लोकसभा का सत्र चल रहा था। ऑपरेशन सिंदूर पर बहस हो रही थी। यह वही ऑपरेशन था, जब पहलगाम में पाकिस्तान-प्रायोजित इस्लामी जिहादियों ने 25 हिंदू तीर्थयात्रियों को धर्म पूछकर मौत के घाट उतार दिया था। आतंकियों ने उन्हें पैंट उतरवाने पर मजबूर किया, कलमा पढ़ने को कहा और न मानने पर गोली मार दी। यह कोई साधारण घटना नहीं थी। यह उन हजारों हमलों की कड़ी में एक और चोट थी, जो केवल इसलिए हिंदुओं पर होते रहे क्योंकि वे हिंदू हैं। भारतीय सेना ने इस हमले का बदला लिया, सीमा पार जाकर आतंकियों का सफाया किया और इस जवाबी कार्रवाई का नाम पड़ा – ऑपरेशन सिंदूर।
परंतु जब इस पर संसद में चर्चा हुई, तब जो दृश्य सामने आया उसने भारत की आत्मा को एक बार फिर आहत कर दिया। कांग्रेस नेताओं की जुबान आतंकियों का नाम लेने में थरथरा रही थी। प्रियंका गांधी ने कहा – “वे भारतीय थे, हिंदू नहीं।” यह कहते समय उन्हें जरा भी याद नहीं आया कि हत्यारे धर्म पूछकर ही मौत बांट रहे थे। यह वही मानसिकता थी जिसने कांग्रेस की राजनीति को जन्म से आज तक हिंदू पीड़ा के प्रति असंवेदनशील बना रखा है।
कांग्रेस की उत्पत्ति – स्वतंत्रता आंदोलन नहीं, अंग्रेजों का 'सुरक्षा वाल्व'
भारत की राष्ट्रीय चेतना की कहानी में कांग्रेस का प्रवेश 1885 में हुआ। बहुतों को लगता है कि कांग्रेस भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की अग्रदूत थी, पर सच इससे अलग है। इसकी स्थापना एक अंग्रेज अधिकारी ए. ओ. ह्यूम ने की थी। उनका उद्देश्य खुलकर लिखा गया था – भारत में उभरते असंतोष और क्रांतिकारी आंदोलनों को 'नियंत्रित रूप' देना, ताकि स्वतंत्रता की ऊर्जा दफ्तरों और याचिकाओं में बर्बाद हो जाए। अंग्रेज जानते थे कि यदि हिंदू समाज का आक्रोश संगठित हुआ तो उनका साम्राज्य ध्वस्त हो जाएगा। कांग्रेस उस आक्रोश को शांत करने का उपकरण बनी।
गांधी और मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति
20वीं सदी की शुरुआत में कांग्रेस के भीतर कई धाराएं थीं। लोकमान्य तिलक जैसे नेता हिंदू समाज की भावनाओं को समझते थे। लेकिन गांधीजी के आगमन के साथ कांग्रेस का चरित्र बदल गया। उन्होंने उद्घोष किया – “हिंदू-मुस्लिम एकता के बिना स्वतंत्रता असंभव है।” यह उद्घोष सुनने में अच्छा लगता था, पर इसका परिणाम हिंदू समाज के आत्मरक्षा के स्वाभाविक अधिकार को त्यागने में निकला।
1920 में गांधीजी ने खिलाफत आंदोलन को समर्थन दिया। यह आंदोलन भारत की आज़ादी के लिए नहीं, बल्कि तुर्की के खलीफा को बचाने के लिए था। इसके दुष्परिणाम 1921 में मालाबार के मोपला नरसंहार के रूप में सामने आए। वहां इस्लामी जिहादियों ने 2,500 से अधिक हिंदुओं की हत्या की, हजारों का जबरन धर्मांतरण हुआ, महिलाओं का बलात्कार किया गया, सैकड़ों मंदिर तोड़े गए। यह सब 'जिहाद' के नाम पर हुआ। वीर सावरकर ने इसे अपनी कृतियों में संगठित नरसंहार बताया। पर गांधीजी ने इन्हीं हत्यारों को "वीर स्वतंत्रता सेनानी" कहा और उनके साथ मंच साझा किया। यही कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टिकरण नीति की जड़ थी।
टू-नेशन थ्योरी का असली जनक – सर सैयद अहमद खान
अक्सर कहा जाता है कि 'दो राष्ट्र सिद्धांत' वीर सावरकर ने दिया। लेकिन सच्चाई यह है कि 1883 में सर सैयद अहमद खान ने कहा था –
हिंदू और मुसलमान दो अलग-अलग कौमें हैं। वे कभी एक साथ नहीं रह सकते।
यही विचार आगे चलकर मुस्लिम लीग की राजनीति की नींव बना। जिन्ना ने इसे अपना राजनीतिक हथियार बनाया। कांग्रेस नेतृत्व इस सच को अनदेखा करता रहा, और आरोप सावरकर पर मढ़ता रहा।
कांग्रेस का आत्मघाती नारा – हिंदू मुस्लिम एकता के बिना स्वतंत्रता नहीं
1914-18 के खिलाफत आंदोलन का भारत की स्वतंत्रता से कोई लेना-देना नहीं था। यह तुर्की के खलीफा को बचाने का आंदोलन था। परंतु गांधीजी ने इसे स्वतंत्रता संग्राम से जोड़ दिया और कहा – “हिंदू मुस्लिम एकता के बिना आज़ादी असंभव है।”
इस आंदोलन के दौरान देश में दंगे भड़के। 1921 में केरल के मोपला नरसंहार में हजारों हिंदू मारे गए, असंख्य महिलाओं की अस्मिता लूटी गई, धर्मांतरण हुए। लेकिन कांग्रेस ने इन जिहादियों को “स्वतंत्रता सेनानी” कहकर सम्मानित किया।
1946 में जिन्ना के डायरेक्ट एक्शन डे पर कोलकाता की गलियाँ हिंदू रक्त से लाल हो गईं। लाखों लोग विस्थापित हुए। फिर भी कांग्रेस ने हिंदू समाज का नेतृत्व कर प्रतिकार नहीं किया। और 1947 में पाकिस्तान को बिना युद्ध, बिना प्रतिकार “थाली में सजाकर” सौंप दिया गया।
इस विभाजन में 10 लाख हिंदू-सिख मारे गए।
75,000 से अधिक स्त्रियों की अस्मिता लूटी गई।
1.4 करोड़ लोग अपने ही देश में शरणार्थी बन गए।
पाकिस्तान के लिए वोट देने वाले मुसलमान आज भी भारत में रह गए, और कांग्रेस ने उनके तुष्टिकरण को अपनी राजनीति का आधार बना लिया।
POK और बार-बार के अवसर गंवाना
नेहरू ने 1947-48 में भारतीय सेना को रोककर POK का बड़ा हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में जाने दिया। मामला संयुक्त राष्ट्र में ले जाकर भारत की जीत को अधूरा कर दिया।
1965 के युद्ध के बाद ताशकंद समझौते में और 1971 में 93,000 पाकिस्तानी सैनिकों के आत्मसमर्पण के बाद भी कांग्रेस सरकार ने POK वापस लेने का साहस नहीं दिखाया। यह केवल सैन्य नहीं, वैचारिक हार थी।
संवैधानिक राष्ट्रवाद के नाम पर हिन्दू सभ्यता के साथ कांग्रेस का छल
भारतीय राष्ट्र का जन्म किसी राजनीतिक दस्तावेज़ या संविधान की प्रस्तावना से नहीं हुआ। इसकी जड़ें सहस्राब्दियों पुरानी वैदिक सभ्यता में हैं। इस भूमि ने वेदों का मंत्रपाठ सुना है, उपनिषदों में आत्मा और ब्रह्म की एकता का बोध पाया है, महर्षि व्यास से लेकर महर्षि अरविंद तक, इस राष्ट्र ने धर्म और संस्कृति को अपनी आत्मा में संजोया है। यह कोई आधुनिक गणतांत्रिक प्रयोग नहीं, बल्कि अनादि काल से चला आ रहा सभ्यतागत राष्ट्र है।
परंतु दुर्भाग्य यह रहा कि 1947 में सत्ता हस्तांतरण के बाद जो नेतृत्व सत्ता के शिखर पर बैठा, उसने इस सभ्यता को जड़ से काटने का अभियान चलाया। कांग्रेस ने भारत को "संवैधानिक राष्ट्रवाद" का नया नाम दिया, मानो भारत का जन्म 15 अगस्त 1947 को हुआ हो। उसने जानबूझकर इस राष्ट्र की आत्मा – सनातन धर्म – को परिभाषा से बाहर कर दिया।
संवैधानिक राष्ट्रवाद – एक राजनीतिक छल
नेहरू और उनके उत्तराधिकारियों ने यह सिद्धांत गढ़ा कि भारत केवल संविधान में लिखे शब्दों से परिभाषित होगा।
उन्होंने 1947 के बाद भारत को “धर्मनिरपेक्ष राज्य” बताने की कोशिश की, जबकि संविधान सभा की मूल प्रस्तावना में "सेक्युलर" शब्द नहीं था।
1976 में आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी ने 42वें संशोधन के जरिए "धर्मनिरपेक्ष" और "समाजवाद" शब्द जोड़कर भारत को एक नास्तिक और वामपंथी विचारधारा आधारित राज्य की ओर मोड़ दिया।
इस संशोधन का उद्देश्य केवल शासन का ढांचा तय करना नहीं था, बल्कि भारतीय समाज की सनातन चेतना को संवैधानिकता के बोझ तले दबा देना था।
महर्षि अरविंद ने 1911 में कहा था –
भारत का उत्थान तभी संभव है जब सनातन धर्म का उत्थान होगा। धर्म के बिना भारत मृत मिट्टी का ढेर है।”
कांग्रेस ने इस सत्य को अनदेखा किया और भारत को मात्र एक राजनीतिक इकाई मानने का प्रयास किया।
वामपंथियों को शिक्षा और इतिहास सौंपना
