आज के भारत में ‘दलित’, ‘आदिवासी’ एवं ‘पिछड़ा’ जैसे शब्द केवल सामाजिक श्रेणियाँ नहीं रहे; ये अब एक राजनीतिक व्याकरण बन चुके हैं—एक ऐसा व्याकरण, जिसमें ऐतिहासिक तथ्यों से अधिक भावनात्मक प्रक्षेपण, और यथार्थ से अधिक वैचारिक एजेंडा दिखाई देता है। यह अत्यंत विचारणीय विषय है कि जिन जातियों ने इस देश के शासन, युद्ध, कृषि, उद्योग, व्यापार और ज्ञान परंपरा को अपने श्रम, संगठन और निष्ठा से सदियों तक पोषित किया, आज उन्हें ही शोषित, वंचित और निम्न के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है।?
राजवंशीय परंपरा और जातीय मिथक
यदि हम तथ्यों की ओर लौटें, तो ओबीसी श्रेणी में सम्मिलित अधिकांश जातियाँ—जैसे कुर्मी, यादव, मौर्य, जाट, मराठा, नाई, तैलिक, बंजारा आदि—कभी न कभी किसी क्षेत्र की सत्ता, प्रशासन, युद्ध, भू-स्वामित्व या कृषि प्रणाली का नेतृत्व कर चुकी हैं। बुंदेलखंड, अवध, बिहार, महाराष्ट्र, कर्नाटक, बंगाल—प्रत्येक क्षेत्र में इन जातियों के स्वतंत्र या सहसत्ताधारी राजवंश रहे हैं। उदाहरणार्थ, यादव जाति को ही लीजिए, जो भगवान श्रीकृष्ण से लेकर द्वारका और मथुरा के यदुवंशीय साम्राज्य से जुड़ी रही है। फिर आज यह जाति ‘वंचित’ कैसे हो गई?
कुर्मी समुदाय, जो पूरे उत्तर भारत में कृषक नेतृत्व में अग्रणी रहा, अनेक स्थानीय शासन व्यवस्थाओं में निर्णायक भूमिका निभाता रहा। मौर्य, शाक्य, नागवंशी, जाट, मराठा—सभी किसी न किसी समय इस राष्ट्र की सैन्य शक्ति, कृषि व्यवस्था और स्थानीय प्रशासन के केन्द्र रहे हैं। क्या यह केवल संयोग है कि जो जातियाँ आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक रूप से सशक्त रही हैं, उन्हें आज पिछड़ा सिद्ध करने का प्रपंच रचा गया?
भारत की जातियाँ भौगोलिक, आर्थिक और सामाजिक कर्मप्रणाली के अनुसार विकसित हुईं। कोई जाति शासन से जुड़ी थी (यादव, मराठा, राजपूत), कोई कृषि से (कुर्मी, लोधी), कोई व्यापार से (बनिया, वैश्य), कोई सेवा से (नाई, बढ़ई), तो कोई अध्यात्म से (ब्राह्मण)। यह विभाजन श्रम के सम्मानजनक संगठन के लिए था।
यह जातियाँ समय के साथ वंशगत हुईं, परंतु यह बुराई नहीं थी। गिल्ड प्रणाली (जैसे शिल्पियों की संघ) विश्वभर में रही है, और यह सामाजिक दक्षता को बढ़ाती थी।
ब्राह्मण - एक मिथकीय ‘शोषक’?
अब बात उस वर्ग की जिसे आजकल के वैचारिक विमर्श में सबसे अधिक दोषी ठहराया जाता है—ब्राह्मण। ब्राह्मण को प्रायः ‘शोषक’ वर्ग के रूप में चित्रित किया जाता है, किंतु क्या यह चित्रण ऐतिहासिक सत्य के अनुकूल है?
शास्त्रों, व्रत कथाओं और पौराणिक साहित्य में ‘दरिद्र ब्राह्मण’ का उल्लेख बार-बार आता है। श्री सत्यनारायण व्रतकथा में एक निर्धन ब्राह्मण भगवान से अन्न की याचना करता है। ब्राह्मण परंपरा में जीवन के चार पुरुषार्थों में ‘धन’ को गौण माना गया है; उसने शिक्षा, साधना, और समाज को दिशा देने का कार्य किया, परन्तु अपने लिए वैभव नहीं माँगा।
इतिहास साक्षी है कि ब्राह्मण ने कभी राजसत्ता की आकांक्षा नहीं की। उसकी शक्ति ज्ञान में थी, वह गुरु था, गवेषक था, मार्गदर्शक था। अंग्रेज़ों ने ब्राह्मणों को सबसे पहले निशाना बनाया क्योंकि वे जानते थे कि जब तक ब्राह्मण समाज जीवित रहेगा, भारत की सांस्कृतिक स्मृति जीवित रहेगी।
ब्रिटिश जनगणना और जातीय विभाजन
ब्रिटिश शासनकाल में जातीय विभाजन एक प्रशासनिक रणनीति बन गया। 1901 की जनगणना में जातियों को धर्म, वर्ण, पेशा और सामाजिक स्तर के आधार पर वर्गीकृत किया गया। 1914 तक भारत की कुल जनसंख्या में तथाकथित "अस्पृश्य" वर्ग की संख्या 2% से अधिक नहीं थी, परंतु 1950 आते-आते यह आँकड़ा 22% तक पहुँच गया। यह वृद्धि जैविक नहीं, अपितु वैधानिक थी—राजनीतिक लाभ हेतु की गई जातीय पुनर्परिभाषा।
फिर आया 1980 का दशक, जब मंडल आयोग ने जातियों के सामाजिक पिछड़ेपन को सरकारी परिभाषा के अनुरूप सूचीबद्ध किया। अचानक से देश की 85% जनसंख्या को "पिछड़ा" घोषित कर दिया गया और 15% को "अगड़ा", जिनमें से अधिकांश कभी शासन या शोषण की भूमिका में नहीं रहे। यह तथाकथित "सामाजिक न्याय" वस्तुतः एक "सांस्कृतिक अन्याय" बन गया।
स्थिति के आधार पर करना शुरू किया।
प्रमुख उदाहरण:
1909 के "Minto-Morley Reforms" के तहत मुसलमानों को अलग निर्वाचक मंडल मिला।
1932 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैमसे मैकडोनाल्ड ने "Communal Award" दिया, जिसमें "अस्पृश्य" वर्ग को हिन्दू समाज से अलग कर राजनीतिक आरक्षण दिया गया।
महात्मा गांधी ने इसके विरोध में आमरण अनशन किया, क्योंकि यह हिन्दू समाज को स्थायी रूप से बाँट देता।
a) मिशनरी प्रचार: ब्राह्मण = अत्याचारी, दलित = पीड़ित
ब्रिटिश काल में ईसाई मिशनरियों ने दलितों को ईसाई बनाने हेतु यह आख्यान गढ़ा कि "ब्राह्मणों ने सदियों तक तुम्हारा शोषण किया, ईसा ही तुम्हारा मुक्तिदाता है।" उन्होंने मनुस्मृति के कुछ अंशों को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया।
Father John Mott (1910): "Hindu society is so cruel that salvation is only possible through conversion."
आज भी अनेक मिशनरी संगठन जैसे World Vision, Open Doors, Compassion International भारत में जाति के नाम पर सामाजिक विद्वेष फैलाते हैं।
b) वामपंथी बुद्धिजीवी: दलित विमर्श को मार्क्सवादी रंग
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU), टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान (TISS) जैसे संस्थानों में वामपंथी इतिहासकारों ने यह सिद्धांत प्रतिपादित किया कि भारत की समस्त सामाजिक व्यवस्था "ब्राह्मणवादी पितृसत्ता" की उपज है। इन्होंने "दलित साहित्य", "बहुजन चेतना", "सांस्कृतिक क्रांति" के नाम पर ऐतिहासिक मिथ्याचार फैलाया।
Romila Thapar, Irfan Habib, DN Jha जैसे इतिहासकारों ने मंदिर निर्माण, हिन्दू राजाओं के गौरव, वेदों की श्रेष्ठता पर प्रश्नचिह्न खड़े किए।
6. वर्तमान स्थिति: NGOs, मीडिया और विदेशी फंडिंग
अनेक अंतरराष्ट्रीय NGOs भारत में "जातीय भेदभाव" के नाम पर रिपोर्ट तैयार करते हैं और संयुक्त राष्ट्र, अमेरिकी आयोगों में भारत को बदनाम करते हैं।
उदाहरण:
Equality Labs की रिपोर्ट में दावा किया गया कि भारत में "दलित" IT सेक्टर में भी शोषित हैं। यह रिपोर्ट Google, Facebook, Microsoft तक फैलाई गई।
Harvard Dalit Project, Ambedkar King Study Circle जैसे संगठन भारतीय जाति व्यवस्था को वैश्विक मानवाधिकार मुद्दा बनाना चाहते हैं।
आरक्षण – अधिकार या वैचारिक प्रलोभन?
आज आरक्षण को अधिकार के रूप में नहीं, अपितु पहचान के रूप में देखा जा रहा है। यह स्थिति तब और अधिक पीड़ाजनक हो जाती है जब वे जातियाँ, जिन्होंने अपने गौरवमयी अतीत में शासन किया, धर्म और संस्कृति का नेतृत्व किया, आज स्वयं को "पीड़ित" सिद्ध करने में लगी हैं, केवल इसलिए कि आरक्षण का लाभ उन्हें मिले। यह आत्मवंचना है, और आत्मगौरव की हत्या है।
क्या हम यह नहीं देख पा रहे कि यह समूचा जातीय विमर्श एक 'क्लासिकल माइनॉरिटी पॉलिटिक्स' का भारतीय संस्करण है? पश्चिमी विचारधाराओं, विशेषकर कल्चरल मार्क्सवाद और आइडेंटिटी पॉलिटिक्स एवं क्रिटिकल रेस थ्योरी के एजेंडे पर चलते हुए, भारत में जातीय वैमनस्य को उभारा जा रहा है।
आज का जातीय विमर्श, मूलतः एक साइकोलॉजिकल कॉलोनी बन गया है। जहाँ लोग अपने अतीत से नहीं, बल्कि दूसरों द्वारा थोपे गए नैरेटिव से स्वयं को परिभाषित करते हैं।
यदि हम नहीं चेते, तो जाति के नाम पर समाज में विघटन, हिंसा, मतांतरण और वैचारिक दासता स्थायी हो जाएगी।
✍️ दीपक कुमार द्विवेदी
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें