बहुत समय से यह बात मेरे अंतर्मन में मंथन की तरह उठती रही है—कि हमारे परिवेश में जो कुछ बदला है, वह केवल वस्त्रों, तकनीक या भाषा तक सीमित नहीं रहा। यह परिवर्तन जीवन की धारणाओं, आचरण और मूल्यों तक पहुँच चुका है। एक समय था जब मंच से कहा जाता— “विवाह एक संस्कार है”, और श्रोता श्रद्धा से सिर झुकाते थे। आज यदि कोई युवती वहीँ कहे— “I don't believe in marriage. I am a spiritual feminist.”, तो सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठता है।
मैं चुप रहा... पर भीतर कुछ दरक गया।
अब विवाह पर विश्वास न करना केवल वैचारिक असहमति नहीं, बल्कि 'फैशन स्टेटमेंट' बन चुका है। वहीं स्पिरिचुअल फेमिनिज़्म अब साधना नहीं, पारिवारिक मूल्यों को नकारने का एक ‘ट्रेंडी’ औजार बन गया है।
विचार कीजिए—जिस समाज ने हजारों वर्षों तक स्त्री को ‘गृहलक्ष्मी’, ‘धारिणी’ और ‘शक्ति’ के रूप में पूजा, वहाँ विवाह केवल सामाजिक संस्था नहीं था, वह आत्मिक एकात्मता की यात्रा होती थी। और आज वही विवाह ‘शोषण का उपकरण’ कहलाने लगा है। ऐसा क्यों हुआ?
यह कोई क्षणिक विचलन नहीं, बल्कि एक दीर्घकालिक और सतत वैचारिक हस्तक्षेप का परिणाम है। यह जो कुछ आज हमें Pop Culture के रूप में दिखता है, वह वस्तुतः Cultural Marxism की छाया है—एक ऐसी रणनीतिक धारा, जो हमें हमारी जड़ों से काट रही है और एक कृत्रिम 'चेतना' स्थापित कर रही है, जहाँ पितृत्व दोष है, धर्म पिछड़ापन है, विवाह बंधन है, परिवार शोषण का अड्डा है और मातृत्व गुलामी।
शायद यह सब एक षड्यंत्र की तरह प्रतीत हो... पर क्या यह संयोग है कि हर तीसरी वेब सीरीज़ में हिन्दू साधु आतंकवादी दिखता है?
क्या यह महज़ ‘रचनात्मकता’ है कि हमारे देवताओं के चित्रों पर सिगरेट, शराब या LGBTQ प्रतीक चिपका दिए जाते हैं?
हमारे त्योहारों को 'polluting', 'toxic', 'violent to animals' कहा जाता है—होली हो या दीवाली, हर जगह सुधार का ठप्पा लगाया जाता है। किंतु क्रिसमस या रमज़ान पर यह विमर्श मौन क्यों हो जाता है?
मैं यह नहीं कहता कि अन्य मत या धर्म ग़लत हैं—पर क्या हमारी संस्कृति को ही बार-बार कटघरे में खड़ा करना ही 'प्रगतिशीलता' है?
आज एक हिंदू युवक मंदिर जाते हुए झिझकता है—उसे डर होता है कि कोई उसे 'भक्त', 'सांघी' या 'रूढ़िवादी' न कह दे। पर वही युवक आत्मविश्वास से rainbow flag वाली डीपी लगा सकता है, 'Jesus is my saviour' लिख सकता है या ‘अल्लाह हू अकबर’ का उद्घोष कर सकता है—और यह सब cool माना जाता है।
हम यह नहीं समझ पाए कि यह जो रील्स, मीम्स और सीरीज़ हम हँसी में देखते हैं, वह धीरे-धीरे हमारी चेतना को reprogram कर रही हैं।
हमारा बचपन जहाँ दादी-नानी की कहानियों से भरा था, आज वहाँ बच्चों का “first god” Superman बन चुका है।
हमारी माताएँ तुलसी-दल से पूजा करती थीं—अब उनकी बेटियाँ sage-smudge sticks से “energies cleanse” करती हैं।
हमने अपनी परंपराएँ त्यागी नहीं हैं—हमसे उन्हें मनोरंजन और प्रगतिशीलता के नाम पर चुपचाप छीना जा रहा है।
और सबसे दुःखद यह कि जो युवा अपने धर्म, देवी-देवताओं, और परिवार के पक्ष में बोलते हैं, उन्हें तुरंत “toxic masculinity”, “right-wing fanatic”, या “brahminical bigot” कहकर चुप करा दिया जाता है।
यह सब अब केवल किताबों तक सीमित नहीं रहा—यह सब कुछ मोबाइल स्क्रीन पर, नेटफ्लिक्स की सीरीज़, इंस्टाग्राम की रील्स, कॉमिक्स और गीतों में छुपा हुआ है।
कोई कह सकता है—क्या यह केवल मनोरंजन नहीं?