कांग्रेस शासन ने शिक्षा जगत, अकादमिक संस्थानों, विश्वविद्यालयों और मीडिया को वामपंथी विचारकों के हवाले कर दिया। उन्होंने इतिहास को इस तरह लिखा कि:
विदेशी आक्रांताओं के अत्याचारों को महिमामंडित किया गया।
हिंदू सभ्यता को अंधविश्वासी, पिछड़ा और बर्बर बताया गया।
स्वतंत्रता संग्राम के वास्तविक नायक जैसे वीर सावरकर, भगत सिंह, नेताजी सुभाष को हाशिये पर रखा गया।
देश की पहचान को "धर्मविहीन", "मूल्यहीन" और "पश्चिमी विचारों के अधीन" बनाने का अभियान चलाया गया।
सोवियत संघ के विघटन के बाद वामपंथी विचारकों ने स्पष्ट कहा –
हमारा लक्ष्य भारत के सनातन धर्म को पूरी तरह समाप्त करना है।”
कांग्रेस ने इस एजेंडे को अपने शासन में स्थान दिया।
अल्पसंख्यक तुष्टिकरण और हिन्दू समाज पर चोट
संवैधानिक राष्ट्रवाद के नाम पर कांग्रेस ने अल्पसंख्यकों को विशेषाधिकार दिए, मुस्लिम पर्सनल लॉ को संविधान से ऊपर रखा, बौद्ध मत और अन्य पंथों को हिन्दू धर्म के ऊपर सिद्ध करने का प्रयास किया।
यह वही मानसिकता है जो गांधीजी के समय से चली आ रही थी – "हिंदू-मुस्लिम एकता के बिना स्वतंत्रता असंभव है।"
इस नीति का परिणाम यह हुआ कि विभाजन में पाकिस्तान मुसलमानों को सौंप दिया गया, पर भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित करने का साहस नहीं किया गया। जो मुसलमान पाकिस्तान के लिए वोट देकर भी भारत में रह गए, उन्हें 'अल्पसंख्यक' कहकर विशेषाधिकार दिए गए। हिंदू समाज, जिसने हजार वर्षों तक संघर्ष कर जीवित रहने की कीमत चुकाई, उसे राजनीतिक अपराधी की तरह पेश किया गया।
सनातन धर्म को 'रोग' बताने वाली राजनीति
यह केवल अतीत की भूल नहीं है, आज भी कांग्रेस की वैचारिक धारा वही है।
2023 में डीएमके नेता उदयनिधि स्टालिन ने कहा –
> “सनातन धर्म डेंगू और मलेरिया की तरह है, इसका उन्मूलन होना चाहिए।”
यह वक्तव्य केवल एक व्यक्ति का नहीं था। यह उस पूरी राजनीतिक सोच का प्रतिनिधित्व था जिसे कांग्रेस ने पाला-पोसा। कांग्रेस ने इस पर कोई आपत्ति नहीं की, कोई विरोध दर्ज नहीं किया। क्योंकि उसके लिए सनातन धर्म अब भी एक बोझ है, जिसे मिटाना ही आधुनिकता समझा जाता है।
भारत का सभ्यतागत राष्ट्रवाद – कांग्रेस के संवैधानिक छल से परे
भारत की पहचान संविधान के शब्दों से नहीं, ऋषियों की वाणी से बनी है।
यहाँ राष्ट्र की परिभाषा भूखंड से नहीं, धर्म से होती है।
भारत कोई 'नेशन-स्टेट' नहीं, बल्कि 'राष्ट्रधर्म' है।
संवैधानिक राष्ट्रवाद का छल केवल इतना नहीं कि उसने भारत के इतिहास को 1947 से शुरू कर दिया, बल्कि यह कि उसने हिन्दू आत्मा को अपराधबोध में डाल दिया, सनातन धर्म को पश्चिमी सेक्युलरिज़्म की कसौटी पर नापा और इस देश की आत्मा को दबा देने का प्रयास किया।
कांग्रेस ने अंग्रेजों की योजना के अनुसार जन्म लिया और सत्ता मिलने के बाद वही काम जारी रखा –
भारत को उसके वैदिक, सभ्यतागत स्वरूप से काटना,
संवैधानिक राष्ट्रवाद के नाम पर उसे नास्तिक और वामपंथी राज्य की दिशा में मोड़ना,
मुस्लिम तुष्टिकरण और अल्पसंख्यकवाद से हिन्दू समाज को हाशिये पर डालना,
शिक्षा और इतिहास को तोड़-मरोड़कर आने वाली पीढ़ियों को अपनी जड़ों से अनजान करना,
और आज तक, सनातन धर्म को एक "समस्या" के रूप में प्रस्तुत करना।
यह छल केवल राजनीति नहीं है, यह राष्ट्र की आत्मा पर प्रहार है। भारत जब तक अपनी जड़ों की ओर नहीं लौटता, जब तक यह स्वीकार नहीं करता कि इसकी आत्मा सनातन धर्म में ही निहित है, तब तक संवैधानिक राष्ट्रवाद का यह छल हमारे भविष्य को निरंतर खोखला करता रहेगा।
✍️ दीपक कुमार द्विवेदी
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