स्वबोध : आत्मजागरण से राष्ट्रजागरण का पथ

स्वबोध : आत्मजागरण से राष्ट्रजागरण का पथ 
स्वबोध ही राष्ट्रबोध – स्व की पहचान ही शक्ति है, यही सनातन समाज की आत्मा है और यही भारत के पुनरुत्थान का मार्ग है

स्वबोध का अर्थ है स्वयं को जानना, अपनी जड़ों को पहचानना, अपनी संस्कृति और अपने धर्म को समझना तथा अपने कर्तव्य का बोध करना। यह केवल आत्मज्ञान का विषय नहीं है बल्कि जीवन की संपूर्ण दिशा का आधार है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पंच प्रणों में स्वबोध को प्रथम स्थान दिया गया है और विश्व हिन्दू परिषद के पाँच परिवर्तनों में भी इसे ही मूलाधार माना गया है, क्योंकि जब तक व्यक्ति स्वयं को नहीं पहचानता तब तक परिवार, समाज और राष्ट्र भी अपने वास्तविक स्वरूप को नहीं पहचान सकता।

सनातन समाज के लिए स्वबोध का अर्थ बहुत व्यापक है। यह केवल “मैं कौन हूँ” का प्रश्न नहीं बल्कि यह भी समझना है कि मैं किस परंपरा का उत्तराधिकारी हूँ और मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है। स्वबोध हमें याद दिलाता है कि हम उस परंपरा से आए हैं जिसने वेद और उपनिषद दिए, गीता का संदेश दिया, राम और कृष्ण के आदर्श दिए, बुद्ध और महावीर की करुणा दी, शिवाजी, महाराणा और गुरुनानक की वीरता और त्याग दिया। इस सबके बावजूद यदि आज हम आत्महीनता से ग्रस्त हैं तो इसका कारण केवल स्वबोध का अभाव है।

 यह केवल व्यवहारिक बातें नहीं बल्कि हमारी अस्मिता और अस्तित्व की नींव हैं। जब हम अपनी मातृभाषा में बोलते हैं तो हमारे भीतर सहजता और आत्मीयता का प्रवाह होता है, जब हम अपने परंपरागत भोजन को अपनाते हैं तो हम केवल शरीर को स्वस्थ नहीं रखते बल्कि धरती और कृषि से भी जुड़े रहते हैं, जब हम अपनी संस्कृति को गर्व से जीते हैं तो हमें आधुनिकता भी हमारी जड़ों से काट नहीं सकती और जब हम स्वदेशी अपनाते हैं तो हम केवल वस्तुएँ नहीं खरीदते बल्कि अपने समाज और राष्ट्र की शक्ति को भी बढ़ाते हैं।

स्वबोध का विस्तार केवल भाषा, भोजन, संस्कृति और स्वदेशी तक सीमित नहीं है। सनातन समाज को अनेक बोध आवश्यक हैं। धर्मबोध अर्थात यह समझ कि धर्म केवल पूजा पद्धति नहीं बल्कि जीवन को सत्य, करुणा, त्याग और सेवा से जोड़ने का नाम है। इतिहासबोध अर्थात यह स्मरण कि हमारे पूर्वजों ने किस तरह आक्रमणों और संघर्षों में अपने धर्म और संस्कृति की रक्षा की, और इस विरासत को आगे ले जाना हमारा कर्तव्य है। भू–बोध अर्थात यह पहचान कि यह भूमि केवल जमीन का टुकड़ा नहीं बल्कि हमारी माता है जिसे हम भारत माता कहते हैं और जिसके कण–कण में ऋषि–मुनियों की तपस्या और बलिदान की गाथा है। संस्कृतिबोध अर्थात यह चेतना कि हमारी परंपराएँ, उत्सव, त्यौहार, कला और संगीत केवल मनोरंजन के साधन नहीं बल्कि आत्मा और समाज को जोड़ने वाले सूत्र हैं।
प्रकृति–बोध अर्थात यह समझ कि पेड़, पौधे, नदियाँ, पर्वत और पशु केवल संसाधन नहीं बल्कि हमारे जीवन का हिस्सा और देवत्व का प्रतीक हैं। कर्तव्यबोध अर्थात यह जागरूकता कि प्रत्येक व्यक्ति का दायित्व है कि वह अपने परिवार, समाज और राष्ट्र के लिए कुछ करे।

जब समाज इन सब बोधों से जागृत होता है तो उसमें समरसता और एकता का संचार होता है। परिवार में त्यौहार संस्कार का अवसर बनते हैं, समाज में जाति और वर्ग का भेद मिट जाता है, कार्यक्षेत्र में स्वदेशी दृष्टि और मौलिकता बढ़ती है, शिक्षा में आत्मगौरव और भारतीय ज्ञान परंपरा का पुनर्जागरण होता है और राष्ट्र आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ता है। स्वबोध केवल व्यक्ति की साधना नहीं बल्कि सामूहिक चेतना का निर्माण है।

अंततः स्वबोध ही वह पहला कदम है जो हमें राष्ट्रबोध की ओर ले जाता है। जब तक व्यक्ति स्वयं को नहीं पहचानेगा, तब तक परिवार जागृत नहीं होगा। जब परिवार नहीं जागेगा तो समाज नहीं जागेगा और जब समाज नहीं जागेगा तो राष्ट्र भी निष्क्रिय रहेगा। इसलिए आवश्यक है कि सनातन समाज स्व भाषा, स्व भोजन, स्व संस्कृति, स्वदेशी, धर्मबोध, इतिहासबोध, भू–बोध, संस्कृतिबोध, प्रकृति–बोध और कर्तव्यबोध को जीवन का अंग बनाए। यही आत्मजागरण भारत को पुनः विश्वगुरु बनाएगा।

स्वबोध ही राष्ट्रबोध – स्व की पहचान ही शक्ति है, यही सनातन समाज की आत्मा है और यही भारत के पुनरुत्थान का मार्ग है। 
लेखक
महेन्द्र सिंह भदौरिया 
प्रांत सेवा टोली सदस्य 
सहमंत्री साबरमती
विश्व हिन्दू परिषद उत्तर गुजरात प्रांत 

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