धर्मेण जयति राष्ट्रम् - 9



( धर्मो विश्वस्य जगत: प्रतिष्ठा )

-डॉ. नितिन सहारिया ,महाकौशल

                       'धर्म' की शक्ति महान है। इससे भी अधिक महान वे लोग हैं जो वास्तविक धर्म को समझ कर तदनुसार व्यवहार करते हैं। 'धर्म ' का वास्तविक अर्थ होता है ' कर्तव्यपरायणता ' । व्यक्ति का स्वयं के प्रति ,परिवार के प्रति, देश व समाज की प्रति यहां तक की मानव मात्र या प्राणी मात्र के प्रति क्या कर्तव्य है ? उन्हें पूरा करना क्यों आवश्यक है ? इसकी व्याख्या- विवेचना करने वाले को एक शब्द में ' धर्म ' के नाम से कहा जाता है। शास्त्रों में इसी धर्म की महत्ता यत्र- तत्र सदैव प्रतिपादित की गई है - 

एक एव सुह्द्वर्मो निधनेस्प्यनुयाति य:।
शरीरेण सम्ं नाशं सर्वमन्यद्दि गच्छति ।।
                                      - मनुस्मृति 

अर्थात - 'धर्म' ही एक मात्र मित्र है ,जो मरने पर भी साथ जाता है और सब तो शरीर के साथ ही नष्ट हो जाता है।

धर्म कामदुधा: धेनु सन्तोषो नन्दनं वनम्।
विधा मोक्षकरी प्रोत्ता तृष्णा वैतरर्णी नदी।।

             अर्थात- 'धर्म' ही कामधेनु के समान संपूर्ण अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाला है , संतोष ही स्वर्ग का नंदनवन है , विद्या (ज्ञान) ही मोक्ष की जननी है और तृष्णा वैतरणी नदी के समान नरक में ले जाने वाली है।

धर्मादर्थ: प्रभवति धर्मात पृभवते सुखम्।
धर्मेण लभते सर्व्ं धर्मसारमिद्ं जगत् ।।

                अर्थात- 'धर्म' से अर्थ उत्पन्न ( प्राप्त) होता है , 'धर्म' से सुख प्राप्त होता है, 'धर्म' से ही सब कुछ प्राप्त होता है, धर्म ही इस संसार का सार तत्व है। 

          रामायण में प्रसंग आता है कि नर लीला करते हुए जब भगवान राम को अपनी सुरक्षा के विषय में संदेह होता है, तब उन्हें धर्म द्वारा ही रक्षा होने की बात बताई जाती है।

यं पालयसि धर्मं त्वं प्रीत्या च नियमेन च।
स वै राघवशादूर्ल धर्म्स्त्वामभिरक्षतु ।।
        (-वाल्मीकि रामायण- अयोध्या कां ) 

अर्थात- हे राघव! (राम) तुम्हारी सुरक्षा के लिए मैं क्या करूं ? निश्चित रूप से केवल धर्म ही तुम्हारी रक्षा करेगा। तुम जिस धर्म का धैर्य और नियम के साथ पालन करते आए हो , वही धर्म तुम्हारी रक्षा करेगा ।
 वास्तव में इस समस्त विश्व की प्रतिष्ठा (स्थिति) धर्म से ही है। 

धर्मों विस्वस्य जगत: प्रतिष्ठा लोके धर्मिष्ठ्ंं प्रजा उपसर्पपंति ।
धर्मेण पापमपनुदंति धर्मे सर्व्ं प्रतिष्ठतम्ं तस्मादद्वर्म परम्ं वदन्ति ।।
                          ( - नारायणौपनिषद् )

अर्थात - 'धर्म' ही संपूर्ण विश्व को प्रतिष्ठित एवं स्थिर करने वाला है। धर्मिष्ट (धार्मिक ) के पास ही प्रजाजन जाते हैं। धर्म से ही पाप दूर होता है । धर्म से सबकी प्रतिष्ठा (स्थिरता या सत्ता ) है, इसी कारण 'धर्म' को सबसे बड़ा (श्रेष्ठ) कहा गया है।

इसीलिए वेद- शास्त्रों में ' सनातन धर्म ' को ही विश्व -ब्रह्मांड का एक मात्र धर्म बतलाया गया है। जिसे Eternal law of Universe ब्रह्मांड का शाश्वत नियम (धर्म) पुकारा गया है। सनातन धर्म संपूर्ण मनुष्य जाति के लिए बनाया गया है , चूंकि इसका प्रादुर्भाव भारत में हुआ इसलिए इसके साथ भारत - भारतीय शब्द जुड़ा हुआ है किन्तु यह वैश्विक Global है । प्राचीन काल में संपूर्ण धरती पर यही सनातन धर्म व्याप्त था;जिसके अवशेष - साक्ष्य Evidence सातों दीपों पर आज प्राप्त हो रहे हैं।

 मृत शरीरमुत्सृज्य काष्ठलोष्ठ समक्षितौ।
विमुखा बान्धवा: यान्ति धर्मस्तमनुगच्छति ।। 
तस्माद्वर्म्ं सहायार्थ ,संचिनुयाच्छनै: ।
धर्मेण हि सहायेन तमस्तरति दुस्तरम् ।।

              अर्थात - मनुष्य के मर जाने पर घर परिवार के लोग लकड़ी और मिट्टी के ढेर के सामान फेंक कर चले आते हैं, धर्म ही केवल उसके साथ जाता है। धर्म की सहायता से निश्चित रूप से मनुष्य अपने दुस्तर अंधकार (अज्ञानांधकार ) को पार कर लेता है ,अतः अपनी सहायतार्थ मनुष्य को धीरे-धीरे धर्म संचय करना अत्यावश्यक है।
               'धर्म' की इस महिमा को देखते हुए जीवन में इसकी अनिवार्यता स्वत: सिद्ध हो जाती है। हमें धर्म के वास्तविक रूप को समझने का प्रयास करना चाहिए और तदनुसार अपने आचार- व्यवहार में इसका समावेश करना चाहिए । कर्म को पूजा समझकर , उसे पूरा करने वाले व्यक्ति का प्रत्येक क्रिया-कलाप धर्म सम्मत ही माना जाएगा । इस प्रकार की ' कर्तव्यपरायण्ता' से युक्त व्यक्ति ही समाज में सम्माननीय और अभिनंदनीय बनते हैं । उन्हीं की यशगाथा - कीर्ति संसार में प्रसिद्ध होती है।
क्रमशः ........

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