प्रत्येक मंच पर एक प्रश्न बारंबार उठता है कि इस्लामी, वामपंथी एवं क्रिश्चियन मिशनरियों का "इकोसिस्टम" अत्यंत सुदृढ़ एवं प्रभावशाली है, परन्तु हमारे पास ऐसा कोई संगठित इकोसिस्टम नहीं है। यह प्रश्न समय-समय पर हमारी चेतना को झकझोरता है, किंतु हम एक मूलभूत सत्य को समझने में विफल रहते हैं—कि इकोसिस्टम" किसी वैचारिक अथवा राजनीतिक गिरोह की संरचना होती है।
इस्लाम, वामपंथ और ईसाई मिशनरियाँ—ये तीनों एक साझा गिरोह के भाँति कार्य करते हैं। इनका लक्ष्य एक ही है: सनातन धर्म का उच्छेदन। यही कारण है कि भारत विभाजन पूर्व के समय तथा तत्पश्चात भी इनकी संयुक्त गतिविधियाँ स्पष्ट रूप से देखी जा सकती हैं। भारत में ये तीनों शक्तियाँ एक-दूसरे के पूरक बनकर एक संगठित रणनीति के अंतर्गत कार्य करती हैं।
इस्लामी गिरोह मजहबी आतंक, जिहाद, दंगों एवं अस्थिरता के माध्यम से राष्ट्र को विखंडित करता है।
ईसाई मिशनरियाँ सेवा एवं शिक्षण के आवरण में मतांतरण कर, विशेषतः पूर्वोत्तर भारत व मणिपुर जैसे क्षेत्रों में सामाजिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न करती हैं।
वामपंथी शक्तियाँ वर्ग-संघर्ष, जातीय विद्वेष, भाषाई-क्षेत्रीय अस्मिता के नाम पर सामाजिक वैमनस्य को जन्म देती हैं। वे राष्ट्र, संस्कृति एवं धर्म को अफीम बताकर उच्छेदन का आह्वान करते हैं।
तीनों की विचारधारा भिन्न प्रतीत होती है, किंतु लक्ष्य एक है—धर्म, संस्कृति और राष्ट्र की मूल चेतना का नाश। अतः जब लक्ष्य एक हो, तो इकोसिस्टम भी एकीकृत, संगठित और आक्रामक होता है। यही कारण है कि इनका तंत्र मारक, सशक्त और दीर्घकालिक रणनीति से युक्त होता है।
इसके विपरीत, धर्म का इकोसिस्टम नहीं होता—क्योंकि धर्म कोई राजनीतिक गिरोह नहीं होता। धर्म ब्रह्माण्ड का शाश्वत सत्य है। धर्म व्यक्ति को स्वतंत्रता देता है कि वह अपने मत, परंपरा और साधना-पद्धति का चयन स्वयं करे। धर्म में कोई अल्लाह, गॉड, या मार्क्स नहीं होता जिसने एक बार कह दिया तो वही अंतिम सत्य हो गया।
इस्लाम और वामपंथ की मूल अवधारणा में राष्ट्र नहीं होता—इस्लाम वैश्विक उम्मा की बात करता है, वामपंथ "वर्ल्ड कम्युनिज़्म" अथवा वैश्विक सर्वहारा राज्य की। अतः ये कभी राष्ट्र-राज्य की संकल्पना को नहीं अपनाते।
धर्म में राष्ट्र की अवधारणा है—जहाँ परिवार सबसे छोटी इकाई और राज्य अथवा राजा सबसे बड़ी इकाई होता है। धर्म व्यक्ति-केन्द्रित नहीं, समाज-केन्द्रित होता है। धर्म में अनेक मत-मतांतर, परंपराएँ, तर्क-वितर्क एवं शास्त्रार्थ होते हैं। यहाँ विचार थोपे नहीं जाते, अपितु संवाद व मंथन के माध्यम से आत्मसात होते हैं।
इसीलिए धर्म का कोई केंद्रीकृत "इकोसिस्टम" नहीं होता, किंतु धर्म के संगठन हो सकते हैं। परन्तु संगठनों की भी एक सीमा होती है—क्योंकि केंद्रीकरण की अपनी बाधाएँ होती हैं। इसलिए आवश्यकता है कि एक विकेंद्रीकृत, किन्तु संगठित एवं सामर्थ्यशाली "धार्मिक तंत्र" की रचना हो—जो विविध आयामों में समाज को एकजुट कर एक जीवंत "संगठित इकोसिस्टम" के रूप में कार्य करे।
इस संगठित तंत्र की सफलता के लिए समाज की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। समाज को अपने धर्म-रक्षकों, विचार-योद्धाओं, प्रचारकों एवं सांस्कृतिक संरक्षकों का आर्थिक, सामाजिक एवं नैतिक सहयोग करना होगा। इसे संगठनात्मक रूप भी दिया जा सकता है। उदाहरणस्वरूप—
जो धर्मयोद्धा आर्थिक कठिनाइयों से जूझ रहे हों, उन्हें रोजगार एवं कौशल विकास का अवसर प्रदान किया जाए।
जो धर्म के लिए संघर्ष करते हुए वीरगति को प्राप्त हों, उनके परिवार, बच्चों की शिक्षा, कन्याओं के विवाह का दायित्व समाज उठाए।
जो कानूनी झंझटों में फंसे हों, उन्हें विधिक सहायता दी जाए।
हिन्दू युवाओं को प्रशासनिक सेवाओं हेतु तैयार किया जाए—इसके लिए कोचिंग, पुस्तकों व मार्गदर्शन की व्यवस्था हो।
बूँद-बूँद से घट भरता है—इसी प्रकार छोटे-छोटे प्रयासों से एक सशक्त हिंदू संगठनात्मक तंत्र की रचना होगी। यह तंत्र इस्लामी, वामपंथी और मिशनरी शक्तियों के गिरोहबद्ध इकोसिस्टम के समक्ष एक विचारशील, साहसी और शक्तिशाली उत्तर बनकर खड़ा होगा।
यह तंत्र हिंदू समाज के योद्धाओं को सुरक्षा कवच प्रदान करेगा—ताकि वे निर्भय होकर धर्मयुद्ध कर सकें, राष्ट्रधर्म के लिए कार्य कर सकें। इसके लिए सभी धर्मनिष्ठ, राष्ट्रनिष्ठ और हिन्दुनिष्ठ जनों को एक मंच पर आना होगा।
यही समय है—निर्णय का। यह केवल बाह्य शक्तियों से युद्ध नहीं है, अपितु अधर्मनिष्ठ हिन्दुओं से भी संघर्ष है। यह धर्म और अधर्म के मध्य का युद्ध है—जहाँ कोई मध्यम मार्ग नहीं हो सकता।
अतः हम सभी को अपने-अपने स्तर से कार्य करते हुए एक संगठित, विचारवान, वैचारिक एवं रचनात्मक तंत्र की स्थापना करनी होगी—जो सनातन धर्म, भारतीय राष्ट्र एवं संस्कृति की दीर्घकालिक रक्षा कर सके।
✍️Deepak Kumar Dwivedi
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