परिवार बनाम बाज़ार: एक सांस्कृतिक संघर्ष

बाजार के लिए समाज केवल एक उपभोक्ता समुदाय है — एक ऐसा समूह जो अधिकाधिक वस्तुओं की खपत करे, आवश्यकता नहीं तो कृत्रिम आवश्यकता का निर्माण करे। परन्तु, पारिवारिक व्यवस्था इस बाजार के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा है, क्योंकि परिवार में संसाधनों का साझा उपयोग होता है, मूल्य आधारित निर्णय लिए जाते हैं, और आत्म-संयम व संतोष की संस्कृति पनपती है। इसीलिए वैश्विक बाजारवादी शक्तियाँ — जिनके पीछे पूंजीवाद, वामपंथ और उपभोक्तावादी संस्कृति का घातक गठबंधन है — निरंतर इस प्रयास में लगी हैं कि परिवार संस्था का विघटन हो, ताकि हर व्यक्ति एक पृथक इकाई बने, एक स्वतंत्र उपभोक्ता, जो विज्ञापन देखकर निर्णय ले, अपने संस्कारों, संबंधों, और सीमाओं से मुक्त होकर केवल भोग के पीछे भागे।

जिस क्षण परिवार टूटता है, उसी क्षण उपभोक्ताओं की संख्या बढ़ती है। एक संयुक्त परिवार जहाँ एक फ्रिज, एक टीवी, एक गाड़ी में संतुष्ट हो सकता था, वहीं टूटे हुए परिवारों में हर व्यक्ति के लिए पृथक उपभोग की वस्तुएँ चाहिए होती हैं। इस दृष्टि से देखा जाए तो परिवार का विघटन बाजार के लिए ‘विकास’ है, पर समाज के लिए यह ‘विनाश’ है।

यही कारण है कि आधुनिक विज्ञापन, वेब सीरीज़, सिनेमा, और यहाँ तक कि शिक्षा भी अब व्यक्ति को पारिवारिक दायित्वों से दूर कर, स्वार्थ, स्वतंत्रता और भोगवाद के पथ पर ले जाती है। विवाह संस्था पर प्रश्न खड़े किये जाते हैं, मातृत्व को बोझ बताया जाता है, पितृत्व को अत्याचारी कहा जाता है, लिव-इन रिलेशनशिप को 'नवाचार' घोषित किया जाता है, और परिवार की परंपराओं को ‘पिछड़ापन’ कह कर उपहास किया जाता है।
इन सभी प्रयासों के पीछे एक सुनियोजित रणनीति है — ‘परिवार नष्ट करो, उपभोक्ता गढ़ो’।

विश्व के अनेक समाज इस षड्यंत्र के शिकार हो चुके हैं। यूरोप और अमेरिका जैसे देश आज ‘सिंगल मदर’, ‘सिंगल फादर’ या ‘नो फॅमिली’ संस्कृति का दंश झेल रहे हैं। वृद्धाश्रम वहाँ सामान्य हैं, बालक मानसिक रोगों से ग्रस्त हैं, युवाओं में आत्महत्या, हिंसा और व्यसन की प्रवृत्तियाँ बढ़ रही हैं। इसका मूल कारण परिवार का अभाव है — वह संस्था जो मनुष्य को प्रेम, अनुशासन, त्याग और उत्तरदायित्व का पाठ पढ़ाती थी, वह अब व्यवसाय और विज्ञापन के लिए अनुपयोगी घोषित की जा रही है।
अतः यदि हमें समाज की आत्मा को बचाना है, संस्कृति की जड़ों को सुरक्षित रखना है, और संतुलित विकास का मार्ग सुनिश्चित करना है — तो परिवार की रक्षा करनी होगी। हमें यह समझना होगा कि परिवार केवल खून का रिश्ता नहीं, अपितु सभ्यता की नींव है। यह वह केंद्र है जहाँ धर्म, मूल्य, कर्तव्य और प्रेम की शिक्षा मिलती है। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति में ‘कुटुम्ब’ को समाज की प्रथम इकाई माना गया है — ‘कुटुम्बं कुटिलं भवेत् चेत् राष्ट्रं भ्रमंति भवति।’

आज आवश्यकता है कि हम इस बाजारवादी आक्रमण को पहचानें, इसके पीछे छिपे षड्यंत्र को उजागर करें, और अपने परिवारों की रक्षा करें — केवल भौतिक नहीं, मानसिक और सांस्कृतिक स्तर पर भी।

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