भारत की सांस्कृतिक आत्मा पर कल्चरल मार्क्सवाद का आक्रमण

यह शिक्षा केवल अंग्रेज़ी भाषा देने नहीं आई थी, वह हमारे ज्ञान, जीवनदृष्टि और संस्कृति को ही हीन सिद्ध करने आई थी। हमारे गुरुकुल, हमारे वेद, हमारे आचार-विचार, हमारी पारिवारिक संरचना—सब कुछ को असभ्य, अवैज्ञानिक और पिछड़ा बताया गया। परिणामस्वरूप, स्वतंत्रता के पश्चात भी भारत ने स्वयं को सांस्कृतिक दृष्टि से पराधीन ही बनाए रखा। न हमने अपने शिक्षा ढाँचे को बदला, न इतिहास को पुनर्लिखा, और न ही उन विचारधाराओं पर प्रश्न खड़े किए जो हमारी अस्मिता के विरुद्ध खड़ी थीं।

क्या हमने समाज के रूप में यह प्रश्न किया कि स्वतंत्र भारत के निर्माण के पश्चात हमारी सरकारों ने क्यों उन विचारधाराओं को पोषित किया जो हमारी ही सांस्कृतिक आत्मा के विरुद्ध थीं? क्यों हमने यह जानने का प्रयास नहीं किया कि पंडित नेहरू से लेकर श्रीमती इंदिरा गांधी और श्री राजीव गांधी तक की नेतृत्वकारी व्यवस्थाओं ने औपनिवेशिक मानसिकता और पाश्चात्य मूल्यों को ही राष्ट्र की नीति का आधार क्यों बनाया? क्या हमने कभी यह चिंता की कि उन सरकारों ने हमारे बच्चों को कैसा चिंतन, कैसा दृष्टिकोण और कैसा आत्मबोध प्रदान किया?

वस्तुतः, जैसे-जैसे समय बढ़ा, सन् 1970 के दशक में 'कल्चरल मार्क्सवाद' नामक एक वैचारिक संक्रमण ने भारत की बौद्धिक भूमि में प्रवेश करना आरम्भ किया। यह संक्रमण धीरे-धीरे हमारे विश्वविद्यालयों—विशेषतः जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, हैदराबाद विश्वविद्यालय, पुणे विश्वविद्यालय तथा जामिया मिल्लिया इस्लामिया जैसे संस्थानों—के परिसर में अपने पाँव पसारने लगा। उस समय की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपनी सत्ता को बनाए रखने की विवशता में समस्त शिक्षा-व्यवस्था, सिनेमा-जगत और संचार-माध्यमों को वामपंथी विचारधारा के अधीन कर दिया। यह एक ऐसा मोड़ था जहाँ राजनीति की चतुराई ने संस्कृति की चेतना को गिरवी रख दिया।

कल्चरल मार्क्सवाद एक प्रत्यक्ष आक्रमण नहीं करता, वह भीतर ही भीतर आत्मा को क्षीण करता है। वह धर्म को रूढ़ि घोषित करता है, परम्पराओं को पिछड़ेपन की संज्ञा देता है, और जीवन-मूल्यों को दमनकारी व्यवस्थाओं के रूप में चित्रित करता है। वह मठ, मंदिर, आश्रम, धर्मशालाएँ—सबको एक-एक कर उपहास और लांछन का विषय बनाता है। वह यह नहीं चाहता कि समाज अपनी जड़ों से जुड़ा रहे, वह चाहता है कि हम अपनी स्मृतियों से ही लज्जित हो जाएँ।

वह यह सिखाता है कि विवाह एक बन्धन है, परिवार एक शोषण की इकाई है, धर्म एक अंधविश्वास है और राष्ट्रभक्ति एक संकीर्ण मानसिकता। वह हमारे युवाओं को ऐसे विचार देता है, जो उन्हें उनके ही मूल से काट देते हैं। और यही इस वैचारिक आक्रमण की सबसे पीड़ाजनक परिणति है—एक ऐसा मनुष्य जो स्वयं से, अपने परिवार से, अपने राष्ट्र से और अंततः अपनी आत्मा से ही विमुख हो जाता है।

बॉलीवुड, वेब सीरीज़ और आधुनिक साहित्य के माध्यम से एक पूरी पीढ़ी के मानस को इस प्रकार ढाला गया कि परिवार बंधन लगे, विवाह बोरियत, मातृत्व बोझ और धर्म पिछड़ापन प्रतीत हो। आपने गौर किया होगा कि आज की अधिकांश फ़िल्में, धारावाहिक और विज्ञापन—सब एक ही नैरेटिव पर कार्य कर रहे हैं: भारतीय परिवार व्यवस्था को हास्यास्पद बनाना, विवाह संस्था को कमजोर करना और स्त्री-पुरुष संबंधों को केवल कामना व सुविधा तक सीमित करना। इन माध्यमों के द्वारा यह सिद्ध किया गया कि जीवन का उद्देश्य केवल स्वतंत्रता, उपभोग और निजता है—और वह भी ऐसी स्वतंत्रता जो किसी बंधन, जिम्मेदारी या धर्मबोध से रहित हो।

इस सांस्कृतिक आक्रमण के दुष्परिणाम आज हमारे समक्ष हैं। सोनम राजपूत नामक युवती द्वारा विवाह के तीन दिन बाद अपने पति की मेघालय में हत्या कर देना कोई अपवाद नहीं है, बल्कि यह उस मानसिक विष का परिणाम है जो वर्षों से पिलाया जा रहा है। यह हत्या केवल व्यक्ति की नहीं, बल्कि उस संस्था की हत्या है जिसे हम ‘परिवार’ कहते हैं
भारतीय समाज की रचना जिन मूल तत्वों पर टिकी है, उनमें सबसे पवित्र और सुदृढ़ संस्था है—परिवार। यह केवल साथ रहने का नाम नहीं, अपितु एक आध्यात्मिक और सांस्कृतिक व्यवस्था है, जो धर्म, कर्तव्य और प्रेम की त्रिवेणी में स्नात होकर पीढ़ी दर पीढ़ी प्रवाहित होती आई है। हिन्दू धर्म में विवाह केवल देह का संयोग नहीं, अपितु आत्माओं का पवित्र मिलन माना गया है, जिसमें निष्ठा, संयम और सन्तानोत्पत्ति का उद्देश्य समाहित होता है। किंतु दुख की बात यह है कि आज न्यायिक व्यवस्था, जिसे धर्म के अनुरक्षक के रूप में कार्य करना चाहिए था, वही संस्था ऐसे निर्णयों की श्रृंखला दे रही है, जो परिवार नामक नींव को ही हिलाने लगे हैं।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 27 सितम्बर 2018 को दिए गए “जोसेफ शाइन बनाम भारत संघ” के ऐतिहासिक निर्णय में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 497 को असंवैधानिक ठहरा दिया गया। यह वही धारा थी जो विवाहेतर संबंधों को दण्डनीय अपराध मानती थी—अर्थात यदि कोई विवाहित स्त्री किसी अन्य पुरुष से संबंध रखती है, तो वह पति की अनुमति के बिना अपराध की श्रेणी में आता था। न्यायालय ने इसे लैंगिक असमानता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के विरुद्ध बताया। इस निर्णय ने उस वैवाहिक मर्यादा को तार-तार कर दिया, जिसे हिन्दू परिवारों में पति-पत्नी के बीच परम धर्म माना गया है। अब विवाह के उपरांत स्त्री-पुरुष के संबंधों में नैतिक या कानूनी प्रतिबंध नहीं रहा, जो पारिवारिक निष्ठा के तंतु को भंग करता है।

इसी प्रकार, 6 सितम्बर 2018 को सर्वोच्च न्यायालय ने “नवतेज सिंह जोहर बनाम भारत संघ” मामले में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 377 को आंशिक रूप से समाप्त कर, समलैंगिक यौन संबंधों को वैधानिक मान्यता दे दी। इस निर्णय के पीछे भी तर्क था—व्यक्तिगत स्वतंत्रता और निजता का अधिकार। परन्तु इस न्यायिक स्वतंत्रता ने हमारे सांस्कृतिक मूल्यों को चुनौती दी। हिन्दू परंपरा में विवाह सन्तानोत्पत्ति और धर्मपालन के लिए होता है, जहाँ स्त्री-पुरुष का स्वाभाविक संयोग ही प्रकृति सम्मत और सामाजिक रूप से मान्य है। समलैंगिक संबंधों की वैधता ने न केवल विवाह की प्राकृतिक परिभाषा को ही परिवर्तित कर दिया, अपितु सन्तति, वंश, और माता-पिता की भूमिका को भी अस्पष्ट कर दिया है।

इन निर्णयों के पश्चात् न्यायालयों द्वारा लिव-इन संबंधों को लेकर दिये गए अनेक निर्देश और फैसले भी उसी दिशा में संकेत करते हैं, जहाँ विवाह एक “वैकल्पिक” संस्था बनता जा रहा है। पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय द्वारा “सुषमा बनाम राज्य” (11 मई 2021) और उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय द्वारा “नन्ही बनाम राज्य” (21 दिसम्बर 2021) में यह स्पष्ट कहा गया कि दो बालिग व्यक्ति यदि विवाह किए बिना साथ रहना चाहें, तो यह उनका संवैधानिक अधिकार है और समाज की नैतिकता इसकी सीमाएं निर्धारित नहीं कर सकती। अर्थात अब गृहस्थ आश्रम केवल वैधानिक विवाह तक सीमित नहीं रहा—वह “सहमति” और “स्वतंत्रता” जैसे शब्दों के आगे बौना बना दिया गया है। यह सोच हमारे हिन्दू दृष्टिकोण में एक गहरी सांस्कृतिक दरार पैदा करती है, जहाँ गृहस्थ जीवन धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की आधारशिला है।

इतना ही नहीं, आज न्यायालय एकतरफा तलाक को भी वैधता प्रदान कर चुके हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा “अमिता बनाम राजीव सिंह” (8 नवम्बर 2021) तथा बॉम्बे उच्च न्यायालय द्वारा “शिखा बनाम निशांत” (16 अगस्त 2022) जैसे मामलों में यह निर्णय दिया गया कि यदि विवाह पूरी तरह टूट चुका हो और संबंधों में सुधार की कोई संभावना न हो, तो विवाह एकपक्षीय रूप से भी समाप्त किया जा सकता है। यह विचार उस सनातन वैवाहिक आदर्श को खण्डित करता है, जिसमें ‘सात जन्मों तक साथ’ का संकल्प लिया जाता है। अब विवाह एक समझौता बन गया है, जिसे सुविधा या मानसिक स्थिति के आधार पर छोड़ा या बदला जा सकता है।

इन सभी निर्णयों का प्रभाव हमें हमारे समाज में स्पष्ट रूप से परिलक्षित हो रहा है। एनसीआरबी की रिपोर्ट (2022) दर्शाती है कि पारिवारिक कलह और विवाहगत असंतोष आत्महत्याओं के सबसे बड़े कारण बन चुके हैं। संयुक्त परिवारों का विघटन, वृद्धाश्रमों की संख्या में भयावह वृद्धि, और बच्चों में मानसिक अस्थिरता के मामले निरन्तर बढ़ते जा रहे हैं। युवा वर्ग अब विवाह से बचने लगा है, या तो लिव-इन की ओर अग्रसर है या विवाह के पवित्र बंधन को केवल सामाजिक दबाव मानकर निभा रहा है। यह स्थिति केवल आंकड़े नहीं, बल्कि समाज के विघटन की त्रासदी है।

