जब हम भारत की सभ्यता को गहराई से देखते हैं, तो पाते हैं कि इसकी सांस केवल वेदों के मंत्रों में नहीं, बल्कि उस व्यवस्था में भी बसती थी, जो समाज के हर वर्ग को जोड़ती थी। यह व्यवस्था मंदिरों के इर्द-गिर्द विकसित हुई थी। मंदिर केवल ईश्वर के दर्शन का स्थान नहीं थे, बल्कि जीवन का आधार, आर्थिक शक्ति का केंद्र और लोककल्याण की धारा थे।
प्राचीन भारत में मंदिर का स्वरूप बहुआयामी था। वहाँ केवल पूजा-पाठ नहीं होता था। मंदिर का हर पत्थर समाज को जोड़ने वाला एक सूत्र था। वहाँ की घंटियां यह घोषणा करती थीं कि धर्म और अर्थ का संगम केवल पुस्तक में नहीं, जीवन में है।
मंदिर और भूमि का चक्र
भारत के अधिकांश मंदिरों के पास विशाल कृषि भूमि होती थी। यह भूमि दान के रूप में राजाओं, सेठों या समाज के संपन्न लोगों द्वारा मंदिरों को दी जाती थी। मंदिर स्वयं खेती नहीं करते थे; वे इसे स्थानीय किसानों को सौंप देते थे। बदले में किसान जो उत्पादन करते थे, उसका एक अंश मंदिर को देते। यही अंश न केवल देवपूजा में, बल्कि गरीबों को अन्न, यात्रियों को भोजन और गुरुकुलों के संचालन में लगाया जाता।
शिलालेखों में उल्लेख मिलता है कि तंजावुर के बृहदीश्वर मंदिर के पास 400 गांव थे, जिनका सारा अन्न मंदिर के गोदामों में एकत्रित होता और फिर अन्नदान में उपयोग होता।
उत्तर भारत में भी यही परंपरा थी। काशी के विश्वनाथ मंदिर, प्रयाग के संगम क्षेत्र, वृंदावन के विशाल मंदिरों के पास हजारों बीघा भूमि होती थी। यह भूमि केवल धार्मिक नहीं, आर्थिक धरोहर थी।
व्यापार और शिल्प का विकास
मंदिर केवल कृषकों तक सीमित नहीं थे। उनके चारों ओर बाजार बसते। कारीगर, शिल्पकार, बुनकर, मूर्तिकार – सबको काम मिलता। मंदिरों की भव्यता केवल दान से नहीं, हजारों लोगों के परिश्रम से खड़ी होती। यह मंदिर आधारित अर्थव्यवस्था एक प्राकृतिक चक्र थी जिसमें धन समाज के भीतर ही घूमता।
दक्षिण भारत के चोल साम्राज्य में तो मंदिर व्यापारिक केंद्र की तरह काम करते थे। विदेशी व्यापारी भी मंदिर नगरों से वस्त्र, मसाले, रत्न खरीदते थे। मंदिर व्यापार का हृदय थे, और वहीं से समाज में संपन्नता बहती थी।
शिक्षा और विद्या का पोषण
मंदिर केवल भोजन का केंद्र नहीं थे। वे ज्ञान के दीपक थे। हर बड़े मंदिर से गुरुकुल जुड़े होते थे। यहाँ वेद, वेदांग, गणित, खगोल, चिकित्सा, शिल्प – सब सिखाया जाता। शिक्षा निःशुल्क थी।
अर्थशास्त्र में चाणक्य (कौटिल्य) ने कहा है –
"धर्मेण अर्थस्य रक्षणम्" – धर्म के माध्यम से ही अर्थ सुरक्षित होता है।
मंदिर इसका प्रत्यक्ष उदाहरण थे। धर्म और अर्थ दोनों का संतुलन समाज के कल्याण में लगाया जाता।
सेवा और दान की धारा
प्रत्येक मंदिर का अन्नक्षेत्र हर आगंतुक को भोजन देता। तीर्थयात्रियों, साधुओं, विधवाओं और निर्धनों के लिए मंदिर ही आश्रय होता। आज जिन कार्यों को “वेलफेयर स्टेट” का काम कहा जाता है, वह भारत में मंदिर करते थे।
कर्नाटक के बेलूर-हलबीड़, उत्तर भारत के बद्रीनाथ-केदारनाथ, राजस्थान के शेखावाटी क्षेत्र – हर जगह मंदिरों की आय से धर्मशालाएं, कुएं, तालाब, चिकित्सालय चलते थे।
मंदिरों की विकेंद्रीकृत व्यवस्था
सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि यह सब स्थानीय समाज द्वारा संचालित होता। कोई केंद्रीय सत्ता मंदिर का प्रबंधन नहीं करती थी। गाँव के बुजुर्ग, दानदाता, पुजारी और आचार्य मिलकर मंदिर का संचालन करते।
हर दान और खर्च का हिसाब जनता के सामने होता। मंदिर समाज का था, समाज मंदिर का था। यही विकेंद्रीकृत सनातन आर्थिक मॉडल था जिसने हजारों साल तक भारत को आत्मनिर्भर रखा।
मंदिरों की लूट – आक्रमण, औपनिवेशिक कानून और स्वतंत्र भारत की बेड़ियां
भारत की आत्मा को केवल तलवारों ने नहीं, योजनाओं ने भी घायल किया। मंदिरों के पत्थर तोड़े गए, लेकिन उससे भी गहरी चोट उनके आर्थिक हृदय पर की गई। जिस धारा से समाज को अन्न, शिक्षा और सेवा मिलती थी, उसे पहले आक्रमणकारियों ने रोका और फिर औपनिवेशिक शासन ने व्यवस्थित रूप से अपने नियंत्रण में ले लिया।
1. इस्लामी आक्रमणों की तलवार और मंदिरों का विध्वंस
मंदिरों पर पहली चोट तलवारों से हुई। महमूद ग़ज़नी का सोमनाथ आक्रमण केवल सोने-चांदी की लूट नहीं था। सोमनाथ के पास 1000 से अधिक गांवों का अन्न-राजस्व था। जब मंदिर लूटा और नष्ट हुआ, तब केवल मूर्तियां नहीं टूटीं – उन गांवों की अर्थव्यवस्था, गरीबों की थाली, गुरुकुलों की शिक्षा सब टूट गई।
मथुरा, काशी, उज्जैन, नालंदा, देवगिरि – सैकड़ों मंदिर और विश्वविद्यालय इस्लामी आक्रमणों में नष्ट कर दिए गए। इतिहासकार एलियट और डॉसन की ‘हिस्ट्री ऑफ इंडिया ऐज टोल्ड बाय इट्स ओन हिस्टोरियंस’ (1857) में यह उल्लेख है कि ग़ज़नी, गौरी और खिलजी ने केवल मंदिर नहीं तोड़े, बल्कि उनकी भूमि और संपत्ति को जब्त करके मस्जिदों और दरबारों में लगा दिया।
इस विनाश ने उत्तर भारत की पूरी मंदिर-आधारित अर्थव्यवस्था को तोड़ डाला। हजारों गांवों की उत्पादन श्रृंखला टूट गई, जिससे सदियों तक भारत की समृद्धि गिरती चली गई।
2. ब्रिटिश औपनिवेशिक कानूनों द्वारा योजनाबद्ध कब्ज़ा
प्राचीन भारत में मंदिर धर्म के साथ-साथ अर्थव्यवस्था, शिक्षा, चिकित्सा, कला और सामाजिक सुरक्षा के केन्द्र थे। अर्थशास्त्र और मनुस्मृति के श्लोक बताते हैं कि राजा और समाज, दोनों मंदिरों को भूमि, अन्न और स्वर्ण का दान देते थे। यह दान केवल पूजा में नहीं, बल्कि गांवों की सिंचाई, अन्नक्षेत्र, गुरुकुलों और चिकित्सा शालाओं में लगाया जाता था।
तंजावुर का बृहदीश्वर मंदिर 400 से अधिक गांवों की आय से चलता था। वाराणसी के मंदिरों ने सदियों तक लाखों छात्रों को भोजन और शिक्षा दी। सोमनाथ मंदिर का खजाना इतना विशाल था कि अरब यात्री अल-बिरूनी ने लिखा – "यह मंदिर केवल स्वर्ण का घर नहीं, बल्कि गुजरात के हज़ारों परिवारों का जीवन है।" मंदिर केवल ईश्वर का नहीं, समाज का घर था।
