कई वर्षों से यह बात लगातार दोहराई जा रही है—कि भारत में कुछ जातियाँ सदियों तक शोषित रहीं, और उनके शोषण का कारण एक ही वर्ग था—ब्राह्मण।
यह बात इतनी बार कही गई है कि अब यह तथ्य न सही, सत्य की जगह ले चुकी है।
पर क्या किसी समाज को इस प्रकार एकतरफा आरोपों के आधार पर दोषी ठहराया जा सकता है?
क्या वास्तव में ब्राह्मण वह वर्ग था, जिसने भारत को सांस्कृतिक, आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से गिराया?
या यह एक राजनीतिक आख्यान है, जो सुनियोजित रूप से फैलाया गया?
क्या ब्राह्मणों ने शासन किया?
इतिहास साक्षी है—भारत पर राज करने वाले शासक राजपूत, यादव, मराठा, जाट, पाल, सेन, मौर्य, गुप्त, चोल, पल्लव, गोंड, भील, भूमिहार, कुर्मी, अहोम, बुंदेला, वर्मन, और यहाँ तक कि मुस्लिम वंशज रहे हैं।
ब्राह्मण कभी शासक नहीं रहे। उन्होंने न भूमि पर कर वसूला, न सैन्य शासन चलाया, न व्यापार पर नियंत्रण रखा।
ब्राह्मण का जीवन यज्ञ, वेदाध्ययन, शिक्षा, संयम और सेवा से जुड़ा रहा। मनुस्मृति में भी ब्राह्मण के लिए धन संचय वर्जित बताया गया है। वह तो अपने तप, विद्या और संयम से समाज में श्रद्धा अर्जित करता रहा।
तो फिर प्रश्न उठता है—जिसने न सत्ता चलाई, न सम्पत्ति रखी, वह कैसे शोषक हो सकता है?
भारत की समृद्धि और पतन का कौन उत्तरदायी?
आज जब कहा जाता है कि भारत सदियों तक 'दलित, शोषित, पीड़ित' समाज था, तो यह विचार एक और प्रश्न खड़ा करता है—
तो फिर वह भारत कैसे बना जिसकी अर्थव्यवस्था विश्व में पहले स्थान पर थी?
बस एक सवाल… क्या सच में ब्राह्मणों ने हमारे देश की ताकत और आत्मा को कुचला? या कोई और उस जिम्मेदारी का अधिकारी था?
यदि 85% आबादी “शोषित और उत्पीड़ित” थी, तो उस भारत ने आर्थिक, बौद्धिक और सांस्कृतिक शिखर कैसे छुआ?
क्या कोई समाज स्थायी उत्पीड़न में रहकर आर्थिक महाशक्ति बन सकता है?
जब आप इतिहास की खोली खोलते हैं, तब पता चलता है:
1000 ई॰ तक हमारा देश विश्व की GDP का करीब 30–33% हिस्सा उत्पन्न करता था ।
मुगल काल में यह घटकर लगभग 24% रह गया । आज के संदर्भ में देखा जाए तो, भारत वह “सोने की चिड़िया” था।
और फिर अचानक यह आंकड़ा गायब हो गया...
जब अंग्रेज आए और स्थापित हुए, तो लगभग 200 वर्षों में यह गिरकर मात्र 4.2% रह गया ।
ग्लोबल इंडस्ट्रियल आउटपुट में भारत का हिस्सा घट गया 25% से मात्र 2% तक ।
अब बताइए—यह रोजगार ब्राह्मणों ने छीना, या उपनिवेशवादियों ने?
और वह समाज, जो कभी 100% रोज़गार की दशा में था, वही समाज 1947 आते-आते गरीबी, भुखमरी और परावलंबन में क्यों डूब गया?
पहले गाँवों में—लोहार, कुम्हार, बुनकर, वैद्य—हर जाति के हाथ में काम था। हैंडलूम व कुटीर उद्योगों की तरक्की का दौर था ।
लेकिन अंग्रेजों ने ब्रिटिश कपड़े हाथ से बने भारतीय उत्पादों की जगह थोपे—1830 के दशक तक मशीनों से बने कपड़ों ने कई कुम्हारों और बुनकरों की आजीविका छीन ली ।
1813 की चार्टर ऐक्ट के बाद भारतीय वस्त्रों पर भारी शुल्क लग गया, वहीं ब्रिटिश वस्त्र बिना टैक्स डाले आयातित किए गए ।
परिणामस्वरूप,artisan वर्ग टूट गया—हाथ से बना माल बिकना बंद हुआ, और पूर्व में मजदूरों का हिस्सा कृषि में “18.2% → 11.2%” गिरा ।
स्थूल आंकड़े भी भयावह हैं:
1901 से 1941 के बीच कृषि पर निर्भरता बढ़ी—63.7% से 70% तक, जबकि ग्रामीण कुटीर उद्योगों में मजदूरों की संख्या घट गई ।
अंग्रेजों के आने से पहले 32% ग्रामीण वेतन और उत्पादन में योगदान था, लेकिन 1850 के बाद यह लगभग नदारद हो गया ।
जिला-वार तबाही:
1770, 1870–78, 1897–1900 में भारत में अकाल आए, जिसमें क़रीब 30 मिलियन लोग मरे ।
18वीं सदी में ही बंगाल में घरों के हाथ काटने की घटनाएँ हुईं—जिससे हम के बाद की पीड़ा का अंदाज़ा लगा सकते हैं ।
अब हम एक सवाल पूछते हैं—**क्या ऐसी तबाही और बेरोजगारों की तबाही कोई ब्राह्मण व्यवस्था कर सकती है, या यह अंग्रेजों की “डिवाइड और रूल” नीति की देन थी?**
ब्राह्मणों ने लंदन नहीं गए थे,
न उन्हें भारत में मशीनरी का ज्ञान था।
उनकी दुनिया वेदों, यज्ञों और गुरुकुलों की थी—
न फिल्मों की, न फैक्ट्री की।
और फिर यह सवाल—
क्या 'ब्राह्मणवाद' शब्द वेदों में था?
