'धर्म 'शब्द का अर्थ है जो धारण किया जाए अथवा जिसका व्यवहार में पालन किया जाए। श्रीमद्भागवत गीता ,हितोपदेश ,मनुस्मृति में 'धर्म' शब्द 'कर्तव्य' का बोधक है। भारतीय संस्कृति में चार पुरुषार्थ बताए गए हैं- धर्म ,अर्थ ,काम, मोक्ष। 'पुरुषार्थ' धर्म का दूसरा अर्थ है। मनुष्य जीवन की पूर्णता चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति से ही होती है। 'अर्थ' और 'काम' व्यक्तिगत जीवन के पुरुषार्थ हैं और 'धर्म' सामाजिक जीवन का पुरुषार्थ है। 'मोक्ष' अर्थात आत्म कल्याण, परमात्म तत्व की प्राप्ति, बंधन मुक्ति, परमशांति । धर्म साधना से आत्म कल्याण- लोक कल्याण दोनों ही सधत्ता है।
जो व्यक्ति दूसरों की सेवा में अपने आप को समर्पित नहीं करता ,जो समाज की चिंता नहीं करता, जो समाज के ऋण को चुकाने के दायित्व का निर्वहन नहीं करता वह सामाजिक ही नहीं है। वह समाज में सम्मान भी नहीं पाता है। केवल मनुष्य में ही यह शक्ति है कि वह दूसरों के हितों को ही अपने हित के समान माने और उनकी पूर्ति के लिए सदा प्रयत्न शील रहे तभी वह अपने समाज धर्म- लोक कल्याण के दायित्व से पूर्ण हो सकेगा। "आत्मवत सर्व भूतेषु " की अवधारणा पूर्ण होगी अत: आत्म कल्याण के साथ लोक कल्याण भी परम आवश्यक है अथवा लोक कल्याण में स्वतः ही 'आत्म कल्याण' होता चला जाता है । "आत्मवत सर्व भूतेषु " लोक कल्याण ही 'मानव धर्म' - 'सनातन धर्म' है। *स्वामी विवेकानंद* ने कहा था - *"समष्टि की जय में जो स्वयं की विजय का मार्ग पा लेता है, उसकी तो सदा विजय ही विजय है।"*
श्रीरामचरितमानस के अनुसार -
परहित सरिस धर्म नहीं भाई ।
पर पीड़ा सम नहीं अधमायी ।।
अर्थात- परहित (परमार्थ ) ही सबसे बड़ा धर्म है और परपीड़ा , लोकव्यथा - विस्व संताप ही सबसे बड़ा अधर्म है।
वर्तमान समाज में कुछ लोग पद, नाम ,कीर्ति कमाने में ही अपने अमूल्य जीवन को बिता रहे हैं और कुछ लोग समाज सुधार या समाज कल्याण के कार्यों में लगे हुए हैं, किंतु मान ,बडाई और प्रतिष्ठा की कामना एवं स्वार्थपर्ता का परित्याग कर समाज कल्याण के लिए कितने लोग काम कर रहे हैं ? श्रीमद्भागवत गीता 16/1 में भगवान श्रीकृष्ण धर्म के संदर्भ मे कहते हैं कि-
" अभयं सत्वसन्शुद्दिर्ज्ञज्ञानयोगव्यव्स्तिथति:।
दानं दमश्च यगश्च स्वाध्यायस्तप आजर्वंम्ं।। "
आर्थात- भय का सदा अभाव, अंतःकरण की शुद्धि, ज्ञान के लिए योग में दृढ़ स्थिति, सात्विक दान, इंद्रियों का दमन, यज्ञ, स्वाध्याय ,कर्तव्य पालन के लिए कष्ट सहना, शरीर ,मन, वाणी की सरलता।
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्याग: शांतिरपैशुनम्।
दया भूतेश्वलोलुप्तत्वं मादर्व्ं हीरचापलम।। -16/2
अर्थात - अहिंसा ,सत्यभाषण, क्रोध न करना ,संसार की कामना का त्याग, अंतःकरण में राग- द्वेषजनित हलचल का न होना, चुगली न करना, प्राणियों पर दया करना, सांसारिक विषयों में न ललचाना, अंतःकरण की कोमलता, अकर्तव्य करने में लज्जा, चपलता का अभाव ।
तेज: क्षमा धृति: शौचमद्रोहो नातिमानिता।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत ।। -16/3
अर्थात- तेज (प्रभाव), क्षमा, धैर्य ,शरीर की शुद्धि ,बैरभाव का न रहना, मान को न चाहना । हे भरतवंशी अर्जुन! ये सभी दैवी संपदा को प्राप्त हुए मनुष्य के लक्षण हैं।
*गीता में 'धर्म' शब्द 'मानव कर्तव्य' का बोधक है।* निष्काम कर्मयोग योग का प्रतीक है। यदि संसार से कर्म /कर्तव्य का भाव उठ जाए तो मानव समाज का जीवित रहना ही संभव नहीं है। तब यह संसार नष्ट हो जाएगा। *आज देश में धर्म (कर्तव्य) भावना का ही लोप / नाश हो रहा है इसीलिए समाज -राष्ट्र पतन की ओर जा रहा है। विश्व मानवता संकट में है।*
इस युग के महान लेखक, अध्यात्म वेत्ता ,वेदमूर्ति, युगऋषि - युगद्रष्टा पं. श्रीराम शर्मा आचार्य धर्म- संस्कृति के बारे में विषद विवेचना करते हुए लिखते हैं कि-
" भारतीय संस्कृति में धर्म और सभ्यता को सर्वथा पृथक रखा गया है। धर्म के 10 लक्षण भगवान मनु ने बताए हैं।
धृति मेधा दमोस्तेयं शौच्ं इंद्रिय निग्रह:।
धी विधा सत्यंक्रोधो: दशक्ं धर्म लक्षणं ।।
योगशास्त्र में उन्हें यम- नियम कहा गया है। सभ्यता में प्रथा परंपरा के प्रचलनो की गणना होती है । *धर्म शाश्वत है अर्थात व्यक्तिक और सामाजिक सदाचार की आधार मूल सिद्धांत सनातन हैं । प्रथा -परंपराएं सामयिक हैं ।* स्मृतिकार समयानुसार उनमें हेर फेर करते रहे हैं । यह परिवर्तन प्रचलन आवश्यकतानुसार सदा ही होता रहेगा। धर्म और सभ्यता को अन्य धर्मानुयायी अंतरंग उद्देश्य एक ही है। वह है व्यक्तित्वों को उत्कृष्टतम स्थिति तक पहुंचाने और उसे लोकमंगल के लिए आधिकारिक त्याग बलिदान करने के लिए प्रशिक्षित करना।
भारत में जब उसकी महान संस्कृति को व्यावहारिक रूप में अपनाया जाता था, तब यहां का प्रत्येक परिवार नररत्नों की खदान था। महामानवों का मूल्य करोड़ रूपयो की लागत से बनने वाले उद्योग प्रतिष्ठानों की अपेक्षा कहीं अधिक होता है। *कोई देश धन- संपत्ति के आधार पर विकास मान नहीं मान लिया जाता, उसका असली बल तो राष्ट्रीय चरित्र और महामानवों का बाहुल्य ही होता है।*
आज आदर्श कहने सुनने भर की वस्तु रह गई है। उसका उपयोग कथा प्रवचनों और स्वाध्याय सत्संगों तक ही सीमित है, व्यवहार में उतारने की आवश्यकता नहीं समझी जाती और जीवन सिद्धांत के रूप में उसे नहीं अपनाया जाता है। इस विश्व संस्कृति का सृजनकर्ता भारत फिर आज उन लाभों से वंचित हो रहा है जो प्राचीन काल में उसे व्यवहार में उतारने वाले हमारे महान पूर्वजों द्वारा उठाए जाते रहे। आदर्श की दुहाई देने और प्रश्नों की लकीर पीटने से कुछ बनता नहीं,इन दिनों वैसा ही हो रहा है अस्तु *दीपक तले अंधेरा होने जैसी उपहासास्पद स्थिति बन रही है।*
औषधि का माहात्म्य बताने या उसकी शीशी पूजने से तो रोग दूर नहीं होता। लाभ उठाना हो तो उसका सेवन किया जाना चाहिए। *आवश्यकता इस बात की है कि सांस्कृतिक आदर्श को व्यवहारिक जीवन में प्रवेश मिले, तत्वज्ञान को आस्थाओं में सम्मिलित किया जाए और उसे कार्य पद्धति में उतरने दिया जाए।* यही तो उसका प्रयोजन है। यदि भारतवासी या अन्य *किसी देश के निवासी इस सांस्कृतिक आदर्शवादिता को अपना सकें तो वे देखेंगे कि व्यक्ति और समाज की सर्वतोमुखी प्रगति की दिशा में अग्रसर करने की कितनी संभावनाएं विद्वमान हैं।* प्रयोग न करने पर लाभ न मिले तो इसका दोष औषधि पर कहां आता है ?
कुल मिलाकर भारतीय संस्कृति की व्याख्या विवेचना करने वाली आध्यात्मिक एवं धार्मिक मान्यताएं जनसाधारण को अधिक आदर्शवादी ,अधिक पवित्र और अधिक लोकोपयोगी बनने की ओर ही अग्रसर करती हैं। भारतीय संस्कृति की तुलना अमृत वर्षा से की जाती है, वह जहां भी गिरेंगी वहीं नैयनाभिराम जीवन दायिनी हरीतिमा उत्पन्न करती रहेगी। "
आज भारत के सनातन धर्म पर चारों ओर से आसुरी शक्तियों का सांस्कृतिक आक्रमण हो रहा है। अंधेरे की शक्तियां ( किलबिष ) संपूर्ण विश्व पर अपना आधिपत्य जमाना चाहती हैं अथवा अपना आसुरी साम्राज्य स्थापित करने हेतु ललायित हैं । आसुरी माया के मार्ग मे सबसे बड़ी बाधा सनातन -हिंदू धर्म है क्योंकि यह मानवता का पोषक है और अमानवीय शक्तियां इसे अपना प्रतिद्वंद्वी मानकर इस पर प्रहार करने में लगी हुई है। ऐसे संकट काल में देश की सज्जन शक्ति को संगठित होकर राष्ट्रधर्म -युगधर्म, आपातकालीन धर्म का निर्वाह करने हेतु आगे आना चाहिए । यह देवासुर संग्राम- सांस्कृतिक संघर्ष- वैचारिक क्रान्ति का समय है, जब एक तरफ धर्म की शक्तियां हैं तो दूसरी ओर अधर्म की शक्तियां हैं और *तीसरा विकल्प तटस्थ का नहीं है अत: निष्क्रिय रहनें बाले अधर्म के पाले में ही गिने जायेंगे* व महाकाल के कोप के भाजन बनेगें । इस देवासुर संग्राम में देवत्व,सृजनकारी शक्तियों, मानवतावादी शक्तियों की ही विजय होने वाली है । *भारत का 'विश्वगुरु' बनना ईश्वरी नियति /विधान है अतः विवेक का सहारा लें ,समय को पहचाने ,कर्तव्य (धर्म) को पहचाने ,मोह- ममता, क्षुद्रता, स्वार्थपर्ता का त्याग करके अपना युगधर्म निभाते हुए यश -पुण्य -श्रेय, ईश्वरी कृपा के भागीदार बनें* ,यही सत्य / धर्म / भारतीयता की कसौटी है ।
अपने धर्म (कर्तव्य) का पालन करने वाले भारत मां के आशीर्वाद को प्राप्त करेंगे ,ईश्वरी अनुदानों से आच्छादित होंगे ,जीवन लक्ष्य को प्राप्त करेंगे , श्रेय, सौभाग्य ,पुण्य के भागीदार होन्गे और *जो कृपणता- क्षुद्रता, आलस्य मे पड़े रहेंगे, अनिति व अधर्म के साथ खड़े होंगे वे अपयश, अपमान, आत्मवेदना मे पड़े हुये जीवन के दिन काटेंगे अथवा अकाल काल के गाल में समा जायेंगे और जो धर्म संस्थापना के सृजन अभियान में बाधक बनेंगे वे महाकाल के हाथों कुचले जाएंगे अतः निर्णय कर लें* कि हमें कहां पर रहना है ? क्योंकि " *जैसी मति -वैसी गति"* ।
" औरों के हित जो जीता है ,
औरों के हित जो मरता है ।
उसका हर आंसू रामायण ,
प्रत्येक कर्म ही गीता है ।। "
क्रमशः ....
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