जहाँ इस्लामी आक्रमणों ने मंदिरों को भौतिक रूप से नष्ट किया, वहीं अंग्रेजों ने उन्हें कानूनों की बेड़ियों में जकड़ दिया।
18वीं शताब्दी में ईस्ट इंडिया कंपनी ने दक्षिण भारत में विजय प्राप्त करने के बाद मंदिरों का राजस्व अपने हाथ में लेना शुरू किया। कर्नल मुनरो (Madras Presidency) ने सैकड़ों मंदिरों की आय को जब्त करके सरकारी खजाने में डाल दिया।
भारत के स्वतंत्रता संग्राम के बीच 1925 में ब्रिटिश प्रशासन ने Madras Hindu Religious and Charitable Endowments Act बनाया। इस कानून ने पहली बार राज्य सरकार को अधिकार दिया कि वह मंदिरों के प्रबंधन में दखल दे सकती है, मंदिर ट्रस्टों को सरकारी बोर्ड के अधीन लाया जा सकता है, और आय-व्यय का नियंत्रण सीधे प्रशासन के हाथ में होगा।
यह कानून केवल मद्रास तक सीमित नहीं रहा। स्वतंत्रता के बाद भी कई प्रांतीय सरकारों ने इसी ढांचे को अपनाया। तमिलनाडु में 1959 का HR&CE Act, आंध्र प्रदेश में 1966 का अधिनियम, और आगे चलकर केरल और कर्नाटक में भी इसी मॉडल पर कानून बने।
आज तमिलनाडु के लगभग 36,425 मंदिर राज्य के HR&CE विभाग के अधीन हैं। विभाग के पास 4.78 लाख एकड़ मंदिर भूमि का रिकॉर्ड है, लेकिन कम से कम 1.5–2.5 लाख एकड़ अवैध कब्जों में है। यदि सही मूल्य पर किराया लिया जाए तो ₹6,000 करोड़ प्रति वर्ष मंदिरों की आय हो सकती थी, जबकि वास्तव में मात्र ₹250–300 करोड़ वसूले जाते हैं। (स्रोत: Swarajya Magazine, 2022 रिपोर्ट)
केरल के पाँच देवस्वोम बोर्डों के पास वार्षिक आय लगभग ₹1,000 करोड़ है, लेकिन उसका बड़ा हिस्सा राज्य सरकार के खर्च और तुष्टिकरण योजनाओं में चला जाता है। (Devaswom Boards in Kerala – Wikipedia)
तिरुपति बालाजी मंदिर का 2024-25 का बजट ₹5,142 करोड़ है, परन्तु इसमें से केवल छोटा अंश धार्मिक और शैक्षिक कार्यों पर खर्च होता है। शेष का बड़ा हिस्सा प्रशासनिक मदों, राज्य-निर्धारित दान योजनाओं और करों में चला जाता है।
इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि आज भी मंदिरों की संपत्ति हिन्दू समाज के उत्थान के बजाय सरकारी खजानों, गैर-हिन्दू तुष्टिकरण योजनाओं और भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ रही है।
3. स्वतंत्र भारत में जारी सरकारी लूट
आज स्थिति यह है कि भारत के 5 लाख से अधिक मंदिरों में से लगभग 4 लाख मंदिरों की आय पर किसी न किसी रूप में सरकारी हस्तक्षेप है।
कुछ उदाहरण देखें –
तमिलनाडु के 36,425 मंदिरों के पास लगभग 4.78 लाख एकड़ भूमि है। इनकी वार्षिक आय केवल 300 करोड़ रुपये दर्ज होती है, जबकि वास्तविक मूल्य हजारों करोड़ का है।
तिरुपति बालाजी मंदिर की आय में से करोड़ों रुपये सरकार के खजाने में जाते हैं।
केरल में गुरुवायुर मंदिर के सोने-चांदी को सरकारी योजनाओं में इस्तेमाल करने के आरोप लगे।
आंध्र प्रदेश में 2012 में मंदिर की भूमि को सरकारी ‘हाउसिंग प्रोजेक्ट’ में बेच दिया गया।
यह केवल कब्ज़ा नहीं है; यह भक्तों के दान का दुरुपयोग है। यह वही धन है जो गुरुकुल, अन्नक्षेत्र, वनवासी सेवा और मतांतरण रोकने में लगना चाहिए था, पर आज यह चुनावी राजनीति और तुष्टिकरण योजनाओं में बहाया जा रहा है।
4. चर्च और अन्य संस्थानों को विशेषाधिकार
विडंबना यह है कि भारत में चर्च और मस्जिदें सरकारी नियंत्रण से बाहर हैं। वे अपनी आय का उपयोग अपने धर्म के विस्तार में करती हैं।
भारत में चर्च के पास लगभग 25,000 करोड़ डॉलर से अधिक की संपत्ति बताई जाती है।
इस्लामी वक्फ बोर्ड के पास लाखों एकड़ भूमि है, जो सरकार द्वारा "सुरक्षित और स्वतंत्र" है।
लेकिन हिंदू मंदिरों की संपत्ति सरकार के नियंत्रण में है और उसका उपयोग अक्सर अवैदिक मतों के तुष्टिकरण में किया जाता है।
यानी अपने ही धर्म के धन से हिंदू समाज को कमजोर किया जा रहा है।
हिंदू आर्थिक इकोसिस्टम का पुनर्निर्माण
प्राचीन भारत में मंदिर आर्थिक धुरी थे। वे केवल धर्मस्थल नहीं, स्थानीय उद्योग, कृषि, शिक्षा और सेवा का केंद्र थे।
यदि मंदिरों की संपत्ति पुनः इसी उद्देश्य में लगाई जाए, तो लाखों हिंदुओं की गरीबी, बेरोज़गारी और बेबसी समाप्त हो सकती है।
मंदिर भूमि से उत्पन्न राजस्व का उपयोग गांवों में कृषि सुधार, सिंचाई और गौसंरक्षण में हो।
मंदिर निधि से स्वदेशी बैंक और सहकारी संस्थान स्थापित हों, जिससे किसान साहूकारों के कर्ज़ से मुक्त हो सकें।
छोटे व्यापारी और कारीगरों के लिए मंदिर ऋण-सहायता दें, जैसा चोल और पल्लव काल में हुआ करता था।
इससे एक विकेंद्रीकृत, आत्मनिर्भर हिन्दू अर्थव्यवस्था फिर से खड़ी हो सकती है जो विदेशी पूंजी और मिशनरी फंडिंग पर निर्भर न हो।
2.यदि मंदिरों की संपत्ति मुक्त हो जाए तो कैसा होगा भारत?
कल्पना कीजिए – जब हर मंदिर का प्रबंधन श्रद्धालु समुदाय और धर्माचार्यों के हाथ में होगा, जब हर भूमि का सही किराया लिया जाएगा, जब हर सोने का सिक्का और हर रुपये का उपयोग उसी उद्देश्य में होगा जिसके लिए वह दान किया गया था – धर्म, सेवा और ज्ञान के प्रसार में।
हिन्दू शैक्षणिक पुनर्जागरण: मंदिर निधियों से पूरे भारत में गुरुकुल, वेदविद्यालय, संस्कृत विश्वविद्यालय, आयुर्वेद और विज्ञान शोध केंद्र स्थापित हो सकते हैं। यह शिक्षा केवल नौकरी के लिए नहीं, बल्कि धर्म, संस्कृति और राष्ट्रधर्म के संरक्षण के लिए होगी।
वनवासी और दरिद्र हिन्दुओं का उत्थान: मंदिर धन से वनवासियों के लिए आवास, स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार योजनाएं चलें। उन्हें मतांतरण के लिए पैसे देने वालों के आगे झुकना न पड़े।
विश्व में धर्म प्रचार: जैसे चर्च विश्वभर में मिशनरी चला रहा है, वैसे ही मंदिर निधियों से भारत और विदेशों में सनातन केंद्र, गुरुकुल, पुस्तकालय और मीडिया संस्थान स्थापित हों। हिन्दू विचारधारा को वैश्विक विमर्श में स्थान मिले।
हिन्दू बैंकिंग और सहकारिता: मंदिर धन से स्वदेशी बैंक और सूक्ष्म-वित्त संस्थान स्थापित हों, जो गरीब हिन्दू व्यापारियों, किसानों और शिल्पकारों को ब्याज-मुक्त ऋण दें।
अन्नक्षेत्र और आश्रय: कोई भूखा न रहे, कोई सनातनी दर-दर की ठोकरें न खाए। मंदिरों की आय से हर गांव में धर्मशालाएँ, अस्पताल और भोजनालय चल सकते हैं।
यदि यह सब हो, तो भारत में कोई हिन्दू गरीबी और मतांतरण की विवशता में न रहेगा। चर्च और इस्लामी संगठन जो अरबों डॉलर खर्च कर हिन्दुओं को लालच देकर अपने धर्म में खींचते हैं, उनका प्रभाव स्वतः समाप्त हो जाएगा क्योंकि हिन्दू समाज स्वयं अपने लोगों का संरक्षक बन जाएगा।
3. मतांतरण-निवारण और वनवासी सेवा
मिशनरियां गरीब और वनवासी हिन्दुओं को पैसे, दवाओं और शिक्षा का लालच देकर धर्म परिवर्तन कराती हैं। परंतु मंदिरों की विशाल संपत्ति का उपयोग इन क्षेत्रों में किया जाए –
भोजनालय, स्वास्थ्य केंद्र, रोजगार केंद्र स्थापित हों।
हर गांव में अन्नक्षेत्र हो जहाँ कोई भूखा न सोए।
गरीब हिन्दू के बच्चों को स्कूल, कॉलेज, स्कॉलरशिप मिले।
जब धर्म स्वयं सेवा देगा, तब कोई पराया मत उन्हें खरीद नहीं सकेगा। यह सनातन रक्षा का सबसे बड़ा उपाय है।
4.मंदिरों का विकेंद्रीकृत पारदर्शी प्रबंधन
इस लक्ष्य को पाने का रास्ता सरकारी नियंत्रण नहीं है। सनातन परंपरा में धन हमेशा समाज के हाथ में रहा है।
हर मंदिर का प्रबंधन स्थानीय ट्रस्ट के हाथ में हो, जिसमें पुजारी, श्रद्धालु, दानदाता और समाज के वरिष्ठ शामिल हों।
स्वतंत्र ऑडिट प्रणाली बने जो हर वर्ष मंदिर की आय-व्यय का सार्वजनिक विवरण दे।
दान का उपयोग केवल धर्मरक्षा, शिक्षा, सेवा और सांस्कृतिक उत्थान में हो।
इससे मंदिरों में विवाद और भ्रष्टाचार की संभावना न्यूनतम होगी, और धन का प्रवाह पारदर्शी रहेगा।
5. एक स्वप्निल भविष्य-दर्शन
कल्पना कीजिए वह दिन जब भारत के हर गांव में मंदिर की घंटियां केवल आरती के लिए नहीं, बल्कि भूखे को भोजन देने, बीमार को औषधि देने, अनपढ़ को शिक्षा देने के लिए बजें।
हर प्रांत में वैदिक विश्वविद्यालय, हर शहर में हिन्दू अस्पताल, हर गांव में धर्मशाला और अन्नक्षेत्र, और हर वनवासी क्षेत्र में आत्मनिर्भरता केंद्र हों।
जब सनातन का धन उसी धर्म की रक्षा में बहेगा, तब –
मतांतरण रुक जाएगा।
हिन्दू समाज आत्मनिर्भर और सशक्त होगा।
भारत फिर से जगतगुरु बनेगा।
यह केवल अर्थनीति नहीं होगी; यह धर्मनीति होगी – जो वेदों के इस वचन को साकार करेगी:
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।।
सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय के साक्षी बनें और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े।
मंदिरों का धन भक्तों की आस्था का है। इसे सरकारों के हाथों में बंधक रखना ऐतिहासिक भूल और सनातन के साथ विश्वासघात है। इस धन का उपयोग धर्मरक्षा और समाज उत्थान में हो – यही प्राचीन भारत का मार्ग है, यही भविष्य का वैदिक पुनर्जागरण है।
✍️दीपक कुमार द्विवेदी
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