नहीं। यह 19वीं सदी में ईसाई मिशनरियों ने मानव-धर्म भाषाओं में गढ़ा, और बाद में वामपंथियों ने इसे राजनीतिक और शैक्षिक हथियार बनाया ।
आज तो यह चलचित्रों में भी देखा जा सकता है—ब्राह्मण पात्र या तो मूर्ख, स्त्री-विरोधी, या दमनकारी दिखाए जाते हैं। क्या यह सिर्फ सोच का स्वतःस्फूर्त हिस्सा है, या यह कोई वैश्विक 'क्ल्चरल मार्क्सवादी' प्रयोग है?
"ब्राह्मणवाद" शब्द आया कहाँ से?
अब एक और यथार्थ—यह जो 'ब्राह्मणवाद' शब्द है, क्या यह वैदिक परंपरा का हिस्सा है? नहीं।
● यह शब्द 19वीं सदी में ईसाई मिशनरियों द्वारा गढ़ा गया, जिन्होंने भारत में धर्मान्तरण हेतु ब्राह्मणों को सबसे बड़ा “विरोध” माना।
● बाद में वामपंथियों और मार्क्सवादियों ने इस शब्द को राजनीतिक औजार बना दिया।
अब यह फिल्म, साहित्य, राजनीति और विश्वविद्यालयों में गहराई से बैठ गया है।
फिल्मों में ब्राह्मण पात्र या तो ढोंगी होते हैं, या क्रूर।
लिखित विमर्श में ब्राह्मण को 'दमनकारी', 'स्त्रीविरोधी', 'अन्यायकारी' चित्रित किया जाता है।
क्या यह कोई संयोग है?
या यह किसी वैश्विक रणनीति — Cultural Marxism — का हिस्सा है, जिसका उद्देश्य धर्म, परंपरा, परिवार और समाज को तोड़ना है?
जातिगत जनगणना—समाधान या विघटन?
आज “जातिगत जनगणना” को न्याय का माध्यम बताया जा रहा है।
नारा दिया जा रहा है—"जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी"।
पर क्या संख्या ही न्याय है?
जब आँकड़े सामने आएंगे और राजनीति उनका प्रयोग करेगी—तो क्या जातियाँ संख्याबल के आधार पर एक-दूसरे से लड़ने नहीं लगेंगी?
● क्या कोई समाज इस आधार पर चल सकता है कि किसकी संख्या कितनी है?
● क्या इससे समाज में परस्पर द्वेष नहीं बढ़ेगा?
अमेरिका में 'Critical Race Theory' के नाम पर यही किया गया—श्वेतों को शाश्वत अपराधी, अश्वेतों को शाश्वत पीड़ित बताया गया।
आज वही मॉडल भारत में जातियों पर थोपने का प्रयास हो रहा है।
क्या कोई जाति शाश्वत अपराधी हो सकती है?
ब्राह्मणों ने वेद लिखे, उपनिषदों की रचना की, समाज को धर्म और नीति दी, योग और आयुर्वेद का विकास किया।
कई ब्राह्मणों ने दलितों और पिछड़ों के लिए संघर्ष किया।
स्वामी दयानंद, स्वामी विवेकानंद, स्वामी सहजानंद सरस्वती, भगवतीचरण वर्मा, श्रीअरविन्द जैसे ब्राह्मणों ने समाज सुधार में अग्रणी भूमिका निभाई।
तो क्या यह उचित है कि किसी वर्ग को केवल जाति के आधार पर अतीत का अपराधी और वर्तमान का लज्जास्पद बना दिया जाए?
क्या इससे न्याय होगा? या केवल एक नई घृणा और संघर्ष की नींव रखी जाएगी?
उत्तर क्या है?
उत्तर एक ही है—
अब समय आ गया है कि हम ब्राह्मण समाज को अपराधी घोषित करने की प्रवृत्ति पर पुनर्विचार करें।
क्या यह वही समाज नहीं, जिसने वेदों, उपनिषदों, योग, आयुर्वेद, खगोल, गणित और दर्शन की परम्परा को जीवित रखा?
क्या यह वही वर्ग नहीं, जिसने गुरुकुलों में निर्धनों को भी शिक्षा दी, और स्वराज्य के संग्राम में अपने प्राणों की आहुति दी?
तो फिर समाज की समरसता का मार्ग आलोचना और घृणा से नहीं, अपितु समझ और प्रेम से निकलेगा।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए—यदि हम एक को अपराधी और दूसरे को शाश्वत पीड़ित घोषित करते रहेंगे, तो समाज एक दिन भीतर से दरक जाएगा।
और तब न कोई जाति बचेगी, न कोई संस्कृति—केवल बिखराव और वैमनस्य।
✍️ दीपक कुमार द्विवेदी
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