मन्दिरों से मानस तक: आक्रांताओं की तलवार और हिन्दू चेतना की विजय

हिन्दू समाज एक दीर्घकालिक संघर्ष की पीड़ा को जीता हुआ समाज है। यह कोई सामान्य सांस्कृतिक द्वंद्व नहीं, बल्कि सम्पूर्ण मानवीय इतिहास का वह दीर्घजीवी संघर्ष है, जिसमें एक ओर वह सभ्यता खड़ी है जो धरती को माता मानती है, जीवन को ऋतमय मानती है, और समस्त सृष्टि में दैवत्व का दर्शन करती है; और दूसरी ओर वे शक्तियाँ हैं, जो सम्पूर्ण पृथ्वी को केवल एक पुस्तक, एक पैगंबर और एक ईश्वर के वर्चस्व में लाना चाहती हैं — चाहे इसके लिए तलवार चले, नरसंहार हों या आत्मा को रौंदने वाले उपनिवेशवादी षड्यंत्र रचे जाएँ।

भारत इस संघर्ष का मुख्य रंगमंच रहा है। जब समस्त विश्व की प्राचीन सभ्यताएँ—माया, मिस्र, यूनान, पारस, अफ्रीका—ईसाईयत या इस्लाम के समक्ष झुक गईं या लुप्त हो गईं, तब भी भारत खड़ा रहा। टूटा अवश्य, किन्तु मिटा नहीं। यहाँ के मन्दिर ध्वस्त किए गए, विश्वविद्यालय जलाए गए, ऋषियों को मारा गया, स्त्रियों को बलात् हरम में डाला गया, वेदों की पाण्डुलिपियाँ राख हो गईं, संस्कृत बोलने पर प्रतिबन्ध लगा, जातियों में विष घोला गया, और फिर भी — यह समाज जीवित रहा। इसने अपने आराध्य को नहीं छोड़ा, अपने मन्त्रों का उच्चारण नहीं छोड़ा, अपने कर्मकाण्ड, अपने ऋषियों की स्मृति, अपनी मातृभाषा, और अपने पुरखों के अधिष्ठान को मिटने नहीं दिया।

इतिहास गवाह है कि भारत में इस्लामी आक्रांताओं द्वारा दस करोड़ से अधिक हिन्दुओं की हत्या की गई। लाखों स्त्रियों का अपहरण और बलात्कार हुआ। और जब यह लहर थमी तो ब्रिटिश ईसाई मिशनरियों की सुनामी आई। पाँच करोड़ से अधिक हिन्दू नीतिगत नरसंहारों, कृत्रिम अकालों, चर्च-प्रेरित मतांतरण और गुलामी के कारण काल के गाल में समा गए। उन्होंने गुरुकुल तोड़े, शिक्षा पद्धति बदली, मैकाले की योजना के अनुसार आत्मविहीन शिक्षित गुलाम तैयार किए। हिन्दू को ही हिन्दू से अलग करने हेतु जातिवाद को योजनाबद्ध रूप से हवा दी गई। पूजा-पद्धति को रूढ़ि घोषित कर दैवी सत्ता को तिरस्कृत किया गया। मन्दिरों की सम्पत्ति को सरकार में वक्फ किया गया, और भारत के मस्तिष्क को “सेक्युलरिज्म” के विष से भर दिया गया।

आज रामलला का मुकुट कोटि-कोटि सूर्यों की आभा को लज्जित करता है, मन्दिर का स्वर्ण कलश एवं पताका आकाश में सनातन के जयघोष का प्रतीक बनकर लहराते हैं। जिन्होंने अयोध्या को श्रीहीन करने का मंसूबा पाला था, वे आज यह तेजस्वी दृश्य देख लें—सनातन चिरंजीवी है।

वे हमारी परम्पराओं को अन्धविश्वास कहकर उपहास करते हैं, किन्तु इसी वर्ष प्रयागराज में आयोजित महाकुम्भ में 70 करोड़ श्रद्धालुओं की उपस्थिति ने यह स्पष्ट कर दिया कि सनातन केवल धर्म नहीं—जीवन का अखण्ड ध्येय है।

