हमने सुना है—“बंटेंगे तो कटेंगे, एक रहेंगे तो नेक रहेंगे।” यह केवल एक नारा नहीं है, यह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी की उस ऐतिहासिक चेतावनी का प्रतिबिम्ब है, जिसमें उन्होंने हिन्दू समाज के विघटन और एकता के बीच जीवन-मरण का सम्बन्ध बताया।
किन्तु क्या यह नारा अपने आप में पूर्ण है?
नहीं, यह तब तक अधूरा है जब तक हम यह नहीं जोड़ते
जहाँ वैदिक धर्म समाप्त हुआ, वहाँ हिन्दू सदा के लिए समाप्त हो गया।"
इसलिए यदि हम एक रहें, परंतु हमारे भीतर धर्म न हो, यदि हम संगठित रहें, परन्तु गुरु और वेद से कटे हों, यदि हम 'हिन्दू' तो कहें परन्तु 'सनातन' को त्याग दें—तो वह एकता खोखली है। क्योंकि इतिहास साक्षी है—अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश में हिन्दू समुदाय तब तक जीवित था, जब तक वहाँ वैदिक धर्म, मन्दिर, ब्राह्मण, गुरु परम्परा, और संस्कार जीवित थे।
जैसे ही वेद-विहीन, गुरु-विहीन, संस्कार-विहीन हिन्दू समाज बना—वह मतान्तरण के सामने टिक नहीं पाया। वहाँ जाति थी, पर गुरुकुल नहीं था। वहाँ हिन्दू नाम था, पर धर्म की चेतना नहीं थी।
इसीलिए “एक रहेंगे तो नेक रहेंगे” का अर्थ यह नहीं कि केवल हम राजनीतिक रूप से एक हो जाएँ, या केवल सामाजिक रूप से साथ रहें। इसका अर्थ है—हम वेद, स्मृति, ब्राह्मण, आचार्य, कुलाचार और धर्मशास्त्र की शरण में लौटें। तभी यह एकता सच्ची होगी।
एकता का आधार आस्था, परम्परा और धर्मबोध है—अन्यथा वह केवल एक भीड़ होती है, जो न लक्ष्य जानती है, न दिशा।
हममें से कितनों को यह स्मरण है कि कभी अफगानिस्तान का नाम काबुलिस्तान हुआ करता था, और गंधार, जलालाबाद, बल्ख—ये सब वे स्थान थे जहाँ वैदिक मंत्र गूंजते थे? जहाँ बामियान की गुफाओं में बुद्ध की विशाल प्रतिमाएँ एक पूरी सभ्यता की चेतना को आकार देती थीं?
आज वह भूमि हमारे लिए एक दुःस्वप्न बन चुकी है। वहाँ न कोई कुलदेवता बचा, न कोई गोत्राचार। अब न वहाँ मन्दिर हैं, न मठ, न वेदपाठी ब्राह्मण—बस बचा है एक मौन, एक हिंसा और एक गहरी आत्महीनता। और हम चुप हैं।
लेकिन क्या केवल अफगानिस्तान की कहानी हमें विचलित करती है?
जो आज कट्टर इस्लामी शासन का प्रतीक बन चुका है, एक समय हिन्दू-बौद्ध संस्कृति का महावन था। गंधार, काबुल, जलालाबाद—इन स्थानों पर वैदिक यज्ञों की ध्वनि और बुद्ध की करूणा एकसाथ गूंजती थी। प्रसिद्ध बामियान की बुद्ध प्रतिमाएँ, जिनकी ऊँचाई 180 फीट तक थी, गवाही देती थीं कि यह भूमि केवल युद्ध भूमि नहीं, ज्ञानभूमि भी थी। किन्तु सातवीं शताब्दी के बाद जैसे-जैसे वैदिक परम्परा टूटी, ब्राह्मण और भिक्षु संप्रदायों को विस्थापित किया गया, और धर्मरक्षा हेतु संगठित प्रतिरोध समाप्त हुआ—वैसे-वैसे अफगानिस्तान का इस्लामीकरण प्रारम्भ हुआ।
वर्ष 1901 में अफगानिस्तान में हिन्दुओं की संख्या लगभग 15% थी, जो आज 0.02% से भी कम है। वहाँ न अब कोई वैदिक वेदी बची है, न कुलाचार, न गुरु, न गोत्र, न मंदिर। यह केवल राजनीतिक पराजय नहीं थी—यह सांस्कृतिक आत्मविस्मृति का परिणाम थी, जिसमें समाज अपनी आत्मा से कटकर, बाह्य आक्रांताओं का भोजन बन गया।
जब-जब हिन्दू समाज ने अपनी जड़ों से विमुख होकर परम्परा-विरोधी प्रवृत्तियों को स्वीकारा है, तब-तब उसका सांस्कृतिक विनाश सुनिश्चित हुआ है। यह कोई कल्पना नहीं, बल्कि इतिहास के कठोर अनुभवों से उपजा हुआ सत्य है। लाहौर, कराची, इस्लामाबाद जैसे नगर—जो एक समय आर्य समाज के सुधारवादी आंदोलन के प्रमुख केंद्र थे—आज हिन्दू विहीन इस्लामीकृत नगरों में परिवर्तित हो चुके हैं। वहाँ न वेद का स्वर शेष है, न यज्ञ की अग्नि। यह विचार करना होगा कि जहाँ 'ब्राह्मणवाद' को उन्मूलित करने की सबसे पहली चेष्टा हुई, वहीं हिन्दू समाज का समूल लोप क्यों हुआ?
पर ये सब केवल बाहरी आक्रमणों की कहानी नहीं है। सच्चाई यह है कि जब एक समाज अपने गुरु को तिरस्कृत करता है, अपने मन्दिरों को पुराना समझता है, अपने संस्कारों को बोझ मानता है, और अपने धर्मशास्त्रों पर प्रश्नचिन्ह लगाता है, तब वह समाज स्वतः ही मिट जाता है।
हमें बताया गया कि ब्राह्मणवाद शोषण है। मूर्तिपूजा अंधविश्वास है। कुल, गोत्र, वर्ण सब भेदभाव हैं। और हमने आँख मूँदकर इन सबको त्याग दिया। आर्य समाज ने मूर्तिपूजन को नकारा, ब्रह्म समाज ने मन्दिरों को तुच्छ कहा, और बाद में वामपंथ ने वेदों और स्मृतियों को ही सामाजिक अन्याय का साधन बता दिया। गुरु को दलाल कहा गया, और मन्दिरों को सत्ता का केन्द्र।
फिर क्या हुआ?
हमें 'आर्य-द्रविड़' का झूठा इतिहास पढ़ाया गया। हमें कहा गया—“ब्राह्मण बाहर से आए हैं, तुम्हारे शत्रु हैं”। हमें बांटा गया—जातियों में, क्षेत्रीय अस्मिताओं में, भाषाओं में। नारा दिया गया—"जाति तोड़ो", "ब्राह्मणवाद हटाओ, और हमने इसे क्रांति समझ लिया।
हमारे ही भाई दलित विमर्श के नाम पर हमारे ही मन्दिरों को दलित विरोधी कहने लगे, जबकि वहीं चर्चों में उन्हें पीछे बैठाया जाता रहा। मंडल आयोग आया, और उसने पूरे उत्तर भारत को जातियों में बाँट दिया। जहाँ मन्दिरों में एकता थी, वहाँ राजनीति ने भेद बो दिया।
आज स्थिति यह है कि—
बंगाल इसका दूसरा सशक्त उदाहरण है। बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में यहाँ आनुषंगिक ब्राह्मण विरोधी आन्दोलन, नवजागरण के नाम पर वैदिक परम्परा का उपहास, और बाद में साम्यवाद का प्रभाव तेजी से बढ़ा। बंगाल में ‘बुद्धिजीवी’ वर्ग ने सनातन कर्मकाण्ड, देवी पूजन और आचार्य परम्परा को ‘पिछड़ेपन’ से जोड़ दिया। वर्ष 1951 में पश्चिम बंगाल में हिन्दुओं की जनसंख्या लगभग 78% थी, जो अब 2021 की अनुमानित जनगणना में 69% तक गिर चुकी है। यही नहीं, उत्तर 24 परगना, मालदा, मुर्शिदाबाद आदि जिलों में मुस्लिम जनसंख्या 50% से ऊपर पहुँच चुकी है। क्या यह केवल जनसंख्या वृद्धि है? नहीं—यह उस वैचारिक रिक्तता का परिणाम है जो संस्कृति को ‘रुढ़िवाद’ और धर्म को ‘दकियानूसी’ बताकर प्रगतिशीलता के नाम पर थोपी गई।
केरल में जहाँ वर्ष 1957 में पहली बार विश्व का प्रथम लोकतांत्रिक कम्युनिस्ट शासन आया, वहाँ आज ईसाई-मुस्लिम संस्थाओं का शैक्षिक व सामाजिक प्रभुत्व इतना व्यापक हो चुका है कि 2023 के आंकड़ों के अनुसार केरल में ईसाई और मुस्लिम आबादी मिलकर लगभग 46% हो चुकी है, और हिन्दू समाज बुरी तरह खंडित है—नायर्स, एझवाओं, ब्राह्मणों, दलितों, आदि में वैचारिक संवादहीनता स्पष्ट दिखती है।
तमिलनाडु में ब्राह्मणविरोधी आन्दोलन ‘द्रविड़ आंदोलन’ के रूप में 20वीं शताब्दी में आरम्भ हुआ। ई वी रामास्वामी नायकर (पेरियार) द्वारा ‘ब्राह्मण वर्चस्व’ को शोषण बताकर हिन्दू समाज में भेद पैदा किया गया। परिणामतः राज्य में हिन्दू मंदिरों का सरकारीकरण हुआ और ब्राह्मण समाज मुख्यधारा से अलग कर दिया गया। आज तमिलनाडु के 45,000 मंदिर सरकार द्वारा नियंत्रित हैं, जबकि मस्जिदों और गिरजाघरों पर ऐसा कोई अधिकार नहीं है। यह परम्परागत व्यवस्था का हास ही था कि आज तमिलनाडु में ईसाई मिशनरियाँ खुलकर धर्मांतरण कर रही हैं।
पर इस सबके बीच सबसे भयावह बात यह है कि हिन्दू समाज अब संघटन नहीं रहा—वह सिर्फ जनसंख्या रह गया है ।
हमें क्या करना था—और हमने क्या किया
हमें अपने मन्दिरों की रक्षा करनी थी—पर हमने मन्दिरों को 'सिर्फ पुरानी इमारत' मान लिया।
हमें अपने ब्राह्मणों से सीखना था—पर हमने उन्हें पाखण्डी मान लिया।
हमें अपने गुरु की वाणी पर श्रद्धा रखनी थी—पर हमने उन्हें ढोंगी बाबा कहकर खारिज कर दिया।
हमें अपने पुराणों को पढ़ना था—पर हमने उन्हें कल्पना कहकर त्याग दिया।
और फिर हमें लगा कि हम बहुत "प्रगतिशील" हो गये हैं। पर सच यह है कि हम जड़हीन हो गये। और जड़हीन वृक्ष अधिक समय तक खड़ा नहीं रह सकता।
इसके विपरीत यदि हम मध्यप्रदेश, गुजरात, राजस्थान या छत्तीसगढ़ हिमाचल की स्थिति देखें, जहाँ आज भी ब्राह्मण आचार्य सत्ता, वैदिक परम्परा, देवस्थान प्रतिष्ठान और कुलधर्म की चेतना बची हुई है—वहाँ न केवल हिन्दू जनसंख्या स्थिर है, बल्कि सामाजिक तानाबाना भी अपेक्षाकृत सुदृढ़ है।
उदाहरणस्वरूप—गुजरात में 2021 की जनगणना के अनुसार हिन्दुओं की संख्या 88% से ऊपर है, जबकि यहाँ पर वामपंथी विचारधारा या ब्राह्मण-विरोधी आन्दोलन कभी प्रभावी नहीं हो सके। यहाँ मंदिर समितियाँ अभी भी सक्रिय हैं, गोत्र-विवाह नियम प्रचलन में हैं, और वैदिक यज्ञोपवीत जैसे संस्कार जीवित हैं।
अब यदि हम अफगानिस्तान की ओर देखें—जहाँ एक समय में गंधार कला, बौद्ध विश्वविद्यालय, और हिन्दू-बौद्ध संस्कृति की समृद्धि थी। परन्तु अरब आक्रांताओं के बाद जब वहाँ की परम्पराएँ और जातीय संरचना टूटी, तो वर्ष 1901 में वहाँ की हिन्दू जनसंख्या 15% थी जो अब घटकर 0.02% के लगभग रह गई है। मंदिरों को मस्जिदों में बदला गया और सनातन चिह्न मिटा दिए गए।
इन ऐतिहासिक तथ्यों से यह स्पष्ट है कि जब-जब समाज अपने कुल, वंश, धर्म, ब्राह्मण, गुरु, कर्मकाण्ड, वर्णाश्रम और वैदिक संस्थानों से विमुख हुआ—तब वह बाह्य विचारधाराओं का शिकार होकर या तो मतांतरित हुआ, या सांस्कृतिक रूप से मिट गया।
इसलिए यह प्रश्न केवल ब्राह्मणवाद बनाम समानता का नहीं है। यह प्रश्न है—“क्या हिन्दू समाज बिना ब्राह्मण के, बिना आचार्य परम्परा के, बिना वैदिक कर्मों के जीवित रह सकता है?”
उत्तर स्पष्ट है—नहीं। क्योंकि जिस दिन हम धर्म का केंद्रीय स्तम्भ गिरा देंगे, उसी दिन हमारी पहचान का शेष ढांचा भी ढह जाएगा।
आज यह भी स्वीकारना आवश्यक है कि वर्णाश्रम व्यवस्था ‘शोषण’ नहीं, उत्तरदायित्व आधारित सामाजिक संरचना थी, जो सह-अस्तित्व को सम्भव बनाती थी। प्रत्येक वर्ण का अपना कर्तव्य था। ब्राह्मण तपस्वी था, क्षत्रिय रक्षक था, वैश्य पोषक था और शूद्र सहायक था। यह एक समवाय था, न कि वैमनस्य।
क्योंकि जब तक हम अपने आप को नहीं स्वीकारते—दुनिया हमें पहचानने को तैयार नहीं होगी।
यह लेख नहीं, एक प्रार्थना है...
यदि आप इस लेख को पढ़कर एक बार भी अपने कुलगुरु, कुलदेवता, मन्दिर, गोत्र या वैदिक परम्परा को स्मरण करें—तो यह लेख सफल हो गया।
हमें फिर से वह बनना होगा, जो कभी हम थे—
गर्व से कह सकने वाले हिन्दू।
✍️ दीपक कुमार द्विवेदी
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