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सनातन विचार ही वह प्रकाश है, जहाँ से जीवन, धर्म और कर्तव्य—तीनों का सत्य प्रकट होता है।
प्रस्तुतकर्ता
Deepak Kumar Dwivedi
को
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मैंने जब पहली बार भारत की आत्मा को टटोलने की कोशिश की, तो वह गांव के कुएं के पास बैठी उन साड़ियों में लिपटी औरतों के बीच दिखाई दी, जो अपने दुख-सुख साझा कर रही थीं, चाहे वे किसी भी जाति की हों। मैंने उसे उस गुरुकुल में देखा जहाँ एक ब्राह्मण आचार्य अपने शिष्यों को वेद पढ़ा रहा था—बिना इस बात की परवाह किए कि शिष्य किस कुल में जन्मा है। परंतु आज, जब वही भारत अपने ही समाज को जातियों में बांटता दिखाई देता है, तो लगता है मानो उस आत्मा पर कोई अदृश्य घाव कर गया हो।
यह विडंबना नहीं, एक सुनियोजित षड्यंत्र का परिणाम है। भारत को जातीय खांचों में बांटने की प्रक्रिया अचानक नहीं हुई। यह इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने की एक लंबी योजना का हिस्सा रही है, जिसमें यह प्रचारित किया गया कि आर्य बाहर से आए आक्रांता थे, जिन्होंने इस भूमि के मूल निवासियों को गुलाम बनाया। यह विचार, जिसने कभी अंग्रेजों की साम्राज्यवादी नीतियों को बौद्धिक खाद दी थी, आज भारत के ही कुछ नेता और बुद्धिजीवी आत्मसात कर चुके हैं।
आज जब राहुल गांधी जैसे नेता कहते हैं कि भारत की सत्ता पर 'सवर्णों' का एकाधिकार रहा है और दलितों, पिछड़ों को शिक्षा और अवसरों से वंचित रखा गया, तो भीतर से एक पीड़ा जन्म लेती है। क्या उन्होंने कभी यह जानने की कोशिश की है कि कौन थे वे लोग जिन्होंने वेद रचे? क्या केवल ब्राह्मणों ने? क्या वेदांत केवल ब्राह्मणों की संपत्ति थी? नहीं। वेदव्यास, जिनका जन्म एक निषाद माता से हुआ था, वे ही तो संपूर्ण वेदों के संकलक और महाभारत जैसे महाकाव्य के रचयिता थे। रामायण के रचयिता वाल्मीकि थे, जिनकी सामाजिक पहचान आज ‘दलित’ के रूप में की जाती है, लेकिन जिनके चरित्र को भारतीय समाज ने कभी किसी जातिगत खांचे में नहीं बांधा।
इतिहास के साथ किया गया यह अन्याय आज केवल बौद्धिक विमर्श नहीं, बल्कि सामाजिक विभाजन का हथियार बन गया है। यह कथित 'बहुजन' विमर्श, जिसमें पिछड़े, दलित, आदिवासी, मुस्लिम—सबको एक ही खेमे में खड़ा कर दिया गया है, वह स्वयं में एक राजनीतिक प्रयोग है। इस प्रयोग का उद्देश्य केवल सत्ता पाना नहीं, बल्कि सनातन समाज के भीतर इतनी दीवारें खड़ी कर देना है कि वह फिर कभी एक न हो पाए।
वास्तविकता यह है कि भारत का हर वर्ग—चाहे वह ब्राह्मण हो या बनिया, यादव हो या दलित, हर कोई किसी न किसी रूप में संघर्ष करता रहा है। ब्राह्मण, जिसे आजकल सबसे अधिक कोसा जाता है, वह कोई साम्राज्यवादी वर्ग नहीं था। वह तो प्रायः निर्धन, त्यागी, गांव में बसने वाला, वेद-पुराणों का रक्षक था। मैंने स्वयं देखा है—पांचवीं पीढ़ी से पुजारी का काम कर रहा ब्राह्मण आज चाय की दुकान चला रहा है, लेकिन उसे कोई ‘वंचित’ नहीं मानता, क्योंकि वह ‘आरक्षण’ की परिभाषा में नहीं आता।
कभी-कभी सोचता हूँ, हम जिन घावों को अपना समझकर सहला रहे हैं, क्या वे वास्तव में हमारे हैं? या वे कोई विदेशी विचार है, जो हमारे मन में इस कुशलता से बो दिया गया है कि हम उसे अपनी पीड़ा मान बैठे हैं?
