हमारी आँखें हर दिशा में देखती हैं—समाज की समस्याएँ, परम्पराओं की टूटन, परिवारों का विघटन, बच्चों का भटकाव, युवाओं का मोहभंग और नारी की दिशा में आता बदलाव। हम इन सबका दोष समाज पर डालते हैं। कभी पीढ़ियों के अंतर को कोसते हैं, कभी आधुनिकता को, और कभी शिक्षा को। लेकिन क्या हम कभी ठहर कर यह सोचते हैं कि इन सबके पीछे कोई और है? कोई ऐसा जो हमारी परम्पराओं को गहरे में बैठकर, योजनाबद्ध ढंग से, चुपचाप तोड़ रहा है?
सच कहें तो नहीं। हम केवल लक्षणों से लड़ते हैं, रोग के मूल कारण को पहचानने की कोशिश नहीं करते।
असल में जो शत्रु है, वह दिखाई नहीं देता। वह है—वैश्विक बाजारवादी शक्तियाँ। एक ऐसा अदृश्य तंत्र, जो हमारे समाज को उपभोक्तावादी बना देना चाहता है। उसके लिए मनुष्य कोई भावनात्मक, पारिवारिक, धार्मिक प्राणी नहीं, बल्कि केवल एक ग्राहक है। जो जितना अकेला होगा, वह उतना अधिक खरीदेगा—खुशियाँ भी, संबंध भी, और पहचान भी।
आपने ध्यान दिया होगा कि आज की फ़िल्में, वेब सीरीज, विज्ञापन और सामाजिक माध्यम—सभी एक प्रकार के विचार प्रवाह को संगठित रूप से जनमानस में प्रवाहित कर रहे हैं। संदेश क्या है?—"तुम अपने शरीर के स्वामी हो", "तुम्हारी भावनाएँ ही सर्वोपरि हैं", "व्यक्तिगत स्वतंत्रता परिवार से भी ऊपर है", "विवाह एक पुरातन और अप्रासंगिक संस्था है", "समलैंगिकता सामान्य और स्वाभाविक है", "लिव-इन संबंधों को विवाह की भाँति मान्यता देना आधुनिकता की निशानी है", "वैवाहिक बलात्कार जैसी अवधारणाओं के माध्यम से विवाह को भी एक अपराध सिद्ध किया जा सकता है"।
इन वैचारिक प्रवृत्तियों के बीच, न्यायपालिका द्वारा भी कुछ निर्णय ऐसे आए, जिन्होंने भारतीय पारिवारिक व्यवस्था की जड़ों को हिला दिया। विशेष रूप से, भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498A को शिथिल करने और विवाहेतर संबंधों को 'अधिकार की स्वतंत्रता' के रूप में मान्यता देने वाले निर्णयों ने पत्नियों को वैध पत्नीत्व के अधिकारों से अधिक व्यक्तिगत 'स्वतंत्रता' का अस्त्र दे दिया है। इसका प्रत्यक्ष परिणाम यह हुआ कि आज अनेक स्थानों पर पत्नियाँ अपने पतियों की हत्या कर रही हैं, उन्हें झूठे आरोपों में फँसा रही हैं, और गृहस्थ जीवन को युद्धभूमि में परिवर्तित कर चुकी हैं।
यह कोई साधारण सामाजिक परिवर्तन नहीं, अपितु एक गहन वैचारिक संकट है—जिसका उद्देश्य परिवार को खंडित कर व्यक्ति को बाज़ार का 'उपभोक्ता मात्र' बना देना है। यह सांस्कृतिक विघटन का वह दृश्य है जिसमें प्रेम, त्याग, कर्तव्य, और धर्म जैसे मूल्यों की उपेक्षा कर, अधिकार, इच्छा और भोग को ही जीवन का परम ध्येय बना दिया गया है।
यह सब यूँ ही नहीं हो रहा। इसके पीछे एक पूरी वित्तीय-सांस्कृतिक सेना है—Ford Foundation, Open Society Foundation, UN Women, World Bank, Netflix, Amazon, Disney, Hollywood। ये वो संस्थाएँ हैं जो हमारे बच्चों के मन में यह भर रही हैं कि लिंग कोई निश्चित चीज़ नहीं, कि 126 लिंग हो सकते हैं, कि मातृत्व एक बोझ है, कि विवाह एक समझौता है, और कि पारिवारिक नैतिकता पिछड़ेपन का प्रतीक है।
आप सोच सकते हैं — “क्या यह सब जान-बूझकर किया जा रहा है?”
