आज प्रातःकाल एक व्हाट्सएप समूह में उत्तराखंड की एक अत्यंत पीड़ादायक और घृणित घटना का विवरण पढ़ा। एक माँ अपनी नाबालिग पुत्री का बलात्कार अपने प्रेमी के साथ मिलकर करवा रही थी। यह पढ़कर मन भीतर तक हिल गया। क्या अब किसी भी संबंध पर विश्वास किया जा सकता है? कहीं पत्नी अपने पति की हत्या कर उसे ड्रम में भर रही है, तो कहीं माँ अपने ही बच्चों को फर्श पर पटक कर उनकी हत्या कर रही है। यह सब क्या है? क्या यह उस आधुनिकता और तथाकथित स्वतंत्रता का परिणाम नहीं है, जिसके पीछे समाज अंधेपन में दौड़ रहा है?
आज रिश्तों की मर्यादा, संयम और पवित्रता जैसे शब्द विस्मृत हो चुके हैं। यह सबकुछ उस भौतिकतावादी जीवनदृष्टि का विकृत परिणाम है, जिसमें व्यक्ति को अपनी परंपरा, संस्कृति और समाज के प्रति किसी भी उत्तरदायित्व का बोध नहीं रह गया है। उसे केवल अपनी स्वेच्छा, अपने सुख और अपनी इच्छाओं की पूर्ति चाहिए, चाहे उसके लिए परिवार टूटे, समाज विघटित हो या मानवता ही लहूलुहान क्यों न हो जाए।
इस पाश्चात्य प्रेरित विचारधारा के पीछे एक गहरा षड्यंत्र काम कर रहा है — ग्लोबल मार्केट फोर्सेज, डीप स्टेट, इंश्योरेंस माफिया, और वामपंथी संगठनों का ऐसा समवेत तंत्र जो मनुष्य को समाज से, परिवार से, यहां तक कि अपने अस्तित्व के सांस्कृतिक आधार से अलग कर देना चाहता है। उन्हें ऐसा एक "उपभोक्ता" चाहिए जो अकेला हो, आत्मकेन्द्रित हो, और हर छोटी-बड़ी आवश्यकता के लिए बाजार पर निर्भर हो।
संयुक्त परिवार व्यवस्था इस षड्यंत्र की सबसे बड़ी बाधा है। यह केवल एक रहने की प्रणाली नहीं, अपितु एक जीवन दर्शन है जिसमें प्रेम, उत्तरदायित्व, सेवा, परस्पर सुरक्षा और आत्मनियंत्रण जैसे तत्व अंतर्निहित होते हैं। भारतवर्ष में यह व्यवस्था हजारों वर्षों से सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिरता की आधारशिला रही है। यही वह तंत्र है जो व्यक्ति को स्वेच्छाचार की ओर नहीं, अपितु संयम, सेवा और सहजीवन की ओर प्रेरित करता है।
किन्तु आज इस व्यवस्था को योजनाबद्ध रूप से तोड़ा जा रहा है — विशेषकर शहरी क्षेत्रों में एकल परिवार को आधुनिकता का प्रतीक बनाकर प्रस्तुत किया जा रहा है। इस परिवर्तन के पीछे केवल सांस्कृतिक भ्रम नहीं है, अपितु व्यावसायिक हितों का एक विशाल जाल है। यदि परिवार तंत्र मजबूत रहेगा, तो व्यक्ति जीवन के संकटों से निपटने के लिए अपने परिजनों पर निर्भर रहेगा, लेकिन यदि वह अकेला रहेगा तो उसे हर सेवा बाज़ार से खरीदनी होगी — चाहे वह बीमार पड़े, वृद्ध हो, संतान की पढ़ाई हो या वृद्धावस्था की योजना।
बीमा कंपनियाँ, स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र, रिटायरमेंट योजनाएं, चाइल्ड एजुकेशन प्लान — ये सब तभी फलते-फूलते हैं जब पारिवारिक सहयोग तंत्र टूट चुका हो। ये कंपनियाँ सरकारों पर दबाव डालती हैं कि ऐसी नीतियाँ बनाई जाएँ जिससे पारिवारिक सहयोग अप्रासंगिक हो जाए। वे वामपंथी संगठनों और NGO को फंडिंग कर इस कार्य को सामाजिक सुधार के नाम पर आगे बढ़ाते हैं।
ये संगठन महिलाओं को यह विश्वास दिलाते हैं कि मातृत्व एक दासता है, विवाह एक शोषण है, और परिवार एक पितृसत्तात्मक बंधन है। LGBTQ+ समुदाय के नाम पर ऐसे विमर्श चलाए जाते हैं जो विवाह और संतानोत्पत्ति को अप्रासंगिक सिद्ध करने में लगे हैं। बच्चों को यह सिखाया जा रहा है कि माता-पिता की बातों से अधिक महत्त्वपूर्ण है उनकी स्वयं की "चॉइस"। यह सब वस्तुतः परिवार व्यवस्था को तोड़ने की वैश्विक परियोजना का अंग है।
पश्चिमी देश इसका ज्वलंत उदाहरण हैं। अमेरिका, यूरोप, जापान — सभी जगह पहले इस विचारधारा को लागू किया गया। जापान में महिलाओं को करियर के नाम पर विवाह से विमुख किया गया, परिणामस्वरूप वहाँ की जन्म दर इतनी गिर गई कि आज वहाँ की सरकार बच्चों के जन्म पर पैसे दे रही है और फिर भी स्थिति नहीं सुधर रही।
संयुक्त परिवार: वह बंधन, जो मुक्ति देता था
हमारी संस्कृति में परिवार केवल खून के रिश्तों का नाम नहीं था, वह एक जीवंत संस्था थी—जिसमें दादी की गोद में स्नेह था, माँ के हाथों में स्वाद था, पिताजी की डाँट में जिम्मेदारी थी, और भाई-बहनों की लड़ाई में अपनापन था।
संयुक्त परिवार जीवन का वह स्वरूप था, जहाँ हर पीढ़ी अगली पीढ़ी को सँभालती थी। जहाँ बच्चे केवल माँ-बाप के नहीं होते थे, पूरे घर के होते थे। जहाँ बुज़ुर्ग बोझ नहीं, अनुभव के पुस्तकालय होते थे।
लेकिन अब सब कुछ बदल गया है। अब ‘इंडिपेंडेंट’ रहना गर्व की बात है। अब ‘स्पेस’ की बात होती है, रिश्तों के भार की नहीं। अब दादी की कहानियाँ नहीं, नेटफ्लिक्स की वेबसीरीज़ चलती है।
पर सोचिए, क्या यह विकास है? या हम एक योजनाबद्ध ‘विकृति’ में ढल रहे हैं?
पश्चिम और पूर्व का सबक, जो हम भूल रहे हैं
जापान ने एक समय संयुक्त परिवार को ‘पिछड़ा’ बताकर तोड़ दिया। महिलाओं को करियर की ओर धकेला गया, मातृत्व को एक रुकावट बताया गया। आज वहाँ विवाह की दर गिर चुकी है, जन्म दर इतनी कम हो गई है कि सरकार पैसों की रिश्वत देकर भी लोगों को बच्चे पैदा करने के लिए मना नहीं पा रही।
पश्चिम में तलाक अब मात्र एक विकल्प है। विवाह का अर्थ स्थायित्व नहीं, अस्थायी सुविधा बन गया है। बच्चों का पालन-पोषण अब डे केयर की जिम्मेदारी है। विवाह और परिवार ‘ऑप्शन’ हैं, ज़रूरत नहीं।
चीन में भी ‘वन चाइल्ड पॉलिसी’ के कारण एक पूरी पीढ़ी अपूर्ण हो गई। अब वहाँ न संतुलित जनसंख्या है, न पारिवारिक ताने-बाने की वह शक्ति।
और अब यही सब भारत में दोहराया जा रहा है—धीरे-धीरे, योजनाबद्ध तरीक़े से।
हमारे बच्चों के मन में डाली जा रही विकृति
आज की शिक्षा, मनोरंजन और मीडिया—तीनों मिलकर एक ऐसा नैरेटिव बना रहे हैं जिसमें परिवार एक बंधन है, विवाह एक रुकावट है, और मातृत्व एक बाधा है।
NGOs विदेशी चंदों से ऐसे अभियान चलाते हैं, जिनमें महिलाओं को माँ बनने से डराया जाता है, बच्चों को माता-पिता की जगह स्कूल और स्क्रीन पर निर्भर किया जाता है। परिवार की जगह अब इंस्टिट्यूशन्स को लाया जा रहा है। और सब कुछ ‘अधिकारों’ के नाम पर हो रहा है।
लेकिन अधिकार यदि कर्तव्यों से कट जाएँ, तो वह समाज को जोड़ते नहीं, तोड़ते हैं।
हिन्दू समाज: टूटते बंधन, गिरती जनसंख्या
आज हिन्दू समाज की जन्म दर 1.9 रह गई है, जो प्रतिस्थापन स्तर (2.1) से नीचे है। इसके विपरीत, मुस्लिम समाज की जन्म दर 2.9 है। इसका अर्थ स्पष्ट है—यदि यह प्रवृत्ति जारी रही, तो आने वाले दशकों में जनसंख्या संतुलन पूरी तरह बदल जाएगा।
हम मंदिर बनाते रह जाएँगे, पर उनमें पूजा करने वाले नहीं होंगे।
हम संस्कार सिखाते रहेंगे, पर उन्हें ग्रहण करने वाली पीढ़ी नहीं होगी।
अब क्या करना होगा? उत्तर क्या है?
हमें वापसी करनी होगी—संयुक्त परिवार की ओर, मूल्यों की ओर, संस्कृति की ओर।
हमें फिर से वह जीवन अपनाना होगा, जहाँ एक माँ होना गौरव की बात थी, जहाँ पिताजी के साए में सुरक्षा थी, जहाँ बच्चे परिवार की जड़ें होते थे, और बुज़ुर्ग उसकी शाखाएँ।
हमें अपने बेटों से कहना होगा—“कैरियर ज़रूरी है, लेकिन परिवार बनाना उसका सबसे सुंदर हिस्सा है।”
हमें अपनी बेटियों से कहना होगा—“तुम माँ बनोगी, यही तुम्हारा सबसे सुंदर स्त्रीत्व है।”
हमें अपने बच्चों को सिखाना होगा—“स्वतंत्रता का अर्थ अकेलापन नहीं होता।”
और सबसे ज़रूरी बात—हमें हर हिन्दू परिवार को तीन संतानें उत्पन्न करने के लिए प्रेरित करना होगा। यही जनसंख्या संतुलन और सांस्कृतिक अस्तित्व की कुंजी है।
एक पुकार: आत्मा से आत्मा तक
यह केवल एक लेख नहीं है, यह एक आह्वान है।
यह हमारी आत्मा से उस समाज की आत्मा के लिए एक पुकार है—
"संभलो, लौटो, बचाओ।
क्योंकि जब परिवार नहीं बचेगा, तो कोई भी रिश्ता बच नहीं पाएगा।
और जब रिश्ते मर जाएँगे, तो मनुष्य एक उपभोक्ता मात्र बन जाएगा—जीता-जागता रोबोट।
✍️दीपक कुमार द्विवेदी
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