क्रिटिकल रेस थ्योरी, जो जर्मनी के फ्रैंकफर्ट स्कूल की कल्चरल मार्क्सवाद की 11 सिद्धांतों में पहला और महत्वपूर्ण सिद्धांत है, मूलतः नस्लीय और जातिगत भेदभाव के सामाजिक और संस्थागत स्वरूपों को समझने का प्रयास करती है। इसे अमेरिका में नस्लीय अन्याय के संदर्भ में अपनाया गया, जहां इसने नस्लीय न्याय की बहस को नया आयाम दिया।
अब यह विचार भारत में जाति के नाम पर उतारा गया। हमारे यहाँ कहा जाने लगा कि समाज में जो भी ऊँचाई पर है, वह शोषक है; और जो नीचे है, वह पीड़ित। किसी के गुण, प्रयास, आचरण की कोई कीमत नहीं रही — केवल उसकी जाति ही उसकी पहचान बन गई। यह वही क्रिटिकल रेस थ्योरी है, जो अमेरिका से भारत आते-आते "कास्ट थ्योरी" बन गई — और अब इसे किताबों, मंचों, और राजनीतिक भाषणों में दोहराया जा रहा है।
राहुल गांधी जब यह कहते हैं कि प्रोफेसर दलित छात्रों को जानबूझकर कम नंबर देते हैं, तो वे एक ऐसी विचारधारा को हवा दे रहे होते हैं जो सीधे-सीधे "क्रिटिकल रेस थ्योरी" का जातिगत संस्करण है। यह वही ‘कल्चरल मार्क्सवादी’ षड्यंत्र है जिसने पहले नस्लवाद को ‘स्ट्रक्चरल रेसिज्म’ का नाम देकर अमेरिका को भीतर से तोड़ा, और अब उसी फार्मूले को भारत में लागू किया जा रहा है। यहाँ जाति को उत्पीड़न का शाश्वत पैमाना बना दिया गया है, जिससे हर पीढ़ी एक नई पीड़ा में पले और हर चुनाव एक नई नफरत में जीता जाए।
सच तो यह है कि आज भारत में जिस तरह की ‘जातीय चेतना’ को प्रोत्साहित किया जा रहा है, वह इतिहास के दस्तावेज़ों, आंकड़ों और सांस्कृतिक स्मृति—तीनों के विरुद्ध है। 1914 की जनगणना को देखिए, जिसमें कथित अछूत वर्ग कुल जनसंख्या का एक छोटा प्रतिशत थे। लेकिन अब राजनीतिक आंकड़ेबाज़ी ने उन्हें ‘85% बहुजन’ बना दिया है। यह आकड़ों का नहीं, विचारों का छल है।
इतिहास में कितने उदाहरण हैं जहाँ निम्न कही जाने वाली जातियों ने शासन किया। चोल वंश, पल्लव, गुप्त, मौर्य—कितनों का नेतृत्व तथाकथित गैर-ब्राह्मण जातियों ने किया। किसी ने उन्हें रोका नहीं, उनका तिरस्कार नहीं किया। भारत की परंपरा ने उन्हें अपनाया, सम्मान दिया।
लेकिन आज जब सनातन मूल्यों को काटने के लिए झूठे ऐतिहासिक आख्यान रचे जाते हैं, तुलसीदास और मनु जैसे महापुरुषों को गालियाँ दी जाती हैं, तब समझना चाहिए कि यह केवल अज्ञान नहीं है, यह उस वैचारिक युद्ध की रणनीति है जिसका लक्ष्य है भारत की जड़ों को काट देना।
और सबसे करुण दृश्य तो यह है कि आज का सवर्ण समाज, जो देश की स्वतंत्रता से लेकर राष्ट्र की शिक्षा और रक्षा तक हर संघर्ष में सबसे आगे रहा, वही आज सबसे अधिक अपमानित किया जा रहा है। उसे गालियाँ दी जाती हैं, दोषी ठहराया जाता है, उसकी पीड़ा को पीड़ा नहीं माना जाता। वह चुप है, शायद इसलिए कि उसे आरक्षण नहीं मिला, शायद इसलिए कि उसे 'वंचित' कहलाने का राजनीतिक अधिकार नहीं मिला।
यह विवाद केवल जाति का नहीं है; यह प्रश्न उस सनातन परंपरा का है, जिसने समाज को केवल चार वर्णों में नहीं बांटा, बल्कि ज्ञान, सेवा, रक्षण और उत्पादन की अखंड व्यवस्था में पिरोया। ब्राह्मण परंपरा इस व्यवस्था की आत्मा थी— न वह शासक रहा, न धन का स्वामी, परंतु वह समाज की अंतरात्मा बनकर दिशा देता रहा। उसने भिक्षाटन किया, किन्तु कभी भीख नहीं माँगी; उसने तप किया, किन्तु उसका लक्ष्य कभी स्वार्थ नहीं रहा।
आज उसी परंपरा को शोषण का प्रतीक बताकर लांछित किया जा रहा है। उसे 'प्रिविलेज' कहकर कलंकित करने की चेष्टा की जा रही है, जबकि सच्चाई यह है कि ब्राह्मणों ने अपने अधिकार नहीं, अपने दायित्व जिए हैं। उन्होंने अग्नि में आहुति दी, आत्मा में ज्ञान की आभा जगाई, और समाज को धर्म की चेतना दी।
सनातन धर्म कभी उत्पीड़न की भूमि नहीं रहा। यह वह परंपरा है जहाँ गंगा भी शूद्र कुल की स्त्री के द्वार पर आकर बहती है, जहाँ शबरी के झूठे बेर प्रभु राम का प्रसाद बनते हैं, और जहाँ चांडाल को भी महाभारत का महाप्रसंग सुनाया जाता है।
जो लोग आज ब्राह्मण परंपरा को “जातिवादी” कहकर धिक्कारते हैं, वे केवल अपने अज्ञान से बोलते हैं— या फिर किसी वैदेशिक षड्यंत्र की भाषा दोहरा रहे हैं। उन्हें न धर्म का बोध है, न इतिहास का; वे केवल क्रिटिकल थ्योरी की आँधी में जड़ें उखाड़ना चाहते हैं।
किन्तु हम…
हम सनातन के साधक हैं।
हम उस परंपरा के वंशज हैं, जिसने शिव से लेकर तुलसी तक, व्यास से लेकर अंबेडकर तक— सबको एक ही महामंत्र में पिरोया
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया,
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुख भागभवेत।
अब समय आ गया है कि हम इस दिव्य परंपरा के पुनरुत्थान हेतु उठें— तर्क से, श्रद्धा से और अडिग आत्मविश्वास से।
क्योंकि यह केवल विचारों की लड़ाई नहीं, “संस्कृति और अस्मिता के अस्तित्व” की लड़ाई है।।
✍️दीपक कुमार द्विवेदी
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