तुर्की आज जिस संस्कृति में दीक्षित है, वह उस देश की नहीं है, उसने अपने पुरखों को भुला दिया है। उसने अपनी प्राचीन व्यवस्था और धर्म को मिटा कर स्वयं को देव संस्कृति से दूर कर आसुरी व्यवस्था में समाहित कर लिया है।
मध्य तुर्की में एक स्थान है एशिया माइनर, वहां पर एक जगह है बोगाजकोई। विंकलर ने इस जगह से एक अभिलेख खोजा जिसके अनुसार करीब आज से 3400 वर्ष पूर्व यानी 1400 BC के आस पास वहां दो राज्यों के बीच एक युद्ध हुआ। ये राज्य थे हित्ती और मितन्नी। युद्ध के पश्चात इन दोनों में संधि हुई। हित्तियों के राजा सुपिलुलियुमा और मितन्नीयों के दुषरत या दशरथ थे।
इस संधि की सबसे विशिष्ट बात यह है कि इसमें वैदिक देवताओं इन-दा-रा, मि-ता-रा, यू-रु-वान और ना-सा-ति-य को साक्षी बनने के लिए आमंत्रित किया गया था, अश्विनी कुमार आशीर्वाद देने उपस्थित थे । जिन नामों को मैं लिख रहा हूं वे स्पष्ट रूप से वैदिक हैं । मितन्नी नामों को थोड़ा और विस्तार देते हैं तो मामला और स्पष्ट हो जाएगा।
मित्तानी साम्राज्य 1600 BC से 1200 BC तक पश्चिम एशिया में शासन किया। इस वंश के सम्राटों के संस्कृत नाम थे। ऐसा माना जाता है की महाभारत के पश्चात भारत से वहां प्रवासी बने। इनकी राजधानी वसुखानी थी जिसका अर्थ धन का स्थान होता है। प्रमुख राजाओं में कीर्त्य, सत्वर्ण, आर्त्तम, दशरथ, सत्वर और वसुक्षत्र थे।
बोगाजकोई अभिलेख कीलक लिपि में है, संस्कृत शब्दों का प्रयोग हुआ है और ऋग्वेद में जिस क्रम में इंद्र, मित्र, वरुण और नासत्य के नाम का प्रयोग होता है उसी रूप में वहां भी उल्लेखित है।
इसका अर्थ यह है कि संस्कृत निर्विवाद रूप से उस समय राजवंशों की बोली रही होगी, लिपि अलग अलग हो सकती है। दूसरा ऋग्वेद कम से कम 2000 BC पहले रचे जाने की पुष्टि होती है।
सिंधु घाटी और वैदिक सभ्यता थोड़े बहुत अंतर से एक ही थी। आर्यों का प्रवजन भारत से तुर्की समेत अन्य देशों में हुआ। जो टॉक्सिक नवबौद्ध संस्कृत को गुप्तकाल की भाषा मानते हैं वह भी इस लेख को पढ़कर आंखे खोल लें।
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