तुम सोचते हो कि भाजपा अगले बीस साल तक सत्ता में रह सकती है क्योंकि उनके पास मजबूत नेतृत्व है? हाँ, है। मोदी जैसा नेता युगों में आता है। अमित शाह जैसा संगठनकर्ता शायद सौ साल में। लेकिन असल सवाल यह नहीं है कि मोदी के बाद कौन? असल सवाल यह है – क्या कोई भी नेता उस समाज को बचा सकता है, जो खुद ही अपने मूल से कट चुका हो?
आज जिन मुद्दों पर बहस हो रही है—मोदी जी का उत्तराधिकारी कौन होगा, भाजपा फिर से पूर्ण बहुमत लाएगी या नहीं—ये सब बातें सतही हैं। कोई नहीं सोच रहा कि समाज की जड़ें किस हद तक खोखली हो चुकी हैं। जिस हिंदू समाज की रचना ऋषियों ने परिवार, धर्म और परंपरा के सहारे की थी, उस समाज को अब “इंडिविजुअल राइट्स” और “फ्री चॉइस” के नाम पर धीरे-धीरे तोड़ा जा रहा है।
तुम किसी गांव चले जाओ, जहाँ अब भी बुजुर्ग हैं—वहाँ पचास साल पहले की बात पूछो। वह बताएँगे कि पहले एक ही आँगन में तीन पीढ़ियाँ रहती थीं। विवाह एक संस्कार होता था, बच्चा एक पुण्य। अब देखो—बेटा नौकरी के बाद अलग रहने की बात करता है, विवाह बंधन बन चुका है, और संतान… संतान की जगह अब “फैमिली प्लानिंग” है।
नेता तब कुछ कर सकता है, जब समाज में जिजीविषा हो, एकता हो, और सबसे ज़्यादा – आत्मबल हो। आज की तारीख में हिंदू समाज के भीतर ये तीनों चीजें धीरे-धीरे नष्ट की जा रही हैं। और इसमें सबसे बड़ी भूमिका किसी बाहरी ताकत की नहीं, बल्कि उन्हीं सरकारों की है जो हमारे नाम पर चुनी गई थीं।
सरकारों ने पिछले सत्तर वर्षों में जो सबसे गंभीर अपराध किया है, वह यह कि उन्होंने हिंदू समाज की पारिवारिक, सामाजिक और धार्मिक संरचना को योजनाबद्ध तरीके से कमजोर किया। एक तरफ अल्पसंख्यकों को हर स्तर पर विशेषाधिकार मिले—चाहे शिक्षा हो, कानून हो, जमीन हो या धार्मिक स्वतंत्रता—और दूसरी ओर बहुसंख्यकों को बार-बार कानून, व्यवस्था, और संविधान के नाम पर सीमित और अपमानित किया गया।
मुस्लिम समाज के पास अपना पर्सनल लॉ है, अपनी मजहबी शिक्षण संस्थाएँ हैं, और वक्फ बोर्ड के पास लाखों एकड़ ज़मीन है। ईसाई समाज के पास चर्च की स्वायत्तता है, विदेशी फंडिंग है, और शिक्षा संस्थानों का पूरा नेटवर्क है। पर हिंदू समाज? उसका हर बड़ा मंदिर सरकार के अधीन है। उसके बच्चों को गीता नहीं पढ़ाई जा सकती, क्योंकि वह ‘धर्मनिरपेक्षता’ का उल्लंघन मान लिया जाता है। उसे अपनी धार्मिक पहचान को सार्वजनिक रूप से दिखाने में संकोच होता है, क्योंकि उसे ‘कट्टरपंथी’ कहा जाता है।
यहाँ तक कि शिक्षा व्यवस्था भी हिंदू समाज के विरुद्ध तैयार की गई। स्कूलों में पढ़ाया गया कि आर्य बाहर से आए, कि जाति उत्पीड़न का कारण ब्राह्मण हैं, कि गाय की पूजा एक पाखंड है, और राम-कृष्ण पौराणिक चरित्र हैं। बच्चों को यह सिखाया गया कि आधुनिक बनो, मतलब अपने धर्म से कट जाओ। शहरों में पले-बढ़े बच्चे आज मंदिर जाना भी पिछड़ापन मानते हैं।
और यह सब केवल सैद्धांतिक हमले नहीं थे। इनके पीछे एक मजबूत नेटवर्क था—कल्चरल मार्क्सिज़्म का। उसने समाज को तोड़ने के लिए कई मोर्चे बनाए: नारीवाद, आरक्षण, जातीय अस्मिता, लैंगिक अधिकार, निजी स्वतंत्रता, और सबसे अहम—“परिवार-विरोधी विमर्श”। इन सब विमर्शों को प्रचारित करने के लिए मीडिया, एनजीओ, शैक्षणिक संस्थान और ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म्स का उपयोग किया गया। इनके पीछे पैसा आया—विदेशी फाउंडेशनों से, बाज़ारवादी ताक़तों से, और उन अंतरराष्ट्रीय एजेंडों से जो भारत को एक उपभोक्ता समाज बनाना चाहते थे, ना कि सांस्कृतिक राष्ट्र।
सरकारें इसे रोक सकती थीं। पर उन्होंने उल्टे इन विचारों को बढ़ावा दिया। एक तरफ वे मदरसों को अनुदान देती रहीं, उर्दू शिक्षकों की भर्ती करती रहीं, मुस्लिम इलाक़ों में विकास योजनाएँ चलाती रहीं, और दूसरी तरफ हिंदू धार्मिक संस्थानों को भ्रष्टाचार और अफसरशाही के हवाले कर दिया।
अब हालत ये है कि जो समाज कभी परिवार को जीवन का मूल मानता था, वही अब अकेलेपन को ‘फ्रीडम’ समझने लगा है। जहाँ पहले विवाह एक तपस्या था, अब वह एक ‘ऑप्शन’ है। जहाँ पहले संतति को वंश की परंपरा माना जाता था, अब वह “बोझ” बन गई है। हम सोचते हैं, ये बदलाव यूँ ही आ गए? नहीं। ये सरकारों की चुप्पी, समर्थन और सुविधाओं से पले-बढ़े हैं।
अब हालत यह है कि मुस्लिम समाज पहले से ज़्यादा संगठित है। उनके धार्मिक, शैक्षणिक, राजनीतिक और आर्थिक मोर्चे मज़बूत हैं। उनका लक्ष्य स्पष्ट है—अपनी जनसंख्या, पहचान और अधिकार को इस देश में स्थायी बनाना। और हमारे समाज की स्थिति? हम अपने ही धर्म, जाति, भाषा, और क्षेत्र को लेकर आपस में लड़ रहे हैं।
हम यह भूल गए कि जब तक परिवार, परंपरा और धर्म जीवित थे, तब तक हम हर आक्रमण को सह गए। लेकिन अब जब ये तीनों स्तंभ टूट रहे हैं, तो कोई भी नेता—चाहे वह मोदी ही क्यों न हो—हमें बचा नहीं सकता।
इसलिए अब वक्त है कि हम समझें, इस समस्या का हल सत्ता परिवर्तन नहीं है, बल्कि चेतना परिवर्तन है। हमें खुद से पूछना होगा:
– क्या हम अपने परिवार को पुनः प्राथमिकता देंगे?
– क्या हम अपने बच्चों को संस्कार देंगे, सिर्फ डिग्री नहीं?
– क्या हम अपने धर्म को सामाजिक जीवन का केंद्र बनाएँगे, न कि सिर्फ पूजा-पाठ का विषय?
– और क्या हम सरकारों से यह माँग करेंगे कि वे हिंदू समाज के साथ भी उतना ही न्याय करें, जितना वे अल्पसंख्यकों के साथ करती आई हैं?
यही नहीं हुआ, तो याद रखो—जिस समाज की आत्मा खो चुकी हो, उसके लिए कोई विकल्प काम नहीं करता।
ये सब बस यूँ ही नहीं हुआ।
हमें समझना होगा कि पिछले पचास सालों में जो शिक्षा, मीडिया और सामाजिक विमर्श हमारे ऊपर थोपे गए, वे किसी संयोग से नहीं आए। ये सभी कल्चरल मार्क्सिस्ट एजेंडों का हिस्सा थे। उन्होंने धर्म को रूढ़ि कहा, परिवार को पितृसत्ता का अड्डा, और पुरुष को अत्याचारी।
सोचो, ये सब विचार कहाँ से आए?
“माय बॉडी माय चॉइस”, “ब्राह्मणवाद = उत्पीड़न”, “लिव-इन रिलेशन बेहतर है शादी से”—ये सिर्फ नारे नहीं हैं, ये उसी विचारधारा के बीज हैं जिसने व्यक्ति को परिवार से अलग करने की साज़िश रची।
अब ज़रा एक और बात समझो।
इन विचारों को फैलाने के लिए सिर्फ लेख, भाषण या NGO नहीं थे, पैसे की ताकत थी। ग्लोबल फंडिंग आई—फोर्ड फाउंडेशन से लेकर ओपन सोसायटी तक। उन्होंने मीडिया, एनजीओ, शिक्षाविदों, एक्टिविस्टों, फिल्म, मीडिया ओटीटी कंटेंट—हर माध्यम से एक ही काम किया: हिंदू समाज को उसका मूलभूत ढाँचा हीन और अनावश्यक लगे।
जब यह किया जा रहा था, सरकार क्या कर रही थी?
सरकारें तो उल्टा उस अभियान का हिस्सा बन गईं। मुस्लिम पर्सनल लॉ को बनाए रखा गया, पर हिंदू विवाह अधिनियम में बार-बार छेड़छाड़ होती रही। मदरसों को संरक्षण मिला, लेकिन गुरुकुलों को फंडिंग बंद। मंदिरों का सरकारीकरण हुआ, लेकिन चर्च और मस्जिदें अपनी मर्ज़ी से चलती रहीं।
और फिर मीडिया। एक समय था जब संस्कृति के नाम पर भक्ति गीत, लोक परंपराएँ और धार्मिक नाटक आते थे। अब संस्कृति का मतलब हो गया—बोल्डनेस, विद्रोह, ब्रेकअप, रिलेशनशिप, पितृसत्ता के विरुद्ध संघर्ष।
तुम कहोगे कि अब भी कुछ अच्छा हो रहा है—राम मंदिर बन गया, योग अंतरराष्ट्रीय हो गया, लोग राष्ट्रवादी हो रहे हैं।
हाँ, लेकिन ये सब एक व्यक्ति की शक्ति से हुआ है। मोदी जी ने कुछ वर्षों में जो किया, वह अविश्वसनीय है। लेकिन सवाल यह है—क्या समाज उस धारा में टिकेगा?
2024 में लोगों ने जाति के नाम पर, स्वाभिमान के नाम पर, आरक्षण के नाम पर भाजपा को सबक सिखा दिया। और यह वही समाज है जिसे राम मंदिर का सपना सबसे ज्यादा प्रिय था।
अब कोई नेता चाहे जितना शक्तिशाली हो, वह इस बिखरे, भ्रमित और भीतर से टूट चुके समाज को नहीं बचा सकता। अब केवल सत्ता परिवर्तन नहीं, चेतना परिवर्तन चाहिए। और वह चेतना तब तक नहीं आएगी जब तक भारत अपने धर्म को राष्ट्रधर्म के रूप में स्वीकार नहीं करता।
भारत को अब खुले शब्दों में यह कहना होगा कि इस भूमि की आत्मा सनातन धर्म है। यही वह सूत्र है जो शैव, वैष्णव, बौद्ध, जैन, सिख, आर्यसमाजी, वेदांती – सबको जोड़ता है। अब समय आ गया है कि ब्राह्मण और श्रमण परंपराएँ, वेद और उपनिषद, तप और त्याग—इन सबको एक ही सांस्कृतिक छतरी के नीचे लाया जाए।
और जो नेतृत्व यह साहस कर सकेगा, जो सनातन को भारत की सांस्कृतिक रीढ़ के रूप में स्थापित करेगा, वही इस राष्ट्र को इस्लामी, मार्क्सवादी और बाज़ारवादी शक्तियों के शिकंजे से मुक्त करा सकेगा। वरना समय बहुत कम है, और नुकसान अपूरणीय होने की ओर बढ़ रहा है।
अब आगे क्या?
आगे वही होगा जो हो रहा है। जातिगत जनगणना का आँकड़ा आएगा, और हम और बँटेंगे। मीडिया हिंदू परिवार को और दोषी ठहराएगा। शिक्षा व्यवस्था बच्चों को सिखाएगी कि पिताजी की बात नहीं माननी चाहिए। मुस्लिम समाज एकजुट रहेगा, और हम आपस में उलझे रहेंगे।
कितनी भयावह कल्पना है ना कि अगर आज से पंद्रह साल बाद देश के कुछ हिस्सों में गृहयुद्ध जैसी स्थिति बन जाए? और यह कोई काल्पनिक भविष्य नहीं है। जिन इलाक़ों में आज भी वक्फ बोर्ड का कब्ज़ा है, जहाँ हिंदू पलायन कर चुके हैं, जहाँ स्कूलों में राष्ट्रगान नहीं होता—वहाँ वो भविष्य कुछ दूर नहीं है।
समस्या यह है कि हम समाज को नेतृत्व से जोड़कर सोचते हैं, लेकिन नेतृत्व तब ही कुछ कर सकता है जब समाज की ज़मीन उसके साथ हो। मोदी जी जैसे लोग हर समय नहीं मिलते। और यदि समाज अपनी आंतरिक शक्ति खो चुका हो, तो कोई नेता अकेले क्या कर सकता है?
अब भी समय है। पर इसके लिए पहले इस सच्चाई को स्वीकार करना होगा कि हमने अपनी पहचान, अपनी परंपरा, और सबसे बढ़कर अपना परिवार—सब कुछ गिरवी रख दिया है।
अगर इस भूल को ठीक करना है, तो
– हमें अपने परिवार को पुनः एक मूल्य बनाना होगा,
– सनातन धर्म को जीवन का केन्द्रीय सूत्र बनाना होगा,
– और बाज़ार तथा कल्चरल मार्क्सिज़्म के एजेंडों को पहचानकर उनका प्रतिकार करना होगा।
समस्या मोदी जी का उत्तराधिकारी नहीं है, समस्या यह है कि समाज अपनी जड़ों से दूर जा चुका है।
नेता बाद में आएँगे… पहले हमें खुद को खड़ा करना होगा।
✍️ दीपक कुमार द्विवेदी
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें