व्यक्ति निर्माण से राष्ट्र निर्माण: संघ की दूरदृष्टि

भारत का स्वतंत्रता आंदोलन केवल सत्ता परिवर्तन का उपक्रम नहीं था। यह उस अखंड भारत की पुनर्स्थापना का संघर्ष था, जिसकी सांस्कृतिक चेतना अद्वितीय और सनातन मूल्यों में रची-बसी थी। 1857 से 1947 तक की समूची यात्रा में कहीं भी यह विचार नहीं था कि स्वतंत्रता का परिणाम विभाजन होगा। किन्तु इतिहास ने वह घड़ी देखी जब मुस्लिम लीग के अलगाववादी स्वर को नेहरू और गांधी जैसे कांग्रेस नेतृत्व ने प्रतिरोध करने की बजाय स्वीकार कर लिया। परिणामस्वरूप, भारत की 24 प्रतिशत मुस्लिम आबादी के लिए 18 प्रतिशत भूभाग काटकर पाकिस्तान को सौंप दिया गया। यह केवल राजनीतिक भूल नहीं, बल्कि भारतीय आत्मा पर गहरी चोट थी। वह विचार—ग़ज़वा-ए-हिंद—जिसे मराठा साम्राज्य के अजेय योद्धा श्रीमंत बाजीराव पेशवा  जी परास्त कर मिटा दिया था, वह पुनः जीवित हो उठा और राष्ट्र को स्थायी संकट का उत्तराधिकार मिला।

इन्हीं परिस्थितियों में 1925 में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। संघ का ध्येय केवल राजनीतिक स्वतंत्रता तक सीमित नहीं था। उनका स्पष्ट विश्वास था कि भारत तभी सुरक्षित रहेगा जब हिंदू समाज संगठित, आत्मविश्वासी और जाग्रत बनेगा। इसलिए संघ ने स्वतंत्रता संग्राम का सीधा अंग बनने की बजाय “व्यक्ति निर्माण से राष्ट्र निर्माण” का मार्ग चुना।

संघ पर प्रायः आरोप लगाया जाता है कि उसने स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भूमिका नहीं निभाई। यह आधा सत्य है। संगठन का जन्म ही इस विश्वास से हुआ था कि राजनीतिक स्वतंत्रता केवल पहला चरण है, असली प्रश्न यह है कि भारत फिर कभी गुलाम न बने। संघ का कार्य था समाज को संगठित करना, राष्ट्र की आत्मा को शक्ति देना। और यह योगदान स्वतंत्रता जितना ही महत्वपूर्ण था।

किन्तु स्वतंत्रता के उपरांत भारत जिस पथ पर चला, वह अनेक बार भ्रमित और राष्ट्रविरोधी सिद्ध हुआ। नेहरू ने पश्चिमी साम्यवाद और सोवियत समाजवाद से प्रेरित होकर संविधान की प्रस्तावना में समाजवाद आरोपित कर दिया। शिक्षा और अकादमिक जगत वामपंथियों को सौंपा गया। इतिहास लेखन को इस्लामी और वामपंथी दृष्टिकोणों से विकृत किया गया। सिनेमा और मीडिया पर भी वही प्रभाव हावी हुआ। परिवार जैसी मूल संस्था पर प्रहार हुआ, जाति और भाषा के नाम पर समाज को विभाजित किया गया और मुस्लिम तुष्टिकरण स्थायी राजनीति का हिस्सा बन गया।

कल्चरल मार्क्सवाद के माध्यम से यह षड्यंत्र और भी गहराया। यह पश्चिमी विचारधारा भारत में इस रूप में लागू की गई कि धर्म, संस्कृति और परंपरा को पिछड़ा और शोषक घोषित किया जाए। पहचान की राजनीति—कभी जाति के नाम पर, कभी क्षेत्र और कभी लिंग के नाम पर—समाज को बांटने लगी। परिवार संस्था को पुराना और अप्रासंगिक ठहराने का प्रयास हुआ। और इसके समानांतर हिन्दू समाज पर अपराधबोध थोपने का एक और षड्यंत्र गढ़ा गया—“हिंदू आतंकवाद” की थ्योरी।

यह थ्योरी किसी तथ्य पर आधारित नहीं थी, बल्कि एक राजनीतिक और वैचारिक निर्माण था। उद्देश्य केवल एक था—विश्व मंच पर हिन्दू पहचान को संदेहास्पद बनाना और भारत के भीतर हिन्दू समाज को अपनी आस्था और परंपरा पर ही शर्मिंदा करना। आतंकवाद, जो स्पष्ट रूप से जिहादी और वामपंथी विचारधाराओं से उपजा था, उसका बोझ भी हिन्दुओं के कंधों पर डालने का प्रयास किया गया। यह राष्ट्र की आत्मा पर आघात था।

परिणाम सामने आया—1990 में भारत आर्थिक संकट से टूटा और IMF के सामने झुकना पड़ा। संविधान की प्रस्तावना में अंकित समाजवाद व्यावहारिक धरातल पर असफल सिद्ध हो चुका था। इसी बीच इंदिरा, राजीव और सोनिया गांधी के नेतृत्वकाल में तुष्टिकरण, कल्चरल मार्क्सवाद और वामपंथी वर्चस्व ने राष्ट्र की जड़ों को और खोखला किया।

किन्तु इन सबके बीच संघ निरंतर समाज को स्मरण कराता रहा कि विभाजन कोई अंतिम सत्य नहीं है। हर वर्ष 14 अगस्त को संघ द्वारा मनाया जाने वाला अखंड भारत संकल्प दिवस इस स्मृति को जीवित रखता है। संघ आज भी हिंदू समाज को संगठित करने, चुनौतियों से जूझने और राष्ट्र की आत्मा को सुरक्षित रखने के पथ पर अग्रसर है।

सत्य यही है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का जन्म स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के लिए नहीं हुआ था। उसका ध्येय कहीं बड़ा और दूरदर्शी था—भारत को भविष्य में पुनः गुलाम न होने देना और सनातन धर्म की रक्षा करना। नेहरू से लेकर सोनिया गांधी तक का नेतृत्व जिस कल्चरल मार्क्सवाद और तुष्टिकरण को बढ़ावा देता रहा, उसी ने आज समाज को विभाजित और कमजोर किया है। किंतु संघ का कार्य आज भी निरंतर चल रहा है—व्यक्ति निर्माण से राष्ट्र निर्माण की यात्रा, अखंड भारत के संकल्प की ओर अग्रसर।

✍️Deepak Kumar Dwivedi

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