उत्तर है — हाँ।
अमेरिका, यूरोप, जापान, चीन—इन सब देशों में पहले ही परिवार व्यवस्था को नष्ट किया जा चुका है।
अमेरिका में 40% से अधिक बच्चे ऐसे हैं जिनका कोई पिता नहीं।
जापान में लाखों युवक ‘हिकिकोमोरी’ बन गए हैं—जो अपने कमरे से बाहर नहीं निकलते।
चीन की ‘वन चाइल्ड पॉलिसी’ ने वहाँ के समाज को विकलांग बना दिया है—अकेला, वृद्ध, निसंतान।
अब यह प्रयोग भारत में चल रहा है।
यह प्रयोग 1970 के दशक में शुरू हुआ जब विदेशी संस्थाओं ने वामपंथी बुद्धिजीवियों को फंडिंग देना शुरू किया। उन्होंने हमारी पाठ्यपुस्तकों में से संस्कृति, धर्म, परिवार, नारी की गरिमा—सबको धीरे-धीरे हटाना शुरू किया।
उन्होंने बताया कि “संस्कार” पितृसत्ता है, कि “विवाह” बंधन है, कि “माँ” होना एक विकल्प है, ज़िम्मेदारी नहीं।
हम सबने भी इन बातों को मॉडर्न सोच मानकर धीरे-धीरे स्वीकार कर लिया।
और अब जब श्रद्धा जैसी बेटियाँ लव-जिहाद की शिकार होती हैं, या जब बच्चे सोशल मीडिया के शिकार होकर आत्महत्या करते हैं, या जब युवतियाँ भ्रमित होकर लिव-इन रिलेशन से टूट जाती हैं—तब हम समाज को दोष देते हैं। लेकिन क्या कभी उस अदृश्य शत्रु की ओर उंगली उठाते हैं, जो पूरे परिदृश्य की स्क्रिप्ट लिख रहा है?
वह शत्रु समाज नहीं है, न ही पीढ़ियों का अंतर है।
वह शत्रु है—ग्लोबल मार्केट फोर्सेज, और उनके द्वारा पोषित वामपंथी एनजीओ एवं संस्थाएं, जो यह नहीं चाहती कि भारत में कुटुम्ब बचे, संस्कृति बचे, धर्म बचे।
अब प्रश्न है—क्या समाधान क्या है?
समाधान यह नहीं कि हम सब सन्यासी बन जाएँ। समाधान यह है कि हम जागृत नागरिक बनें।
हम अपने बच्चों के साथ बैठें, बात करें, प्रश्न करें।
हम OTT को नियंत्रित करें, मोबाइल को मर्यादित करें, और धर्म-संस्कार को पुनर्जीवित करें।
यह युद्ध विचारों का है, अस्तित्व का है। और इस युद्ध में केवल वही समाज बचेगा जो अपने संस्कारों, धर्म, परिवार, और परम्पराओं को शस्त्र की भाँति प्रयोग करेगा।
हमारे पास श्रीराम की स्मृति है, श्रीकृष्ण का उपदेश है, भगवद्गीता का दर्शन है, और शिव की ताण्डवी चेतना है—हमें पराजित नहीं किया जा सकता, यदि हम अपने शत्रु को पहचान लें।
✍ Deepak Kumar Dwivedi
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