यह सही है कि न्यायालय संविधान के प्रावधानों के अनुसार निर्णय देते हैं, किंतु यदि वे समाज की आत्मा को ही खण्डित कर दें, तो संस्कृति की सुरक्षा कौन करेगा? हिन्दू परिवार व्यवस्था केवल कानून पर नहीं, अपितु श्रद्धा, विश्वास और धर्मबोध पर टिकी है। यदि न्याय व्यवस्था इन मूलाधारों को छिन्न-भिन्न करती है, तो इसका उत्तर केवल सामाजिक चेतना ही दे सकती है।

जब 1991 में भारत में आर्थिक उदारीकरण हुआ, तब इसके साथ एक अदृश्य सांस्कृतिक दरार भी जन्मी। लोगों की क्रय-शक्ति बढ़ी, परंतु वैचारिक चेतना घटती गई। मध्यवर्गीय परिवारों ने सरकारी विद्यालयों को छोड़कर निजी, अंग्रेज़ी माध्यम स्कूलों की ओर रुख किया। यह ‘फ़ैशन’ बन गया कि बच्चा अंग्रेज़ी बोले, भले ही रामायण, गीता या वेदों के नाम तक न जानता हो। यही कारण है कि आज एक औसत शहरी बालक अमेरिकी संस्कृति का अनुकरण करता है, पर भारतीय मूल्यों से कट चुका है।

इस समग्र स्थिति में सबसे दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह है कि हम सब, जो स्वयं को हिन्दू, परंपरावादी, राष्ट्रप्रेमी कहते हैं—हम मौन हैं। हमारे सामने जब अधर्म खड़ा होता है, जब हमारी आँखों के सामने एक पीढ़ी नैतिक पतन में डूबती जा रही है, तो हम केवल ‘ट्रोल्स’, ‘फॉरवर्ड्स’ और मौन क्रोध तक सीमित रह जाते हैं। हम न विरोध करते हैं, न विकल्प प्रस्तुत करते हैं।

अब समय आ गया है कि हम केवल प्रतिक्रिया करने वाले समाज न बनें, अपितु पुनः निर्माण करने वाले समाज की भूमिका निभाएँ। हमें अपने घरों में कुटुम्ब प्रबोधन करना होगा। प्रतिदिन एक घंटे का समय, जिसमें हम अपने बच्चों के साथ बैठें, धर्म, राष्ट्र, संस्कृति पर चर्चा करें—यह केवल एक वैकल्पिक अभ्यास नहीं, अपितु अस्तित्व की रक्षा के लिए आवश्यक तपस्या है।

हमारा इतिहास केवल लड़ाइयों और शौर्यगाथाओं का नहीं, बल्कि परिवार, संस्कृति और धर्म के संरक्षण के लिए हुए संघर्षों का इतिहास है। श्रीराम वनवास भले ही राज्य के लिए हुआ हो, पर अंततः उसका उद्देश्य ‘धर्म की स्थापना’ और ‘मर्यादा की पुनर्प्रतिष्ठा’ था। वही धर्म आज संकट में है।

यदि हम अब भी नहीं जागे, यदि हमने परिवार को पुनः धर्ममूलक इकाई नहीं बनाया, यदि हमने स्त्री-पुरुष संबंधों को केवल आकर्षण के स्तर से उठाकर धर्म, उत्तरदायित्व और आदर्श के स्तर पर नहीं पहुँचाया, तो आने वाली पीढ़ियाँ एक ऐसे भारत में जन्म लेंगी जिसे पहचानना भी कठिन होगा।

यह केवल चेतावनी नहीं, अपितु एक आत्मघोषणा है—हमें अपने तीन पीढ़ियों का त्याग करना होगा, परिवार की रक्षा हेतु, धर्म के लिए, संस्कृति की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए। यही युगधर्म है। यही राष्ट्रभक्ति है।

✍️ दीपक कुमार द्विवेदी

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