और फिर भी — हम जीवित हैं। यह मात्र अस्तित्व की बात नहीं, यह चेतना के अक्षय स्रोत की पुष्टि है। जब अयोध्या में प्रभु श्रीराम के जन्मस्थान पर बाबर का एक म्लेच्छ-ढाँचा खड़ा किया गया, तब हिन्दू समाज ने धैर्य रखा, न्याय की प्रतीक्षा की, और समय आने पर उसे पुनः आत्मगौरव के तीर्थ में बदल दिया। यह केवल एक मन्दिर की पुनर्स्थापना नहीं, बल्कि वह घोषणा थी कि हिन्दू समाज अब जाग गया है। वह केवल सहने वाला नहीं, बल्कि अपने भविष्य का निर्माता भी बनेगा।


यह संघर्ष केवल मजहबी आक्रांताओं से नहीं था, यह आधुनिकता के नाम पर थोपे गए नैतिक पतन, पारिवारिक विघटन, लिव-इन संबंधों, स्त्री के नाम पर परिवार-विरोधी नारीवाद, बच्चों के नाम पर लिंगभ्रमित वोक एजेंडों, और मीडिया-शिक्षा-सिनेमा के माध्यम से प्रचारित आत्मविहीन उपभोक्तावादी संस्कृति से भी है। यह सब उस सभ्यता को नष्ट करने के औजार हैं जो भारत को केवल भूमि नहीं, मातृभूमि मानती है।

किन्तु हर विध्वंस के गर्भ में सृजन का बीज छिपा होता है। हिन्दू समाज ने केवल इतिहास की वेदना नहीं झेली, बल्कि उसे नई दिशा देने का प्रयास भी किया। आयुर्वेद, योग, वेदांत, ध्यान, शास्त्रीय संगीत, वास्तु और वैदिक गणित — ये सब आज फिर से विश्व को आकर्षित कर रहे हैं। जिन्हें पिछड़ा कहा गया, वही आज आधुनिक विश्व के पथप्रदर्शक बनते जा रहे हैं। मन्दिरों में फिर से दीप जल रहे हैं, संस्कृत फिर से पाठशालाओं में गूँज रही है, और युवा फिर से धर्म, परम्परा और गौरव की भाषा में बोल रहे हैं।

संघर्ष अब भी शेष है, किन्तु स्वरूप बदल चुका है। अब युद्ध तलवारों से नहीं, शब्दों से है। अब यह युद्ध विचारों का है। यह तय करेगा कि भारत आत्मविस्मृति की अंधी दौड़ में पश्चिमी उपभोक्तावाद का गुलाम बनेगा या अपनी सनातन चेतना पर आधारित, स्वधर्म से प्रेरित, परिवार-समाज-राष्ट्र की एकात्म दृष्टि पर खड़ा विश्वगुरु राष्ट्र बनेगा।

और इस युद्ध में हमारी विजय सुनिश्चित है — क्योंकि हमारे पास तलवार भले न हो, पर हमारे पास सत्य है। हमारे पास अधिकार भले न हों, पर हमारी आत्मा स्वतंत्र है। और आत्मा की स्वतंत्रता ही सनातन धर्म की सबसे बड़ी शक्ति है।

हाँ, हम नवनिर्माण करते हैं। वे विध्वंस करते हैं। वे इतिहास मिटाते हैं, हम उसे फिर से लिखते हैं। वे कहते हैं, “हमें मानो या मरो।” हम कहते हैं — “सर्वे भवन्तु सुखिनः।” वे कहते हैं — “एक ही ईश्वर है।” हम कहते हैं — “एकोऽहम् बहुस्यामि।”

हमने हजार वर्षों में अपने आस्था की जड़ों को सींचा है — अब हमें उस पर नव जीवन का वृक्ष उगाना है। यह पुनर्निर्माण केवल मंदिरों का नहीं, विचारों का है; केवल स्थापत्य का नहीं, संस्कृति का है; केवल अतीत का नहीं, आने वाले भविष्य का भी है।

हम फिर से उठे हैं — न केवल इसलिए कि हम हिन्दू हैं, बल्कि इसलिए कि हम सनातन हैं। और सनातन कभी समाप्त नहीं होता।



✍️ दीपक कुमार द्विवेदी

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