क्या हमें अमेरिका बनना है या सनातन भारत का निर्माण करना है?

आज भारत एक गहरे वैचारिक मोड़ पर खड़ा है। एक ओर पश्चिम की चकाचौंध है — भौतिकवाद, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, उपभोक्तावाद और जीवन के हर संबंध को तोलने वाली बाजारवादी मानसिकता। दूसरी ओर है भारत की आत्मा — सनातन धर्म, परिवार व्यवस्था, परंपरा, त्याग, मर्यादा और कर्तव्य की भावना। इन दोनों के मध्य चल रहा यह संघर्ष केवल विचारों का नहीं है; यह एक ऐसे युद्ध का रूप ले चुका है जिसमें हमारी पहचान, हमारी सभ्यता और हमारे अस्तित्व का भविष्य दाँव पर है।

इस युद्ध को केवल घटनाओं के आधार पर समझना भूल होगी। हमें इसके पीछे छिपे उन अदृश्य षड्यंत्रों को पहचानना होगा जो आज हमारे समाज की जड़ों को खोखला कर रहे हैं — धीरे-धीरे, पर सुनियोजित ढंग से।

वैश्विक बाज़ार शक्तियाँ और वामपंथी एजेंडा — परिवार व संस्कृति के विरुद्ध एक अदृश्य युद्ध

आज का वैश्विक बाज़ार केवल वस्तुओं का व्यापार नहीं करता, वह विचारों का व्यापार करता है। “Global Market Forces” और अंतरराष्ट्रीय फंडिंग एजेंसियाँ उन संगठनों, वामपंथी संस्थाओं और एनजीओ को वित्तीय सहायता प्रदान करती हैं जो भारत की पारंपरिक सामाजिक संरचना — विशेषकर धर्म, परिवार और संस्कृति — को 'पितृसत्तात्मक', 'ब्राह्मणवादी', 'रूढ़िवादी' और 'उत्पीड़क' कहकर खारिज करते हैं।

इन एजेंडों के मुख्य उद्देश्य हैं:

१. परिवार व्यवस्था पर हमला
पश्चिम प्रेरित “व्यक्तिगत स्वतंत्रता” के नाम पर स्त्री-पुरुष संबंधों को विकृत किया जा रहा है। विवाह जैसी पवित्र संस्था को ‘पितृसत्ता’ का प्रतीक कहकर खारिज किया जा रहा है। लिव-इन रिलेशनशिप, समलैंगिक विवाह, सिंगल मदरहुड जैसे मॉडल को प्रचारित कर यह बताया जा रहा है कि परिवार बंधन है, स्वतंत्रता का विरोधी है।

२. धर्म को रूढ़िवाद घोषित करना
धर्म को ब्राह्मणवाद, कर्मकांड, जातिवाद, पितृसत्ता आदि जैसे शब्दों में बाँधकर नीचा दिखाया जा रहा है। कहा जाता है कि धर्म व्यक्तिगत आस्था है, जबकि भारतीय दृष्टि में धर्म सार्वभौमिक सत्य है। धर्म को पूजा-पाठ और मंदिर तक सीमित कर दिया गया है, जबकि उसका स्वरूप अत्यंत विराट, जीवंत और सामाजिक है।

३. समाज को वर्गों में बाँटना
वामपंथी विचारधारा द्वारा वर्ग संघर्ष की अवधारणा को भारत में लागू करने का प्रयास किया गया। जाति, लिंग, भाषा, क्षेत्र और आर्थिक स्थिति के आधार पर समाज को बाँटा गया ताकि एकीकृत सामाजिक चेतना कभी उत्पन्न न हो सके। “दलित बनाम ब्राह्मण”, “महिला बनाम पुरुष”, “हिंदू बनाम अल्पसंख्यक” जैसे द्वंद्व उत्पन्न किए गए, जिनसे भारतीय समाज अंतहीन संघर्ष की स्थिति में धकेला गया।

४. सांस्कृतिक मूल्यों की उपेक्षा
पश्चिमी उपभोक्तावादी संस्कृति को आधुनिकता का नाम देकर प्रचारित किया गया, जिससे हमारी परंपराएं, त्योहार, वेशभूषा, भाषा, खानपान और जीवनशैली हास्यास्पद लगने लगी। यह सांस्कृतिक हीनभावना हमारी नई पीढ़ी को आत्मग्लानि में धकेल रही है।

५. राष्ट्र और धर्म से विमुख करना
“सेकुलरिज़्म” और “ग्लोबल सिटीजन” जैसे नारों से भारतीय युवाओं को यह सिखाया जा रहा है कि राष्ट्र और धर्म पुराने ढांचे हैं, अब मनुष्य केवल ‘नागरिक’ है। यह विचार राष्ट्रभक्ति और सांस्कृतिक गौरव को समाप्त करता है।

इन सबके केंद्र में है एक सुनियोजित उद्देश्य — भारत को उसकी आत्मा से काट देना। क्योंकि एक ऐसा भारत, जो परिवार संस्था में विश्वास करता है, धर्म को जीवन का केंद्र मानता है, और संस्कृति को आत्मगौरव के साथ जीता है — वह कभी किसी वैश्विक बाज़ार का उपभोक्ता मात्र नहीं बन सकता।

इसलिए इन शक्तियों के लिए आवश्यक है कि भारत की आत्मा— उसका धर्म— टूट जाए।

धर्म को मात्र कर्मकांड और व्यक्तिगत आस्था बनाकर समाज से उसकी सार्वजनिक भूमिका समाप्त करना।

जब पश्चिमी मॉडल को "आधुनिकता" के नाम पर हमारे समाज में आरोपित किया जाता है, तो उसका उद्देश्य केवल आर्थिक नहीं होता — यह सांस्कृतिक व वैचारिक उपनिवेशवाद है।

सोनम राजपूत” की त्रासदी और इसका सामाजिक-सांस्कृतिक निहितार्थ

हाल ही में एक घटना सामने आई — सोनम राजपूत नामक एक महिला द्वारा विवाह के कुछ ही दिनों बाद अपने पति की निर्मम हत्या कर दी गई। ऐसी घटनाएं अब असामान्य नहीं रहीं। मीडिया, सिनेमा, वेब सीरीज़ और वामपंथी विमर्श द्वारा लगातार स्त्री को ‘पुरुष-विरोधी स्वतंत्र सत्ता’ के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है, जिससे वह अपने दायित्वों, करुणा, सहजीवन और धर्मबद्धता से कटती जा रही है।

यह कहना पर्याप्त नहीं है कि यह केवल एक “नैतिक पतन” है। यह एक सुनियोजित वैचारिक संक्रमण का परिणाम है। जब हम स्त्री-पुरुष संबंध को केवल यौन स्वतंत्रता और 'स्वतंत्र चुनाव' के आधार पर देखते हैं, तो ‘कर्तव्य’ और ‘त्याग’ जैसे शब्द समाज से लुप्त हो जाते हैं।

एक ओर पुरुषों को ‘शोषक’ कहकर अपराधबोध में डुबोया जाता है, तो दूसरी ओर स्त्रियों को ‘प्रतिशोध की देवी’ के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। यह असंतुलन ही विवाह संस्था के टूटने, पारिवारिक हिंसा, मानसिक विकृति और समाज के विखंडन का कारण बनता है।

धर्म का विस्मरण — और उसकी भूमिका

हमने धर्म को व्यक्तिगत कहकर, और केवल कर्मकांड तक सीमित करके, उसके विराट स्वरूप को भुला दिया है। यही कारण है कि आज समाज धर्म से कटा हुआ है, और जो मूल्य, आदर्श, मर्यादा, नैतिकता हमारे जीवन का आधार थे, वे सब एक-एक करके नष्ट हो रहे हैं।

भारतीय परंपरा में धर्म का अर्थ कभी केवल 'मज़हब' या 'पंथ' नहीं रहा। धर्म न तो ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास का नाम है और न ही किसी एक ग्रंथ या किसी एक समय की व्यवस्था।

धर्म का मूल अर्थ है— धारण करने योग्य सार्वभौमिक सत्य। जो सबको धारण करे और जिसे हम धारण करें।

धर्म का अर्थ है— सृष्टि का वह नियम जिसके बिना जीवन संभव नहीं।
धर्म वही है जो—

सत्य को प्रतिष्ठित करे,

दायित्व और अधिकार का संतुलन करे,

सेवा, त्याग, मर्यादा, करूणा, संयम को जीवन का आधार बनाए,

समाज को सुसंगठित और समरस बनाए।

हमारे यहाँ कहा गया:

धारयति इति धर्मः।
जो धारण करता है, वह धर्म है।

धर्म न व्यक्ति का विषय है, न संप्रदाय का — वह समाज, राष्ट्र और ब्रह्माण्ड का नियामक तत्त्व है। वह केवल पूजा-पद्धति नहीं, जीवनपद्धति है। वह केवल मोक्ष नहीं, समाज की रक्षा का भी माध्यम है।

धर्म केवल साधना नहीं, सेवा भी है।
धर्म केवल आत्मा की मुक्ति नहीं, समाज के उत्थान का पथ भी है।

इसलिए जब हम यह कहते हैं कि "धर्मो रक्षति रक्षितः" — तो उसका तात्पर्य केवल यह नहीं है कि यदि हम धर्म की रक्षा करेंगे तो धर्म हमारी रक्षा करेगा । इसका गहन अर्थ है — यदि हम धर्म को जीवन में धारण करेंगे, तो वही धर्म हमारे परिवार, समाज, राष्ट्र और संस्कृति और सभ्यता की रक्षा करेगा।

धर्म की रक्षा कैसे हो?

धर्म की रक्षा केवल शास्त्रों के वाचन या कर्मकांडों के आयोजन से नहीं होती। धर्म की रक्षा तब होती है जब व्यक्ति स्वयं को धर्म का सेवक मानकर आचरण करता है। धर्म को हम तभी धारण कर सकते हैं जब वह केवल 'मत' नहीं, 'जीवन पथ' बन जाए।

यह सोच कर हम चूक जाते हैं कि धर्म को ‘संरक्षण’ चाहिए। नहीं।
धर्म कोई निर्बल वस्तु नहीं जिसे बचाना हो — धर्म वह शक्ति है जो हमें बचाती है, यदि हम उसे अपने भीतर धारण करें।

यदि हमने धर्म को केवल नामजप, व्रत, उपवास, और आडंबर में सीमित कर दिया, और अपने व्यवहार में अधर्म, असत्य, अन्याय और स्वेच्छाचार को स्थान दे दिया, तो चाहे जितना धर्म-प्रचार कर लें, धर्म हमारे जीवन को नहीं बचा सकेगा।

धर्म की रक्षा का तात्पर्य है —
स्वयं के आचरण में धर्म को लाना।
अपने व्यवहार में सत्य, सेवा, संयम और श्रद्धा को स्थापित करना।
अपने परिवार में धर्म के मूल्यों को संस्कार रूप में बोना।
और समाज में धर्म को मर्यादा और न्याय के रूप में जीवित रखना।

विकल्प क्या है?

क्या हम अमेरिका बनना चाहते हैं — जहाँ विवाह अस्थायी समझौता है, परिवार एक व्यवस्था है, और स्वतंत्रता का अर्थ आत्मनाश?

या हम सनातन भारत बनाना चाहते हैं — जहाँ परिवार कर्तव्य है, स्त्री गरिमा है, पुरुष त्यागी है, धर्म जीवन का पथ है, और स्वतंत्रता मर्यादा से नियंत्रित है?

अब हमें निर्णय लेना होगा। यदि हम इस पथ पर नहीं रुके, तो हर दिन कोई ‘सोनम राजपूत’ किसी निर्दोष व्यक्ति की बलि लेती रहेगी, हर दिन कोई बच्चा माता-पिता की रक्षा से वंचित होगा, और हर दिन समाज में नया विष बीज बोया जाएगा।

अंतिम वाक्य

भारत का भविष्य न अमेरिका के नक्शे पर लिखा जाएगा, न पश्चिम के मॉडल से। भारत का भविष्य लिखा जाएगा — तब, जब हम धर्म को अपने आचरण में, परिवार को अपने जीवन में, और संस्कृति को अपने गर्व में पुनः स्थापित करेंगे।

धर्म को केवल समझिए मत — उसे धारण कीजिए।
संस्कृति को केवल मनाइए मत — उसमें जीना प्रारंभ कीजिए।
परिवार को केवल निभाइए मत — उसकी गरिमा को समझिए।
और भारत को केवल भोग की भूमि नहीं — साधना की भूमि बनाइए।

धर्मो रक्षति रक्षितः।
धर्म की रक्षा करो — वह तुम्हारी रक्षा करेगा।

✍️दीपक कुमार द्विवेदी 

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