एक दिन व्हाट्सएप समूह एक भैया ने मुझसे प्रश्न किया – “सर, इस तेज़ी से बदलती दुनिया में, जहाँ किसी को खुद के लिए भी समय नहीं, वहाँ ‘कुटुम्ब प्रबोधन’ जैसे आदर्श की बात क्या महज़ एक कल्पना नहीं?” मैं क्षणभर मौन रहा। यह केवल उसका प्रश्न नहीं था, अपितु हमारी पूरी पीढ़ी की चिंता थी। यह उस समाज की गूंज थी, जो भीतर ही भीतर खोखला हो रहा है – स्नेह, विश्वास और सामूहिकता से वंचित।
संघ द्वारा घोषित पंच प्रणों में “कुटुम्ब प्रबोधन” का उद्देश्य कोई दार्शनिक कल्पना नहीं, बल्कि अत्यंत व्यावहारिक और यथार्थमूलक संकल्पना है। जब हम कहते हैं कि राष्ट्र को सशक्त करना है, तो उसका प्रारंभ परिवार से ही होता है – क्योंकि राष्ट्र का वास्तविक स्वरूप परिवारों की श्रृंखला है। पर आज प्रश्न यह है कि इस प्रबोधन का कार्य करेगा कौन और प्रारंभ कहां से होगा?
सोनम राजपूत और टूटती संवेदनाएं
कुछ माह पूर्व सोनम राजपूत नामक युवती की नृशंस हत्या की खबर सामने आई। हत्या के पीछे का कारण वही था जो आज हज़ारों परिवारों में अनकहा बोझ बनकर पल रहा है – भावनात्मक विघटन। यह घटना अकेली नहीं थी, यह प्रतीक थी – उस टूटते हुए सांस्कृतिक ताने-बाने की, जो ‘मॉडर्निटी’ के नाम पर हम खोते जा रहे हैं।
हमने देखा है – कभी माँ अपने प्रेमी के साथ मिलकर बेटी का बलात्कार करवा रही है, कहीं बेटे माँ की हत्या कर रहे हैं, और कहीं पत्नी पति को मारकर शव ड्रम में भर रही है। क्या यह वही भारत है जहाँ “मातृदेवो भव” और “पितृदेवो भव” की संस्कृति थी?
विकेन्द्रित सनातन व्यवस्था बनाम केंद्रीकृत पश्चिमी मॉडल
भारत ने 1947 के पश्चात जिस समाजवादी केंद्रीकृत मॉडल को अपनाया, वह भारतीय आत्मा से सर्वथा भिन्न था। 1955 से लेकर 1990 तक, हमें बताया गया कि सरकार ही सबकुछ करेगी। परिणामतः समाज, व्यक्ति और परिवार – तीनों की आत्मनिर्भरता और उत्तरदायित्व-बोध का ह्रास हुआ।
इसके पश्चात 1991 में ‘उदारीकरण’ हुआ। लेकिन यह भी भारत की जड़ों से नहीं उपजा था, यह पश्चिमी पूंजीवाद की ही एक अन्य छाया थी। इन दोनों ही आर्थिक नीतियों ने व्यक्ति को या तो राज्य पर निर्भर बनाया या उपभोक्तावाद का दास।
किन्तु भारत की वास्तविक शक्ति उसकी विकेन्द्रित आर्थिक-सांस्कृतिक संरचना में थी – जहाँ हर गांव, हर परिवार आत्मनिर्भर था, जहाँ राजा केवल रक्षक होता था, शासक नहीं। इस व्यवस्था में समाज के सभी अंग – धर्म, परिवार, व्यापार, सुरक्षा – स्वतंत्र होते हुए भी एकात्म भाव से जुड़े होते थे। यही रामराज्य की नींव थी।
उपभोक्तावाद का सबसे बड़ा शिकार – परिवार
आज यदि आप ध्यान से देखेंगे, तो पाएँगे कि वैश्विक बाज़ारवादी शक्तियाँ सबसे पहले परिवार पर आघात करती हैं। क्योंकि जब परिवार विघटित होता है, तभी व्यक्ति बाज़ार का निर्बाध उपभोक्ता बन पाता है।
पूर्व में एक व्यक्ति की आय से दस लोग पलते थे, आज दोनों जीवनसाथी कार्यरत हैं, फिर भी परिवार असंतुष्ट है। संयुक्त परिवार लगभग समाप्त हो चुके हैं, बुजुर्ग वृद्धाश्रमों में, बच्चे क्रेच में और युवक अवसाद में हैं।
आज ओटीटी प्लेटफॉर्म, विज्ञापन, वेबसीरीज़ – सभी का एक अघोषित लक्ष्य है – विवाह संस्था को विकृत करना। ‘सैक्स इन द सिटी’, ‘गिल्टी माइंड्स’, ‘मिर्ज़ापुर’, ‘फेबुलस लाइव्स ऑफ बॉलीवुड वाइव्स’ जैसी श्रंखलाएं विवाह को एक बोझ, और स्वतंत्रता को स्वेच्छाचार के रूप में चित्रित करती हैं।
‘Q’ से आगे की यौन राजनीति
अब केवल LGBTQ तक बात सीमित नहीं रही। “क्वियर थ्योरी” के अनुसार यौन पहचान के 100 से अधिक प्रकार बताए जा रहे हैं। एक ओर 13 वर्ष की बच्ची को ‘सेक्स एजुकेशन’ के नाम पर गर्भनिरोधक सिखाए जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर पारंपरिक विवाह और पितृत्व को पितृसत्ता की कैद बताकर खारिज किया जा रहा है।
हमारा समाज अब ‘मैटरनल रेप’, ‘इंसेस्ट पोर्न’, और ‘लिव-इन रिलेशनशिप’ जैसी शब्दावलियों से भर गया है, जिन्हें खुलेआम प्रचारित किया जा रहा है। यह कोई आकस्मिक विकृति नहीं, अपितु सुनियोजित कल्चरल मार्क्सवादी षड्यंत्र है।
कल्चरल मार्क्सवाद : पहचान विखंडन की प्रयोगशाला
कल्चरल मार्क्सवाद एक ऐसा वैचारिक युद्ध है जो वर्ग संघर्ष को सांस्कृतिक संघर्ष में बदल देता है। इसका मूल उद्देश्य है – परंपरा, धर्म, परिवार और राष्ट्र की मूल अवधारणाओं को ध्वस्त करना। यह 3R सिद्धांत पर चलता है:
Resist (प्रतिरोध): प्राचीन मूल्यों का विरोध,
Reject (त्याग): पारंपरिक संस्थाओं का निषेध,
Rebel (विद्रोह): शेष बचे मूल्य-व्यवस्थाओं के विरुद्ध विद्रोह।
वामपंथी इस विमर्श के वाहक हैं और वैश्विक पूँजीपतियों से पोषित हैं। दुर्भाग्य यह है कि जो धर्म, विवाह, और संस्कृति की बात करता है, उसे पिछड़ा, कट्टर और प्रतिगामी कहा जाता है।
जब परिवार विघटित होता है – वैश्विक समाजों का दारुण यथार्थ
आज जब हम ‘आधुनिकता’, ‘स्वतंत्रता’, और ‘व्यक्तिगत अधिकारों’ के नाम पर पारिवारिक मूल्यों को तिलांजलि दे रहे हैं, तब हमें एक क्षण रुककर पश्चिमी देशों के अनुभवों से सीखना चाहिए – जिन्होंने परिवार व्यवस्था को पहले खोया और आज समाज व्यवस्था को भी।
1. अमेरिका : टूटे परिवार, टूटी पीढ़ियाँ
अमेरिका, जो आज विश्व की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति है, वहां 70% से अधिक अश्वेत बच्चे बिना पिता के परिवारों में पलते हैं।
FBI और U.S. Census Bureau के आँकड़ों के अनुसार:
85% किशोर अपराधी टूटी हुई पारिवारिक पृष्ठभूमि से आते हैं।
70% जेलों में बंद युवा एकल माता-पिता या अनाथ परिवेश से हैं।
Teenage pregnancy, gun violence, और drug abuse जैसी समस्याएं पारिवारिक विघटन से जुड़ी हैं।
2. स्कैंडिनेवियाई देश : उच्च जीवन स्तर, पर गहरी सामाजिक शून्यता
स्वीडन, नॉर्वे, डेनमार्क जैसे देशों में ‘सिविल यूनियन’, ‘लिव-इन रिलेशनशिप’ और ‘सिंगल मदरहुड’ को बढ़ावा देने के परिणामस्वरूप आज:
विवाह दर में भारी गिरावट आई है।
जन्मदर इतनी कम हो गई है कि जनसंख्या क्षीणता (population decline) की स्थिति बन गई है।
वृद्धों की देखभाल सरकारी संस्थानों तक सीमित हो गई है – “घर” अब जीवन का नहीं, मृत्यु की प्रतीक्षा का प्रतीक बन गया है।
3. जापान : आर्थिक चमत्कार, सामाजिक पतन
जापान, जहाँ अनुशासन और विकास की मिसाल दी जाती थी, वहां भी Hyper Individualism के कारण “Hikikomori” जैसे शब्द प्रचलन में आए –
लाखों युवा समाज से कटकर अकेलेपन में जी रहे हैं।
Low birth rate के चलते जापान की जनसंख्या में प्रतिवर्ष गिरावट आ रही है।
Robotic companionship को बढ़ावा मिल रहा है, क्योंकि सामाजिक संबंधों में गिरावट से व्यक्ति अब मशीनों के साथ अधिक सहज है।
4. चीन : ‘एक सन्तान नीति’ का सामाजिक प्रतिशोध
चीन ने आर्थिक विकास के लिए जब एक संतान नीति लागू की, तो प्रारंभ में यह सफल प्रतीत हुआ। परन्तु आज:
ज्येष्ठ नागरिकों की संख्या युवाओं से अधिक हो चुकी है।
Single child syndrome से ग्रस्त पीढ़ी में सामाजिक उत्तरदायित्वबोध न्यूनतम है।
अब सरकार स्वयं लोगों को दूसरी व तीसरी संतान के लिए प्रोत्साहन राशि दे रही है।
समाधान : परिवार से आरंभ होने वाली क्रांति
परिवार का संरक्षण अब केवल भावनात्मक नहीं, राजनीतिक और सांस्कृतिक आवश्यकता बन चुका है। यदि परिवार बचा, तो धर्म बचेगा; यदि धर्म बचा, तो संस्कृति बचेगी; और यदि संस्कृति बचेगी, तभी राष्ट्र बचेगा।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने पंचप्रण में ‘कुटुम्ब प्रबोधन’ को इसी कारण प्रमुख स्थान दिया है। यह केवल संस्कार की बात नहीं है, यह संघर्ष का प्रारंभिक मोर्चा है।
हमें अपने बच्चों को ‘क्या बनना है’ से पहले यह सिखाना होगा कि “हम कौन हैं?”
हमें उन्हें मोबाइल से अधिक माता-पिता की गोद देनी होगी।
हमें मंदिर से अधिक मॉल में जाने वाली संस्कृति को पुनर्विचार करना होगा।
हमें अपने शास्त्रों से संवाद पुनः स्थापित करना होगा।
और सबसे महत्वपूर्ण – हमें यह स्वीकार करना होगा कि हमारी समस्या आर्थिक या राजनैतिक नहीं, वैचारिक और पारिवारिक है।
एक संकल्प : तीन पीढ़ियाँ समर्पित करें
यदि आज हम अपने जीवन का कुछ भाग संघ, समाज, और संस्कृति के लिए समर्पित करें – तो हमारी अगली पीढ़ियाँ गौरवशाली भारत को पुनः देख सकेंगी।
हमें तीन पीढ़ियों तक का त्याग करना होगा – तभी यह राष्ट्र अपनी वैभवशाली परंपरा को पुनः प्राप्त कर सकेगा
✍️Deepak Kumar Dwivedi
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें