जाए, और आरक्षण जैसे उपाय केवल सहायता के लिए हों, न कि अलगाववाद को बढ़ावा देने हेतु।

अनुसूचित जातियाँ शोषित नहीं, पूजित हैं। वे सनातन की चेतना हैं। भारत को पुनः विश्वगुरु बनाना है तो इन्हें साथ लेकर, गर्वपूर्वक, एकात्म भाव से चलना होगा। यही संगठन का ध्येय है, यही राष्ट्र का पथ है, और यही सनातन की विजय का आधार है।
लेखक 
महेन्द्र सिंह भदौरिया 
(राष्ट्रीय विचारक सामाजिक कार्यकर्ता)
प्रांत सेवा टोली सदस्य 
विश्व हिन्दू परिषद उत्तर गुजरात
जिला सहमंत्री साबरमती जिला

टिप्पणियाँ

  1. समरसता के भाव का बहुत सुंदर चित्रण किया आपने काश यह विचार हमारे सभी सनातनी भाई बहन करे एवं इसका आत्मचिंतन करे ओर व्यवहार में उतारे, जय श्री राम भाईसाहब

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