पर नहीं—यह मनोरंजन के आवरण में विचार का हस्तक्षेप है।
कभी-कभी एक डायलॉग, एक दृश्य या एक मीम—इतना गहरा प्रभाव छोड़ता है कि वह हमारी वर्षों पुरानी परंपरा, श्रद्धा और नैतिकता पर प्रश्नचिह्न लगा देता है।
उदाहरण देखिए—नेटफ्लिक्स की सेक्रेड गेम्स में ब्राह्मण पात्र ‘गणेश गायतोंडे’ को एक अपराधी और आतंकवादी के रूप में दिखाया गया। उसका गुरु एक अध्यात्मिक बाबा है, जो वास्तव में विध्वंसक षड्यंत्र रचता है। क्या कभी इतनी ही निर्ममता से किसी मौलवी, पादरी या बिशप को चित्रित किया गया है? शायद नहीं।
क्यों?
क्योंकि वहाँ ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ सीमित कर दी जाती है—जहाँ ब्लासफेमी और इस्लामोफोबिया जैसे शब्दों की आड़ में अभिव्यक्ति पर अंकुश लग जाता है। पर हिंदू प्रतीकों का अपमान—artistic freedom कहलाता है।
‘Leila’ नामक सीरीज़ में एक हिंदू राष्ट्र का भविष्य दिखाया गया, जहाँ जातिवाद, पर्दा-प्रथा और धार्मिक हिंसा व्याप्त है। यह कोई कल्पना नहीं—यह एक वैचारिक हमला है।
काली माँ का वह विवादास्पद पोस्टर क्या भूल गए?
जिसमें माँ के हाथ में सिगरेट थमा दी गई थी और पृष्ठभूमि में LGBTQ ध्वज लहराया गया था—इसे 'नारी-मुक्ति' का प्रतीक कहा गया। क्या ऐसा प्रयोग किसी अन्य धर्म के प्रतीकों के साथ संभव है? यदि नहीं, तो हिंदू देवी-देवताओं के साथ ऐसा क्यों?
यह विचारधारा, जो हमारे मनोरंजन के पीछे छिपी है, सबसे ख़तरनाक इसलिए है क्योंकि यह हमें धीरे-धीरे, बिना शोर किए, आत्मविस्मृति की ओर ले जा रही है।
आज हमारी बेटियाँ Valentine's Day को प्रेम का उत्सव मानती हैं—पर करवा चौथ को पितृसत्ता का प्रतीक।
हमारे बेटे रामायण नहीं जानते, पर स्पाइडरमैन के multiverse से परिचित हैं।
हमारे घरों में अब गीता नहीं गूँजती, बल्कि Love is Love, My choice और Gender is fluid जैसे नारे प्रतिध्वनित होते हैं।
यह सब अचानक नहीं हुआ—यह एक दीर्घ वैचारिक प्रक्षेपण का परिणाम है।
आज पॉप-कल्चर केवल फैशन नहीं—एक वैचारिक औजार बन चुका है।
पश्चिमी विश्वविद्यालयों में फेमिनिज़्म, क्वीयर थ्योरी, क्रिटिकल रेस थ्योरी और पोस्ट-कोलोनियल स्टडीज़ के नाम पर भारतीय संस्कृति को जातिवादी, ब्राह्मणवादी, पितृसत्तात्मक और रूढ़िवादी कहकर हमारे युवाओं में अपराधबोध उत्पन्न किया गया है।
और जब कोई समाज स्वयं को अपराधी मानने लगता है—वह अपने गौरव को त्याग देता है।
यही उद्देश्य है इस सांस्कृतिक घुसपैठ का—“तुम्हारा अतीत शर्मनाक है, और तुम्हारा भविष्य तभी उज्ज्वल होगा, जब वह पश्चिम से संचालित होगा।”
तो हमें यह भलीभाँति समझ लेना होगा कि यह कोई सामान्य सांस्कृतिक बहाव नहीं, अपितु एक सुनियोजित वैचारिक घुसपैठ है, जिसका उद्देश्य केवल हमारी परंपराओं का उपहास नहीं, हमारी चेतना का अपहरण है।
यदि हम इसे केवल मनोरंजन, रचनात्मकता, या यथार्थ का चित्रण मानकर नज़रअंदाज़ करते रहे—तो वह दिन दूर नहीं जब हम स्वयं को उसी संस्कृति से अपरिचित पाएँगे, जिसने हमें जन्म दिया, संस्कार दिए और जीवन को अर्थ प्रदान किया।
याद रखिए—विचारों का यह युद्ध शस्त्रों से नहीं, स्क्रीन और स्क्रॉल से लड़ा जा रहा है।
और इसमें हारने का अर्थ केवल सांस्कृतिक पराजय नहीं, अस्तित्व का क्षरण है।
हमें फिर से अपने अतीत को गर्व के साथ देखना होगा, वर्तमान को विवेक से जीना होगा और भविष्य को सजग होकर गढ़ना होगा।
क्योंकि यदि हमारी चेतना जीवित रही, तो संस्कृति शेष रहेगी;
और यदि चेतना मरी, तो सभ्यता केवल एक इतिहास की कथा बनकर रह जाएगी—जिसे हम किसी और की ज़ुबानी सुनेंगे।
✍️दीपक कुमार द्विवेदी
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें