हिन्दू समाज की वैचारिक दशा और सनातन धर्म का आत्मबोध

कभी-कभी बैठकर जब हम वर्तमान हिन्दू समाज की दशा पर विचार करते हैं, तो एक अजीब-सा शून्य मन को घेर लेता है। ऐसा लगता है जैसे हम किसी अदृश्य जाल में फँसते जा रहे हैं— एक ऐसा जाल जिसमें शब्द हैं, मत हैं, वाद हैं, लेकिन आत्मा नहीं है। आज हम 'हिन्दू' हैं, यह कहने से पहले 'मैं राष्ट्रवादी हूँ', 'मैं दलितवादी हूँ', 'मैं ओबीसीवादी हूँ', 'मैं हिन्दुवादी हूँ', जैसे अनेक परिचयों में उलझ जाते हैं। और धीरे-धीरे, यह पहचानें इतनी हावी हो जाती हैं कि हमारा मूल धर्म— सनातन धर्म, हमारे जीवन से ओझल हो जाता है।

हमारे समाज को इन वादों में उलझाने की यह परियोजना कोई संयोग नहीं है। यह एक सुनियोजित प्रयास है, जिसकी जड़ें उन विचारधाराओं में हैं जो भारत की मिट्टी से नहीं उपजीं। ये वे विचार हैं, जो कहती हैं— हमें मानो, अन्यथा मरो। यह कोई कल्पना नहीं, यह अब्राह्मिक मतों का घोषित सिद्धांत है— चाहे वह चर्च की "एक सत्य धर्म" की अवधारणा हो या कट्टर इस्लामी सोच का दार-उल-इस्लाम और दार-उल-हर्ब का भेद। इस सोच में असहमति के लिए कोई स्थान नहीं होता।

यह विचार, जब यूरोप से निकलकर भारत आया, तो उसने हमारे विश्वविद्यालयों, राजनीतिक संस्थाओं और बुद्धिजीवी वर्ग को धीरे-धीरे अपने प्रभाव में ले लिया। और आज हम देख रहे हैं कि उसी सोच की शाखाएँ जातिवाद, दलितवाद, नारीवाद, ओबीसीवाद, सेकुलरवाद आदि नामों से हमारे समाज को भीतर से तोड़ रही हैं। ये सभी ‘वाद’ हमें हमारी सनातन चेतना से काटकर एक ऐसे संघर्ष में ले जाते हैं, जिसमें हम केवल एक-दूसरे से लड़ते हैं— जाति के नाम पर, भाषा के नाम पर, लिंग के नाम पर।

लेकिन क्या यही हमारी पहचान है? क्या एक सनातन धर्म के सेवक के रूप में हमें यही सिखाया गया था? नहीं। हमारे ऋषियों ने कभी हमें किसी ‘वाद’ से नहीं बाँधा। उन्होंने हमें ‘धर्म’ का बोध कराया— वह धर्म जो न किसी जाति से बँधा, न किसी भूगोल से, न किसी किताब से। वह धर्म जो आत्मा और परमात्मा के बीच की जीवंत कड़ी है। वही धर्म जो जीवन को सत्य, करुणा, संयम और न्याय की ओर ले जाता है।

आज हम धर्म नहीं समझ पा रहे, इसलिए हम वादों में भटक रहे हैं। और यह भटकाव केवल सामाजिक नहीं, आत्मिक भी है।

 विचारधारा के नाम पर एक-दूसरे को नीचा दिखाने का प्रयत्न करता है। कोई स्वयं को राष्ट्रवादी कहता है, कोई हिन्दुवादी, कोई सामाजिक न्यायवादी, तो कोई बहुजनवादी। किन्तु दुर्भाग्य यह है कि इन सब संज्ञाओं में उलझकर हम धर्म का, स्वधर्म का बोध ही खो बैठे हैं।

यहाँ एक अत्यंत आवश्यक विचार उपस्थित होता है—जब हम कहते हैं, "मैं सनातनी हूँ", तो यह वाक्य एक दार्शनिक भावना नहीं, बल्कि एक संज्ञा बन जाता है—एक पहचान, जो स्वयं में अधूरी है।
यह वाक्य ऐसा प्रतीत होता है मानो हमने कोई झंडा उठा लिया हो, जो केवल घोषणा करता है—"मैं क्या हूँ", पर यह नहीं बताता कि मैं किस साधना में हूँ, किस कर्तव्य को निभा रहा हूँ।

इसलिए इस वाक्य की जगह यदि हम कहें—
"मैं सत्य सनातन धर्म का सेवक हूँ।"
"मैं धर्म की साधना में प्रवृत्त एक साधक हूँ, जो स्वधर्म का पालन कर रहा है।"
"मैं भारत माता का सेवक हूँ, जिनकी उपासना मेरे जीवन का उद्देश्य है।"

तो यह केवल घोषणा नहीं, बल्कि साधना बन जाती है। यही वह भाव है, जो मनुष्य को अहंकार से दूर कर धर्म की ओर ले जाता है। धर्म कोई झंडा नहीं है, कोई मत नहीं है, कोई राजनैतिक दल नहीं है—धर्म वह आंतरिक प्रकाश है जो व्यक्ति को सत्य के पथ पर चलने की प्रेरणा देता है।

वर्तमान समय में हमारी सबसे बड़ी समस्या यह है कि हम धर्म को समझे बिना वादों के विवाद में उलझ गए हैं। और जब तक हम कलियुग के धर्म को नहीं समझेंगे, तब तक यह उलझन बनी रहेगी।

कलियुग, वह युग है जिसमें अधर्म का विस्तार होता है, पाखण्ड पनपता है, और धर्म की सच्ची साधना दुर्लभ हो जाती है। इस युग में वे ही जीव जन्म लेते हैं, जिन्होंने पूर्वजन्मों में पतन का मार्ग चुना था।
शास्त्रों में कहा गया है कि—

> "कलौ दोषनिधे राजन् अस्ति एको महागुणः।"
"कीर्तनात् एव कृष्णस्य मुक्तसंगः परं व्रजेत्॥"

कलियुग में दोष ही दोष हैं, परन्तु एक महान गुण है—भगवद्कथा, धर्म की चर्चा, और आत्मचिंतन से मोक्ष की ओर अग्रसर होने की क्षमता।

इसलिए यह आवश्यक है कि हम धर्म को समझें, और उसे जीने का प्रयास करें। केवल “हिन्दू” होने से कुछ नहीं होता, जब तक हम अपने धर्म को जानकर उसका आचरण नहीं करते।
हमें यह समझना होगा कि धर्म कोई बहस का विषय नहीं है—धर्म जीवन की उस धारा का नाम है जो मनुष्य को ब्रह्म से जोड़ती है।

अतः अब समय आ गया है कि हम स्वयं को किसी वाद, मत या पहचान की संज्ञा में सीमित न करें। जीवन को जब तक हम ‘सनातन धर्म’ की साधना न बनाएं, तब तक हम केवल शब्दों में उलझे रहेंगे। हमें यह कहने की आवश्यकता नहीं कि “मैं सनातनी हूँ” — क्योंकि यह वाक्य स्वयं में अपर्याप्त है। सनातन कोई संज्ञा नहीं, वह तो शाश्वत साधना का प्रवाह है, जो निरंतर आत्मबोध, करुणा और कर्तव्य की ओर ले जाता है।

इसलिए यदि कुछ कहना हो तो यही कहें— “मैं सत्य सनातन धर्म का साधक हूँ; मैं उस धर्म की सेवा में जीवन अर्पित कर रहा हूँ, जो भाषा, जाति, क्षेत्र और सम्प्रदाय से परे एक शाश्वत तत्त्व है।” मैं भारत माता का सेवक हूँ, किन्तु यह सेवकता केवल नारे या उत्सवों की नहीं, अपितु उनके प्रति मेरे निःस्वार्थ समर्पण की जीवित अनुभूति है।

धर्म मेरे लिए कोई बौद्धिक विमर्श नहीं, वह तो आचरण का वह शांत दीप है जो अंधकार के समय में भी भीतर जलता है। और जब यह दीप जलता है, तब हमें किसी वाद की आवश्यकता नहीं रहती। तब न कोई ‘हिन्दुवाद’, न ‘राष्ट्रवाद’, न 'समाजवाद' हमें परिभाषित करता है, अपितु धर्म का निःशब्द अनुशासन और स्वधर्म की शुचिता ही हमारा स्वरूप बन जाता है।

वास्तव में, यही वह अवस्था है जहाँ साधक वादों के कोलाहल से मुक्त होकर मौन की उस सत्ता में प्रवेश करता है जहाँ केवल धर्म ही शेष रहता है—शुद्ध, शाश्वत, और आत्मस्वरूप।

✍️ दीपक कुमार द्विवेदी

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