भारत केवल एक भूभाग नहीं है। यह कोई सीमाओं में बँधा हुआ राष्ट्र नहीं, बल्कि हजारों वर्षों से बहती एक आध्यात्मिक चेतना है, जो वेदों की ऋचाओं से लेकर गीता के उपदेशों तक, रामायण की मर्यादाओं से लेकर उपनिषदों की गंभीर समाधि तक हर श्वास में धड़कती रही है। यह भूमि हमेशा से करुणा, सत्य और धर्म का स्रोत रही है। किंतु यही भूमि सदियों तक अब्राहमिक आक्रांताओं की तलवारों और लालच की आग में झुलसती रही, क्योंकि वे केवल राज करना नहीं चाहते थे, वे भारत की आत्मा को मिटा देना चाहते थे। उनका लक्ष्य केवल सत्ता परिवर्तन नहीं था, बल्कि सनातन धर्म का उन्मूलन था, और यह काम उन्होंने धर्मांतरण के नाम पर किया।
धर्मांतरण की यह कहानी कोई नया अध्याय नहीं है। यह पहली बार 712 ईस्वी में शुरू हुई, जब मोहम्मद बिन कासिम अपनी तलवार और कुरान लेकर सिंध में घुसा। लाशों के ढेर लगाए गए, हजारों महिलाओं को गुलाम बनाया गया और लाखों हिंदुओं को इस्लाम कबूलने पर मजबूर किया गया। अरब लेखक अल-बिलादुरी ने खुद लिखा कि सिंध के युद्ध के बाद "हिंदुओं के मंदिर तोड़े गए, मूर्तियों को पैरों तले रौंदा गया और उन्हें या तो इस्लाम स्वीकार करने या मौत चुनने का आदेश दिया गया।" यही वह दिन था जब भारत की अनादि संस्कृति पर मजहबी वर्चस्व की पहली चोट लगी।
इसके बाद पाँच सौ सालों तक महमूद ग़ज़नी के 17 आक्रमण, मुहम्मद गोरी की लूट, तैमूरलंग की कत्लेआम की कथाएँ और बाबर का आक्रमण हिंदू जनमानस की पीड़ा का हिस्सा बन गईं। औरंगज़ेब ने तो खुलेआम फरमान जारी किया कि काफिरों का धर्मांतरण इस्लाम की सबसे बड़ी सेवा है। लाखों हिंदू मारे गए, असंख्य मंदिर ध्वस्त हुए, गाँव उजड़े, और जहाँ तलवार नहीं चली, वहाँ जजिया कर और ज़बरदस्ती निकाह के जरिए धर्म बदला गया।
इतिहास का यह सबसे काला दौर था, लेकिन भारत कभी पूरी तरह झुका नहीं। बप्पा रावल ने पहले इस्लामी आक्रमण को रोका, महाराणा प्रताप ने हल्दीघाटी में मुगलों को चुनौती दी, छत्रपति शिवाजी महाराज ने हिंदवी स्वराज्य का निर्माण किया, बाजीराव पेशवा ने दिल्ली तक भगवा फहराया। यहाँ तक कि आधुनिक काल में वीर सावरकर और डॉ. हेडगेवार ने हिंदू समाज को जागरूक कर उस मजहबी आतंक के विरुद्ध चेतना जगाई।
फिर भी इस्लामी मजहबी जहाज अपनी विजय का जश्न मनाता रहा। मौलाना अल्ताफ हुसैन हाली ने स्वयं यह स्वीकार किया – “हिजाज के मजहब का हठी युद्धक बेड़ा अपनी पताका संसार के हर कोने में ले गया, उसने भय को बाधा माना ही नहीं, पर गंगा के मुहाने आकर डूब गया।” यह स्वीकारोक्ति बताती है कि भारत ही वह भूमि थी जिसने इस्लामी विस्तारवाद को सबसे अधिक रोका।
लेकिन दुर्भाग्य यह रहा कि आठ सौ वर्षों के संघर्ष और बलिदान के बाद भी 1947 में हमारे ही राजनीतिक नेतृत्व की अदूरदर्शिता और ‘हिंदू-मुस्लिम एकता’ के बिना स्वतंत्रता नहीं मिल सकती जैसे खोखले। नारे के चलते पाकिस्तान हमें बिना संघर्ष करें दे दिया गया। जिन्ना के रक्तरंजित नारे – “पाकिस्तान लेकर रहेंगे, चाहे खून की नदियाँ बहानी पड़ें” – का प्रतिकार करने का साहस हमारे नेताओं में नहीं था। वीर सावरकर ने चेताया भी कि धर्म के आधार पर देश का बँटवारा केवल भारत नहीं, पूरी मानवता के लिए घातक होगा। पर उनकी बात अनसुनी रह गई। हजार वर्षों का संघर्ष जैसे व्यर्थ चला गया, और भारत की अखंडता पहली बार टूट गई।
भारत का हृदय जब इस्लामी तलवार से जख्मी हो रहा था, उसी समय पश्चिम से एक और आंधी उठी। यह तलवार और रक्तपात के बजाय मुस्कुराते चेहरों, क्रॉस के निशान और "मोक्ष" के वादों के साथ आई। किंतु उसका लक्ष्य भी वही था – भारत को उसकी जड़ों से काटकर चर्च की सत्ता में झुका देना।
ईसाई मतांतरण का इतिहास और गोवा इनक्विज़िशन
15वीं शताब्दी में वास्को-डि-गामा जब पहली बार कालीकट के तट पर पहुँचा तो केवल मसाले या व्यापारिक सौदों के लिए नहीं आया था। उसके पीछे चर्च का गुप्त आदेश था – "भारत के काफ़िरों को मसीह के झंडे तले लाओ, अन्यथा उन्हें समाप्त कर दो।" इसी के बाद गोवा में एक ऐसा नरक रचा गया जिसने सदियों तक हिंदू आत्माओं को कराहने पर मजबूर कर दिया।
गोवा इनक्विज़िशन – क्रूरता की चरम सीमा
1560 में पुर्तगाली शासक और चर्च ने मिलकर इनक्विज़िशन कोर्ट की स्थापना की। यह अदालत केवल एक काम करती थी – हिंदुओं और स्थानीय निवासियों को या तो ईसाई बनाने का आदेश देती या उन्हें अमानवीय यातनाओं से मार डालती।
इतिहासकार एंटोनियो वाज़ लिखते हैं –
गोवा की इनक्विज़िशन में सैकड़ों हिंदू परिवारों को कैदखानों में ठूँस दिया गया। जिन्हें धर्म नहीं बदलना था, उन्हें लोहे की जंजीरों में जला दिया गया। मंदिर तोड़ दिए गए, संस्कृत नाम रखने पर प्रतिबंध लगाया गया, यहाँ तक कि हिंदू रीति-रिवाज छिपाकर मानने पर भी मौत की सजा दी जाती थी।”
1567 तक गोवा में लगभग 300 मंदिर तोड़े गए।
हिंदुओं के पारंपरिक वस्त्र पहनने तक पर पाबंदी थी।
बच्चों को जबरन उनके परिवारों से छीनकर चर्च के अनाथालयों में ईसाई बनाया गया।
फ्रांसीसी यात्री पियरे डेलावाल ने लिखा – “मैंने गोवा की सड़कों पर वे दृश्य देखे जहाँ हिंदुओं को घोड़े की पूँछ से बाँधकर घसीटा जा रहा था, सिर्फ इसलिए कि वे मसीह का नाम नहीं लेना चाहते थे।”
दक्षिण भारत और पूर्वोत्तर तक फैलता चर्च का जाल
गोवा के बाद पुर्तगाली, फ्रांसीसी और ब्रिटिश मिशनरियों ने दक्षिण भारत में मंदिर तोड़ने, हिंदू समाज को ‘पागन’ बताकर उन्हें “उद्धार” की आवश्यकता बताने का अभियान चलाया। मद्रास, कांचीपुरम और मणिपुर तक चर्चों ने अपनी पकड़ बनाई।
ब्रिटिश काल में शिक्षा और अस्पतालों के नाम पर धर्मांतरण का सिलसिला और तेज़ हुआ। मैकाले की शिक्षा नीति इसी मकसद से तैयार की गई थी कि भारतीयों को अपनी संस्कृति से काटा जाए और वे पश्चिमी ईसाई जीवन पद्धति को श्रेष्ठ मानने लगें। 19वीं शताब्दी के अंत तक बंगाल, पंजाब और पूर्वोत्तर के बड़े हिस्सों में लाखों लोग प्रलोभन, भय और झूठे वादों से ईसाई बनाए गए।
स्वतंत्रता के बाद – सेवा के नाम पर छल का नया दौर
स्वतंत्र भारत में चर्च का यह खेल बंद नहीं हुआ। अब वह विदेशी फंडिंग, एनजीओ, अस्पतालों और स्कूलों के माध्यम से जारी रहा। गरीबों, आदिवासियों और दलितों को रोटी, इलाज और नौकरी का लालच देकर धर्मांतरण कराया गया।
1951 में ईसाई आबादी 2.3% थी। 2011 तक यह आधिकारिक रूप से 2.3 करोड़ हो गई, लेकिन क्रिप्टो-क्रिश्चियनों को जोड़ें तो वास्तविक संख्या 5–6% तक मानी जाती है। पूर्वोत्तर के नागालैंड, मिज़ोरम, मेघालय लगभग पूरी तरह ईसाई हो गए। छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा और पंजाब में चर्च का जाल बिछा है।
जो आग 1560 में गोवा में भड़की थी, वह बुझी नहीं। वह आज भी सुलग रही है, बस उसका चेहरा बदल गया है। तलवार की जगह आज पैसा है, अस्पताल है, झूठा परोपकार है। मगर लक्ष्य वही है – सनातन धर्म की जड़ें काटना और भारत की आत्मा को बदलना।
स्वतंत्र भारत में यह भ्रम फैलाया गया कि अब तलवारों की धार कुंद हो चुकी है, अब मजहबी आक्रमण का युग समाप्त हो गया है। लेकिन यह सच नहीं था। तलवार का स्थान नई चालाकियों, प्रलोभनों और संगठित जनसंख्या अभियानों ने ले लिया। मजहबी विस्तारवाद का सपना वही रहा – “क़यामत तभी आएगी जब पूरी दुनिया दारुल इस्लाम बन जाएगी।”
विभाजन के बाद भी जारी मजहबी विस्तार
भारत का विभाजन ही मजहब के नाम पर हुआ था। लाखों हिंदुओं की हत्या, बलात्कार, जबरन धर्मांतरण और पलायन के बाद हमने पाकिस्तान को अपनी भूमि का टुकड़ा सौंप दिया। लेकिन इसी विभाजन ने साबित किया कि इस्लामी राजनीति का अंतिम लक्ष्य धर्मनिरपेक्ष भारत नहीं, बल्कि पूरी धरती को इस्लाम के झंडे तले लाना है।
पाकिस्तान बनने के बाद भी यह सोच बदली नहीं। बांग्लादेश, कश्मीर और केरल से लगातार धार्मिक घुसपैठ और धर्मांतरण की घटनाएँ सामने आती रहीं। पश्चिम बंगाल, असम और बिहार की सीमाओं पर बांग्लादेशी मुसलमानों का घुसना और स्थानीय हिंदुओं का पलायन आज का सबसे बड़ा जनसंख्या संकट है। 1951 में मुस्लिम आबादी 9% थी, जो 2011 में 14.2% हो गई। कई जिलों – मुर्शिदाबाद, मालदा, किशनगंज, धुबरी – में हिंदू अब अल्पसंख्यक हो चुके हैं।
लव जिहाद – भावनाओं के माध्यम से धर्मांतरण
जहाँ पहले तलवारें थीं, वहाँ अब भावनात्मक छल है। लव जिहाद इसका सबसे भयावह रूप है। हजारों हिंदू लड़कियों को झूठी पहचान, नकली नाम और नकली वादों से बहकाया गया। शादी का लालच देकर या फिर ब्लैकमेलिंग से उन्हें इस्लाम कबूलने को मजबूर किया गया। राष्ट्रीय महिला आयोग और कई राज्यों की पुलिस रिपोर्ट बताती है कि केवल उत्तर प्रदेश में 2015 से 2023 के बीच ऐसे 4000 से अधिक मामले दर्ज हुए।
केरल में 2018 में राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) ने खुलासा किया कि “लव जिहाद” केवल व्यक्तिगत मामलों की कहानी नहीं, बल्कि संगठित नेटवर्क का हिस्सा है जो लड़कियों को पहले धर्म बदलने और फिर उन्हें आतंकी संगठनों तक पहुँचाने तक का काम करता है।
आर्थिक प्रलोभन और मदरसा नेटवर्क
जहाँ प्रेम के नाम पर धर्मांतरण नहीं हो सकता, वहाँ पैसे का जाल बिछाया गया। गरीब हिंदुओं, खासकर अनुसूचित जातियों को नकद सहायता, नौकरी और शादी का लालच देकर इस्लाम अपनाने को मजबूर किया गया। कई जगह मदरसों में बच्चों को मुफ्त शिक्षा, कपड़े और भोजन देकर धीरे-धीरे उनका धर्म बदल दिया गया।
केरल, उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल और असम में हजारों अनरजिस्टर्ड मदरसे चल रहे हैं, जहाँ गैर-मुस्लिम बच्चों को इस्लामी शिक्षा दी जाती है और धीरे-धीरे उनका नाम, पहचान और धर्म बदल दिया जाता है।
जनसंख्या आँकड़े – आने वाले खतरे की चेतावनी
सरकारी आंकड़ों के अनुसार:
1951: मुस्लिम आबादी 9% थी।
2011: यह बढ़कर 14.2% हो गई।
विशेषज्ञों का अनुमान है कि 2025 तक यह 17% से ऊपर जा सकती है।
सीमावर्ती जिलों में हालात और भयावह हैं। मुर्शिदाबाद, धुबरी, किशनगंज में मुस्लिम आबादी 70% से अधिक हो चुकी है। कश्मीर में 1990 के दशक में हिंदू पूरी तरह निष्कासित किए गए। केरल और उत्तर प्रदेश के कई शहरों में हिंदू मोहल्ले खाली हो रहे हैं। यह सब केवल जन्मदर से नहीं, बल्कि व्यवस्थित धर्मांतरण और घुसपैठ का परिणाम है।
राजनीतिक चुप्पी और वोट बैंक का खेल
1947 में हमने कहा था – अब धर्म की राजनीति नहीं होगी। लेकिन सच यह है कि हमारे नेताओं ने वोट बैंक के लिए मजहबी कट्टरता को पोषित किया। जब भी धर्मांतरण के खिलाफ कानून बनाने की कोशिश हुई, “अल्पसंख्यकों पर हमला” कहकर शोर मचाया गया।
संविधान सभा के इतिहास के पन्नों को पलटिए तो वहाँ एक आवाज गूँजती है – वह आवाज थी लक्ष्मीनारायण जी की।
स्वतंत्र भारत के नवजात प्राणों में जब लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा गढ़ी जा रही थी, तब लक्ष्मीनारायण जी ने धर्मांतरण के खतरे को दूरदृष्टि से पहचान लिया था। वह सभा के मध्य खड़े हुए, उनकी वाणी में कोई कटुता नहीं थी, केवल मातृभूमि के भविष्य की चिंता थी।
उन्होंने कहा था –
"हमारे मध्य दो ऐसे पंथ हैं जो इस भूमि को अपनी पितृभूमि और मातृभूमि नहीं मानते। वे अपने मत के अतिरिक्त किसी और को जीने का अधिकार नहीं देते। इनके किताबों और इनके उपदेश यह घोषित करते हैं कि एक दिन पूरी दुनिया इनके मत को अपनाएगी या तलवार के बल पर अपनाने को बाध्य होगी। ऐसे पंथों को यदि धर्मांतरण की खुली छूट मिली, तो आने वाले वर्षों में भारत की एकता और अखंडता के लिए अकल्पनीय संकट खड़ा होगा।"
सभा में क्षणभर के लिए सन्नाटा छा गया। कुछ चेहरे सहमति में झुके, कुछ ने उपेक्षा का भाव प्रकट किया। परंतु लक्ष्मीनारायण जी आगे बोले –
"यह भूमि केवल भौगोलिक इकाई नहीं, यह हमारी आत्मा है। यदि हम इस आत्मा को टूटने देंगे, यदि हम उन शक्तियों को खुली छूट देंगे जो हमारे पूर्वजों की आस्था को मिटाने का सपना देखती हैं, अभी कुछ माह पूर्व भारत का विभाजन मजबह और धर्म के आधार पर हुआ है अपनी गलतियों से सीख नहीं लिए तो आज का यह स्वतंत्र भारत कल एक बार फिर खंडित भारत में बदल सकता है। मैं चेतावनी देता हूँ – धर्मांतरण की समस्या केवल धार्मिक स्वतंत्रता का प्रश्न नहीं, यह राष्ट्रीय सुरक्षा का प्रश्न है।"
उनकी इस पुकार को गंभीरता से लेने की बजाय तत्कालीन नेतृत्व ने इसे अल्पसंख्यक अधिकारों के प्रश्न में बदल दिया। कानून नहीं बना, व्यवस्था नहीं बनी, और जिस भविष्य का भय लक्ष्मीनारायण जी ने व्यक्त किया था, वह भयावह सत्य बनकर आज हमारे सामने खड़ा है।
भविष्य का संकट – गजवा-ए-हिंद का लक्ष्य
कट्टरपंथी संगठनों के भाषणों में बार-बार एक ही नारा गूंजता है – “गजवा-ए-हिंद आएगा, हिंदुस्तान दारुल इस्लाम बनेगा।” यह कोई कल्पना नहीं, बल्कि ओपन घोषणाएँ हैं। 2023 में पाकिस्तान के पूर्व मंत्री फैज़ हुसैन ने कहा – “हिंदुस्तान में मुस्लिम बहुसंख्यक होना तय है, समय केवल 30–40 साल का है।”
लव जिहाद, प्रलोभन, घुसपैठ और संगठित नेटवर्क इसी दिशा में काम कर रहे हैं। यह केवल जनसंख्या का खेल नहीं, बल्कि भारत की आत्मा को तोड़ने और एक और विभाजन का रास्ता बनाने की साजिश है।
हम आज 2025 में खड़े हैं। हजार वर्षों के संघर्ष और बलिदान के बाद भी वह भयावह प्रश्न फिर हमारे सामने है – क्या यह भूमि, यह भारत, अपनी आत्मा को बचा पाएगा?
धर्मांतरण केवल आस्था का विषय नहीं रहा, यह अब राष्ट्रीय सुरक्षा और अस्तित्व का प्रश्न बन चुका है। जिन दो अब्राहमिक मतों ने सदियों से हमारी सभ्यता को तोड़ने का प्रयास किया था, वे आज भी उसी दिशा में सक्रिय हैं। और दुखद यह है कि हमारा नेतृत्व, हमारी राजनीति इस संकट को केवल वोटों के चश्मे से देख रही है।
बंगाल – जिहादी हिंसा और मतांतरण का अड्डा
2024 में वक्फ संशोधन कानून लागू होते ही बंगाल की सड़कों पर जिहादी हिंसा की लपटें भड़क उठीं। मुर्शिदाबाद, मालदा, 24 परगना में हिंदू घरों को जलाया गया, दुकानों को लूटा गया, और हिंदू परिवारों को जबरन पलायन करना पड़ा।
इतिहास खुद को दोहराता दिखा। 1946 का डायरेक्ट एक्शन डे फिर से जीवंत हो गया। वही नारे, वही भीड़, वही खून की प्यास।
इन इलाकों में पिछले 20 सालों से मुस्लिम जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है। 1951 में मुर्शिदाबाद में हिंदू बहुसंख्यक थे, आज वहाँ 70% से अधिक मुस्लिम हैं। सैकड़ों गाँव ऐसे हैं जहाँ हिंदुओं का नामोनिशान मिट चुका है। यह केवल जन्मदर नहीं, बल्कि संगठित मतांतरण, जबरन निकाह, आर्थिक प्रलोभन और हिंसा का परिणाम है।
पंजाब – नया मोर्चा, चर्च और खालिस्तान की साजिश
पंजाब कभी गुरु नानक, गुरु गोविंद सिंह की पावन भूमि था। आज यह चर्च और विदेशी फंडेड एनजीओ का नया केंद्र बन गया है।
पिछले कुछ वर्षों में पंजाब में हजारों सिख और हिंदू परिवार ईसाई बनाए गए। यह प्रक्रिया खुलेआम चल रही है – गाँव-गाँव में टेंट लगाकर ‘चमत्कारी प्रार्थना सभा’ आयोजित होती है, बीमारियों के ठीक होने और गरीबी मिटने का वादा किया जाता है। 2022 में सरकारी रिपोर्ट के अनुसार पंजाब के 12 जिलों में 7 लाख से अधिक लोगों ने धर्म परिवर्तन किया, जिनमें से अधिकांश ने अपना जाति प्रमाणपत्र हिंदू/सिख ही रखा ताकि सरकारी आरक्षण न छूटे।
यह खेल केवल धर्मांतरण का नहीं, बल्कि पंजाब में सामाजिक असंतोष बढ़ाने, खालिस्तानी विचारधारा को ताकत देने और देश की एकता पर चोट करने का है। विदेशी चर्च संगठन और कुछ पश्चिमी खुफिया एजेंसियाँ इस आग को हवा दे रही हैं।
पूर्वोत्तर – पूरा भूभाग ईसाईकरण के कगार पर
नागालैंड, मिज़ोरम और मेघालय में हिंदू-संस्कृति लगभग समाप्त हो चुकी है। त्रिपुरा को छोड़कर बाकी राज्यों में ईसाई बहुसंख्यक हो चुके हैं।
मणिपुर में 2023 की कुकी-मेइती हिंसा के पीछे केवल जातीय संघर्ष नहीं था। उसके पीछे मिशनरी नेटवर्क की भूमिका उजागर हुई जिसने मेइती हिंदुओं के गाँव जलाने और उन्हें पलायन करने पर मजबूर करने में भूमिका निभाई।
यह केवल आस्था का बदलाव नहीं, बल्कि पूर्वोत्तर में भारत की सांस्कृतिक और रणनीतिक पकड़ को कमजोर करने की दीर्घकालिक साजिश है।
नव-बौद्ध आंदोलन – हिंदू समाज के भीतर से विभाजन
2025 में जातिगत घृणा फैलाकर बौद्ध मतांतरण का नया अभियान तेज हो गया है। “हिंदू दलित नहीं हैं, ओबीसी हिंदू नहीं हैं” – ऐसे नारों के साथ देश के कई हिस्सों में हिंदू समाज को तोड़ने का प्रयास हो रहा है।
इस आंदोलन को इस्लामिक संगठनों, वामपंथी विचारधारा और विदेशी चर्च फंडिंग से समर्थन मिल रहा है। उद्देश्य है – हिंदू समाज को टुकड़ों में बाँटना और फिर धर्मांतरण का रास्ता आसान करना।
राष्ट्रीय सुरक्षा पर असर – दूसरा विभाजन?
आज देश के लगभग 100 जिलों में हिंदू अल्पसंख्यक हो चुके हैं। सीमावर्ती क्षेत्रों में यह संकट और गहरा है। असम, बंगाल और बिहार की सीमा पर बांग्लादेशी मुसलमानों का घुसपैठ, कश्मीर में हिंदू पलायन, पंजाब में चर्च का फैलाव – यह सब केवल सामाजिक समस्या नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा की सबसे बड़ी चुनौती है।
पाकिस्तान और कट्टरपंथी संगठन खुलेआम “गजवा-ए-हिंद” का सपना दिखा रहे हैं। चर्च का वैश्विक नेटवर्क भारत को “मसीह का साम्राज्य” बनाने की योजना पर काम कर रहा है। यदि यह प्रवृत्ति अगले 20–30 वर्षों तक जारी रही तो भारत का एक और विभाजन असंभव नहीं।
धर्मांतरण का खतरा आज भी उतना ही बड़ा है। छत्तीसगढ़ के दुर्ग में दो दिन पूर्व दो ननों को मानव तस्करी और धर्मांतरण के आरोप में गिरफ्तार किया गया। इसके बाद कल प्रियंका गांधी और राहुल गांधी संसद के बाहर ‘अल्पसंख्यकों पर अत्याचार’ का नारा लेकर खड़े हो गए। मीडिया, वामपंथी बुद्धिजीवी और विदेशी एजेंसियाँ सक्रिय हो गईं। हर बार जब कोई सरकार धर्मांतरण रोकने का प्रयास करती है, पूरा ‘इको सिस्टम’ इसे अल्पसंख्यकों पर हमला बताने लगता है।
पूर्वोत्तर के राज्य – नागालैंड, मिज़ोरम, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश के बड़े हिस्से – पहले हिंदू-बौद्ध थे, अब ईसाई बहुल हो चुके हैं। मणिपुर में कुकी-मेइती संघर्ष के पीछे भी चर्चों की भूमिका पर कई जांच रिपोर्टें सवाल उठाती हैं। पंजाब में वर्तमान में बड़े पैमाने पर सिखों और दलितों का ईसाई धर्म में रूपांतरण हो रहा है। छत्तीसगढ़, ओडिशा, झारखंड, मध्यप्रदेश के आदिवासी इलाकों में मिशनरी गतिविधियाँ लगातार बढ़ रही हैं।
मुस्लिम धर्मांतरण भी ‘लव जिहाद’, ‘छांगुर बाबा’ और अन्य नेटवर्कों के जरिए जारी है। इसके अतिरिक्त ‘नव-बौद्ध आंदोलन’ चलाया जा रहा है, जिसमें जातिगत घृणा फैलाकर हिंदुओं को बौद्ध बनाने की कोशिश हो रही है। यह रूपांतरण प्रायः वामपंथी, मिशनरी और इस्लामी ताकतों के संयुक्त सहयोग से होता है, क्योंकि इससे हिंदू समाज का विखंडन आसान हो जाता है।
धर्मांतरण केवल संख्या का खेल नहीं है, यह भारत की सांस्कृतिक आत्मा पर हमला है। यह परिवार व्यवस्था, परंपराओं, त्योहारों, पूजा-पद्धतियों और भाषा-संस्कृति को नष्ट करता है। आज यूरोप में चर्च खाली हो रहे हैं, पश्चिमी दुनिया नास्तिकता और वोकिज़्म से त्रस्त है, किंतु वही ताकतें भारत में धर्मांतरण के जरिए अपनी जड़ें जमा रही हैं।
‘गजवा-ए-हिंद’, ‘प्रोजेक्ट 1919’ और ‘सनातन को डेंगू-मलेरिया बताकर खत्म करने’ जैसी बातें नेताओं खुलेआम की जाती है यह केवल विचारधारा नहीं, बल्कि भारत को टुकड़े-टुकड़े करने की अंतरराष्ट्रीय साजिश का हिस्सा है।
समाधान – क्या हम फिर चुप रहेंगे?
धर्मांतरण रोकने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कठोर कानून बनाना आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है।
धर्मांतरण करने वाली विदेशी निधियों पर पूर्ण प्रतिबंध लगे।
मिशनरी स्कूलों और एनजीओ की गतिविधियों का ऑडिट हो।
धर्मांतरण कराने वालों पर कठोर सज़ा और संगठन का लाइसेंस रद्द किया जाए।
जनगणना में ‘क्रिप्टो क्रिश्चियन्स’ और छुपे मतांतरण की पहचान सुनिश्चित की जाए।
लव जिहाद और जबरन मतांतरण पर विशेष न्यायाधिकरण बने।
भारत को यह समझना होगा कि धर्मांतरण केवल धार्मिक स्वतंत्रता का प्रश्न नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा का प्रश्न है। यह न रोका गया तो आने वाले 50 वर्षों में भारत में हिंदू अल्पसंख्यक हो जाएंगे और भारत का विभाजन कई हिस्सों में हो सकता है।
इतिहास हमें बताता है कि केवल तलवार से धर्मांतरण नहीं रुकता। यह तब रुकता है जब समाज जागरूक होता है, जब राज्य सख्त कानून लाता है, जब शिक्षा और संस्कृति का पुनरुत्थान होता है।
लेकिन आज भी राष्ट्रीय स्तर पर धर्मांतरण रोकने का कानून नहीं है। राज्य सरकारें अपने-अपने स्तर पर प्रयास करती हैं, मगर “अल्पसंख्यक अधिकारों” का शोर उन्हें पीछे धकेल देता है।
हमें यह समझना होगा कि धर्मांतरण केवल किसी का धर्म बदलने की बात नहीं। यह भारत की आत्मा बदलने की कोशिश है। यह राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिए सबसे बड़ा खतरा है।
यदि अब भी हम चुप रहे, यदि अब भी हम वोट बैंक की राजनीति में बंधे रहे, तो 2047 में जब भारत स्वतंत्रता की शताब्दी मनाएगा, शायद यह भूमि उसी स्वरूप में न रहे जिसे हमारे पूर्वजों ने अपने रक्त से बचाया था।
भारत का अस्तित्व केवल उसकी सीमाओं में नहीं है, बल्कि उसकी सनातन चेतना में है। यह चेतना जब तक जीवित है, भारत एक रहेगा। लेकिन धर्मांतरण की सुनियोजित साजिशें इस चेतना को नष्ट करने का प्रयास कर रही हैं।
आज आवश्यकता है कि हम जागें, समाज को जागरूक करें और राजनीति को मजबूर करें कि राष्ट्रीय स्तर पर कठोर कानून बने। अन्यथा भविष्य में हमारे बच्चे वही गलती दोहराते हुए देखेंगे जो हमने 1947 में की थी – अपने ही देश का विभाजन, अपनी ही संस्कृति का पतन। धर्मांतरण रोकना केवल हिंदुओं का नहीं, बल्कि पूरे भारत के अस्तित्व का प्रश्न है।
✍️ दीपक कुमार द्विवेदी
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