कभी-कभी इतिहास खुद को दोहराता नहीं, बल्कि नए वस्त्र पहनकर वही घाव फिर से ताज़ा करता है। भारत की आत्मा को खरोंचने वाली जो भाषा आज राहुल गांधी बोल रहे हैं, वह कोई नई नहीं है। यह भाषा हमें याद दिलाती है उन बीजों की जो बहुत पहले बो दिए गए थे—जैसे कि फुले के कुत्सित लेखन में, पेरियार की मूर्ति तोड़ू राजनीति में, और अंग्रेजों के थिंक टैंक मैक्समूलर की योजनाओं में।
कांग्रेस तथा वामपंथी इकोसिस्टम के दबाव में आकर भाजपा-सरकार द्वारा जातिगत जनगणना कराने का निर्णय लिया गया है। अब राहुल गांधी उक्त जातिगत जनगणना के आंकड़ों के प्रकाश में सामाजिक न्याय के नाम पर आरक्षण बढ़ाने की योजना बना रहे हैं, जिससे हिंदू समाज के दो समुदायों को दो जातियों के रूप में विभाजित कर सामाजिक वैमनस्य एवं शत्रुता उत्पन्न करने की उस परियोजना को बल मिलेगा, जो भारत के विघटन हेतु रची गई है।
“जितनी संख्या भारी, उतनी हिस्सेदारी” — यह नारा भारत की सहस्राब्दी समरसता और सद्भावना की चेतना पर प्रहार है। यह केवल सामाजिक आंकड़ों का संग्रह नहीं, अपितु समाज को कड़ी-कड़ी खाँचों में बाँटने का एक उपकरण है, जिससे एक वर्ग को दूसरे के विरुद्ध खड़ा कराना चाहा जाता है।
अभी जब राहुल गांधी यह कहते हैं कि “देश की 90% संस्थाएं 5% लोगों के हाथ में हैं”, तो उनका संकेत सीधा ब्राह्मणों, सवर्णों, और पारंपरिक हिन्दू सामाजिक व्यवस्था की ओर होता है। यह ठीक वही भाषा है जो अफ्रीका में श्वेतों के विरुद्ध इस्तेमाल की गई थी। और इतिहास गवाह है—विचारों की इस आग ने वहाँ केवल नारे नहीं जलाए, गाँव जले, शव गिरे, संस्कृति उजड़ी।
ऐसी ही आग भारत में भी एक बार लगी थी—बिहार की धरती पर, जब 1980 और 90 के दशक में नक्सली और अतिवादी गुटों ने फुले-पेरियार-लोहिया के जातिगत विमर्श को हथियार बनाया। लक्ष्मणपुर बाथे, बथानी टोला, शंकरबिगहा—ये नाम केवल नरसंहार के स्थल नहीं थे, वे इस वैचारिक विष की चरम परिणति थे जहाँ सैकड़ों हिन्दू सवर्णों को—केवल उनकी जाति के आधार पर—मारा गया। उन नरसंहारों में दोषियों ने यही कहा: "हमारी संख्या ज़्यादा है, अब हमारी सत्ता होनी चाहिए।"
क्या अब राहुल गांधी उसी प्रक्रिया को दोहराना चाहते हैं? क्या वे उस ज़हर की जड़ों को फिर से सींचना चाहते हैं? यह केवल राजनीतिक अपरिपक्वता नहीं है, यह गहरी वैचारिक अनुकृति है—जो अमेरिका से चलकर भारत तक पहुँची है, क्रिटिकल रेस थ्योरी के रूप में, जहाँ हर समाज को “दमनकारी बनाम दमित” की दृष्टि से देखा जाता है। यही दृष्टिकोण कल्चरल मार्क्सवाद का मूल है—जहाँ संस्कृति, धर्म, परिवार, आस्था—सभी को सत्ता के संघर्ष का मैदान बना दिया जाता है।
राहुल गांधी की इस विचारधारा के मूल में यदि झाँकें, तो स्पष्ट होता है कि वे स्वयं किसी गहरी वैचारिक खोज के साधक नहीं हैं। वे इस वैचारिक धारा के शिल्पकार नहीं, केवल एक प्रायोजित पात्र हैं, जिन्हें मंच पर उतार दिया गया है। वास्तव में, उनके आसपास जो सलाहकारों की टोली है, वह सब के सब अत्यंत प्रशिक्षित वामपंथी विचारक हैं, जिनका वैचारिक प्रशिक्षण JNU, टाटा इंस्टिट्यूट, हार्वर्ड, ऑक्सफोर्ड और अमेरिका की क्रिटिकल रेस थ्योरी से प्रभावित संस्थानों में हुआ है। ये लोग भारत को जातीय, लैंगिक, धार्मिक और क्षेत्रीय पहचान की खाँचों में बाँटने के वैश्विक प्रोजेक्ट के 'फील्ड एक्सपर्ट' हैं।
राहुल गांधी इस पूरी वैचारिक कड़ी में केवल एक 'फेस वैल्यू' हैं— Global Left Ecosystem की कठपुतली, जो भारतीय मंच पर स्थानीय भाषाओं में इस थ्योरी का अनुवाद कर रहे हैं। उन्हें स्वयं शायद यह भी नहीं ज्ञात कि वे किस विनाश की भूमिका पढ़ रहे हैं। वे केवल वही दोहरा रहे हैं जो उन्हें बताया गया, वही बोल रहे हैं जो उनके 'थिंक टैंक' उन्हें लिखकर देता है।
विचित्र है कि जिस देश ने अपने सबसे बड़े संतों को ब्राह्मणों, क्षत्रियों, शूद्रों और यहाँ तक कि वनवासियों में भी देखा, उसी देश में अब वंशानुगत राजनीति का वारिस समाज को यह समझा रहा है कि ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार और कायस्थ इस देश के शत्रु हैं। यह बौद्धिक आतंकवाद का स्वरूप है—जहाँ पंडितों की हत्या को 'क्रांति', और हिन्दू एकता को 'फासीवाद' कहने की छूट दी जा रही है।
और सबसे खतरनाक पक्ष यह है कि समाज अभी तक इस बात को एक चुनावी रणनीति मानकर भूल रहा है। परंतु यह मात्र चुनावी शिगूफा नहीं है। यह भविष्य के उस नरसंहार की भूमिका है, जो यदि समय रहते नहीं रोका गया, तो भारत के गाँव-गाँव में 'जातिगत शुद्धि' के नाम पर रक्त बह सकता है।
राहुल गांधी को केवल बालक बुद्धि कहकर छोड़ देना अब मूर्खता होगी। वे जिन वैचारिक धाराओं में तैर रहे हैं, वे सीधे भारत की अखंडता के विरुद्ध खड़ी हैं। वे भले ही इसे 'समावेशिता' कहें, पर यह असल में टुकड़े-टुकड़े की सोच है, जिसमें भारत एक नहीं, केवल एक गिनती बनकर रह जाए—एक वोट, एक जाति, एक संख्या।
अब समय आ गया है जब हम इस वैचारिक षड्यंत्र को न केवल पहचानें, बल्कि उसका उत्तर भी दें—बुद्धि से, शिक्षा से, समरसता से और जागरूक संगठन से। ब्राह्मण होना कोई अपराध नहीं, न ही क्षत्रिय या वणिक होना पाप है। सनातन धर्म की आत्मा ही विविधता में एकता है—और यही वह सत्य है जिसे मिटाने के लिए यह सारा षड्यंत्र रचा जा रहा है।
✍️ दीपक कुमार द्विवेदी
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