जातिगत जनगणना या सामाजिक विस्फोट? 2027 से पहले सावधान हो जाए भारत

पिछले कुछ वर्षों से मैं निरन्तर यह बात अनुभव कर रहा हूँ कि भारतवर्ष में जातिगत राजनीति एक नवीन स्वरूप में हमारे समक्ष प्रकट हो रही है। यह राजनीति अब केवल सामाजिक न्याय या ऐतिहासिक पीड़ा के उपचार तक सीमित नहीं रही, अपितु एक गहरे वैश्विक वैचारिक षड्यंत्र का अंग बन चुकी है। इसका आधार क्रिटिकल रेस थ्योरी, द्विआधारी सिद्धांत (Binary Theory) तथा कल्चरल मार्क्सवाद है—जो समाज को दो विरोधी पक्षों में विभक्त कर एक को पीड़ित और दूसरे को उत्पीड़क सिद्ध करता है।

इस विचारधारा ने भारतीय समाज की एकात्मता को दुर्बल करने का कार्य किया है। आज हम देख रहे हैं कि समाज के विविध जातिगत वर्ग एक-दूसरे के विरोधी बनते जा रहे हैं। आरक्षण को लेकर संघर्ष, भाषणों में जातीय अभिमान, सोशल मीडिया पर फैलते नफरत के नैरेटिव—ये सभी उस विषबेल के फल हैं, जिसे वामपंथी विचारधारा ने "पहचान की राजनीति" के नाम पर पाला-पोसा है।

2014 पूर्व और पश्चात की जातिगत राजनीति में भेद

यदि हम 2014 के पूर्व की राजनीतिक स्थिति को देखें, तो पाते हैं कि जातिगत राजनीति का स्वरूप अपेक्षाकृत नियंत्रित और सीमित था। हाँ, कुछ हद तक ब्राह्मण विरोध की राजनीति दक्षिण भारत, उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे क्षेत्रों में अवश्य प्रचलित थी, किंतु वह व्यापक सामाजिक संघर्ष का रूप नहीं ले सकी थी।

मंडल आयोग की संस्तुतियाँ लागू होने के बाद हिन्दू समाज में जातिगत विभाजन गहराया और आरक्षण को लेकर समाज दो भागों में बँट गया। परंतु यह बँटवारा संगठित वैचारिक युद्ध जैसा नहीं था। 2014 में जब कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई, तभी से इस जातिगत वैमनस्य को योजनाबद्ध ढंग से हवा दी जाने लगी।

रोहित वेमुला प्रकरण और वैचारिक राजनीति की शुरुआत

2016 में हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला द्वारा आत्महत्या कर लेने की घटना को वामपंथी, दलितवादी और मीडिया समूहों द्वारा सुनियोजित ढंग से एक जातीय उत्पीड़न के रूप में प्रस्तुत किया गया। उस समय की मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी को इस्तीफा देने हेतु बाध्य किया गया। रोहित वेमुला को दलित घोषित किया गया, जबकि बाद में यह तथ्य सामने आया कि वह OBC समुदाय से था। तथापि, इस प्रकरण के माध्यम से एक नया नैरेटिव खड़ा किया गया कि “भारत में दलितों की हत्या हो रही है और सत्ता मौन है”।

इसके पश्चात आरक्षण को लेकर देश के विभिन्न राज्यों में जातिगत आंदोलन उभरने लगे:

राजस्थान में गुर्जर आंदोलन,

हरियाणा में जाट आंदोलन,

गुजरात में पटेल आंदोलन (जिसका नेतृत्व हार्दिक पटेल ने किया)।

इन आंदोलनों ने केवल प्रशासन को ही नहीं, अपितु समाज की एकता को भी गहरा आघात पहुँचाया। गुजरात में 2017 के विधानसभा चुनावों में भाजपा को बहुमत तो प्राप्त हुआ (99/182 सीट), किंतु जातिगत राजनीति के कारण उसकी लोकप्रियता में भारी गिरावट दर्ज की गई।

इसी कालखंड में, भीमा-कोरेगांव हिंसा (1 जनवरी 2018) ने जातिगत राजनीति को और धार दी। इस हिंसा के लिए सवर्णों को दोषी ठहराने का प्रयास हुआ, परन्तु जाँच में स्पष्ट हुआ कि इसके पीछे अर्बन नक्सल और वामपंथी नेटवर्क था, जिन्होंने प्रधानमंत्री मोदी की हत्या की साजिश भी रची थी। किन्तु वामपंथी मीडिया और बुद्धिजीवी वर्ग ने इसे ‘विक्टिम कार्ड’ कहकर खारिज कर दिया। इसी समय पहली बार "Resist-Rebel-Reject" का वामपंथी सूत्र खुलकर दिखाई दिया।

फिर SC-ST एक्ट के एक सुप्रीम कोर्ट के निर्णय ने देश में आग सुलगा दी—निर्णय केवल यह कहता था कि बिना जाँच के गिरफ्तारी न हो। लेकिन अफवाह फैलायी गई कि भाजपा आरक्षण समाप्त कर देगी।
2 अप्रैल 2018 को देशव्यापी ‘भारत बंद’ हुआ। सड़कों पर हिंसा, तोड़फोड़ और जनहानि हुई। इसके दबाव में सरकार ने सुप्रीम कोर्ट का निर्णय पलट दिया। परिणामस्वरूप सवर्ण समुदाय में भी असंतोष पनपा।

मैं उस समय कक्षा 11वीं का छात्र था। मैंने स्वयं देखा कि पहले SC-ST आंदोलन हुआ, फिर सवर्णों ने भी प्रतिक्रिया स्वरूप आंदोलन किया। सवर्ण आंदोलन में हिंसा नहीं हुई, लेकिन वामपंथियों द्वारा उनके भीतर यह दंश भर दिया गया कि भाजपा तुम्हारे साथ अन्याय कर रही है। "नोटा दबाओ" जैसे अभियान चलाए गए।
यहाँ तक अफवाह फैलाई गई कि यदि किसी क्षेत्र में नोटा को प्रत्याशी से अधिक मत मिलें तो चुनाव निरस्त हो जाएगा—जो कि संविधान में कहीं भी प्रावधानित नहीं है।

2018 के मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा चुनावों में इन जातिगत भावनाओं ने निर्णायक भूमिका निभाई। द्विआधारी सिद्धांत के प्रभाव में दो जातीय समूह आमने-सामने आ खड़े हुए, जिसका प्रत्यक्ष परिणाम हुआ कि भाजपा तीनों राज्यों में पराजित हो गई।

इसके पश्चात सवर्णों के लिए आर्थिक आधार पर 10% आरक्षण देने की घोषणा की गई, जिससे कुछ समय के लिए जातीय तनाव शांत हुआ। फिर पुलवामा हमले के पश्चात राष्ट्रभक्ति की लहर उठी और भाजपा को 2019 में अभूतपूर्व सफलता मिली—303 सीटें। वामपंथी-कांग्रेसी सोच भी न सकी थी कि मोदी पुनः बहुमत से लौटेंगे।

2019 का यह परिणाम वामपंथी खेमे को गहरा झटका था। सोनिया गांधी के सलाहकार अहमद पटेल एक वक्तव्य दिया था कि एक बार कांग्रेस सत्ता में आ गई तो "हिन्दुत्ववादियों को 100 फ़ुट गहरे गड्ढे में गाड़ दिया जाएगा" और हिंदूवादी 700 से 800 वर्ष तक उठने की हिम्मत भी नहीं कर पाएंगे ।

तब वामपंथियों ने नई रणनीति अपनाई—जाति, भाषा, मज़हब, किसान को लेकर देश को आंदोलनों और अराजकता की आग में झोंका गया। प्रधानमंत्री मोदी के संयम और धैर्य की परीक्षा ली गई। यदि मोदी सरकार उन आंदोलनों को हिंसा से कुचलती तो ये अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों द्वारा घेर ली जाती। परंतु संयम ही विजय बना।

किन्तु 2018 से 2024 तक जातिगत जहर को निरंतर योजनाबद्ध ढंग से फैलाया गया।
बिहार में जातिगत जनगणना इसका प्रमुख उदाहरण है। सोशल मीडिया पर ‘मूलनिवासी विमर्श’ के नाम पर SC-ST-OBC वर्ग के भीतर हिन्दू-विरोधी भावना को पुष्ट किया गया।

यहाँ तक कि तमिलनाडु के उपमुख्यमंत्री उदयनिधि स्टालिन ने सनातन धर्म की तुलना मलेरिया और डेंगू से करते हुए उसके उन्मूलन की माँग की। यह कल्चरल मार्क्सवाद का सबसे घातक सार्वजनिक रूप था—धर्म को नष्ट करने की उद्घोषणा।

सोवियत संघ के पतन के बाद वामपंथी विचारक भारत में कहते थे:

हम समाप्त नहीं हुए हैं, अपितु अब अधिक सशक्त हैं। हमारा लक्ष्य है—हिन्दू धर्म, परिवार व्यवस्था और भारतीय संस्कृति को ध्वस्त करना।"

किन्तु अब यह केवल विचार नहीं रहा; अब यह सार्वजनिक रूप से नीति का विषय बन गया है।
विभिन्न जातियों के भीतर यह विचार भरा जा रहा है कि सवर्णों ने 3000 वर्षों तक उनका शोषण किया, और यह पाठ्यपुस्तकों से निकलकर अब गाँव-गाँव में फैल गया है।

दूसरी ओर, सवर्णों में यह बात फैलायी जा रही है कि—"तुम्हारा हिन्दूराष्ट्र बनने के बाद भी कोई सम्मान नहीं, आरक्षण सीमाएँ बढ़ रही हैं, जनगणना के बाद ‘जिसकी जितनी संख्या, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ लागू होगा, आरक्षण प्राइवेट सेक्टर में भी आएगा..."। यह सब उन्हें भय और आक्रोश की ओर ले जा रहा है।

परिणामस्वरूप, हिन्दू समाज के विविध जातिगत समूह एक-दूसरे के विरुद्ध खड़े हो गए हैं। स्थिति गृहयुद्ध-सदृश बनायी जा रही है, ताकि भारत को अराजकता में ढकेलकर वामपंथी सत्ता स्थापित कर सकें।
धर्म, संस्कृति, परिवार और भारत की एकात्मता को नष्ट करने की खुली योजना बन चुकी है—कहीं अंबेडकरवाद के नाम पर, कहीं परशुराम स्वाभिमान के नाम पर।

2023 में बिहार सरकार द्वारा कराई गई जातिगत सर्वेक्षण ने इस विषवृक्ष को और अधिक उर्वर भूमि प्रदान की। इसके पूर्व सोशल मीडिया पर ‘मूल निवासी बनाम घुसपैठिया ब्राह्मण’ जैसे प्रचार अभियान चलाए गए। "3000 वर्षों के शोषण" जैसी भाषा पुस्तकों तक सीमित न रहकर अब जनचेतना में स्थान लेने लगी।

तमिलनाडु के उपमुख्यमंत्री उदयनिधि स्टालिन द्वारा यह कहना कि "सनातन धर्म डेंगू और मलेरिया है, इसका उन्मूलन होना चाहिए", भारत में कल्चरल मार्क्सवादी विमर्श की पहली सार्वजनिक उद्घोषणा थी।

राम मंदिर निर्माण के पश्चात जनता में यह भावना उत्पन्न हो गई थी कि 2024 में भाजपा को 400 से अधिक सीटें प्राप्त होंगी। किंतु जातिगत भय, अफवाहों और अलग-अलग समुदायों को भड़काने की रणनीति के माध्यम से यह नैरेटिव फैलाया गया कि यदि भाजपा 400 सीटों तक पहुँची, तो संविधान बदल देगी और आरक्षण समाप्त कर देगी।

दूसरी ओर, क्षत्रिय समाज को ‘स्वाभिमान’ के नाम पर आंदोलित किया गया, परिणामस्वरूप भाजपा को 303 से घटकर केवल 240 सीटें प्राप्त हुईं। हालाँकि एनडीए को बहुमत मिला और सरकार बनी, परंतु यह बड़ा राजनीतिक संकेत था कि भारत अब “जातिगत ब्लैकमेलिंग” के चरण में प्रवेश कर चुका है।

 कांग्रेस सहित वामपंथी इकोसिस्टम के दबाव में आकर, मोदी जी के नेतृत्व में एनडीए सरकार द्वारा जातिगत जनगणना कराने का निर्णय लिया गया। पिछले महीने ही जातिगत जनगणना के लिए अधिसूचना (नोटिफिकेशन) भी जारी कर दी गई है। अनुमान है कि मार्च 2027 तक जातिगत जनगणना के आँकड़े सार्वजनिक हो जाएंगे।

परंतु यह एक अत्यंत गंभीर और दूरगामी प्रभाव डालने वाला विषय है। यदि यह जनगणना बिना उचित विवेक, नीति और योजना के संपन्न हुई, तो इसका दुरुपयोग कर भारत में अमेरिका और अफ्रीका जैसे जातीय संघर्षों का वातावरण उत्पन्न किया जा सकता है। जिस प्रकार वहाँ Black vs White की संघर्षपूर्ण स्थितियाँ बनीं, उसी प्रकार भारत में Upper Caste vs Lower Caste का कृत्रिम संघर्ष खड़ा किया जा सकता है।

यह केवल एक राजनीतिक चाल नहीं, अपितु एक गहरे वैचारिक युद्ध का हिस्सा है, जिसका उद्देश्य है:

हिन्दू समाज को जातिगत खेमों में बाँटना,

सामाजिक संघर्ष को वैचारिक गृहयुद्ध में बदलना,

और उसके पश्चात हिन्दू धर्म, संस्कृति, परिवार तथा राष्ट्र को जड़ से उखाड़ फेंकना।

यदि भारत को एक सशक्त राष्ट्र के रूप में देखना है, तो हिन्दू समाज को जातिगत वैमनस्य के इस षड्यंत्र से सावधान रहना होगा। हमारा अस्तित्व, हमारी शक्ति, हमारी एकता में ही निहित है। हमें यह पहचानना होगा कि हमारे विरोधी अब बन्दूक नहीं, विचारधारा के माध्यम से युद्ध लड़ रहे हैं। और इस युद्ध में केवल वही विजयी होगा जो धैर्य, विवेक और संयम से कार्य करेगा।

✍️Deepak Kumar Dwivedi

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