आज भारत जिन संकटों से जूझ रहा है, वह इस्लामिक कट्टरता से भी कहीं अधिक व्यापक और सूक्ष्म है। वह संकट तीन मोर्चों से आ रहा है—और इन तीनों की दिशा, लक्ष्य और प्रेरणा स्पष्टतः एक ही है : हिन्दू समाज का विघटन, उसकी स्मृति का लोप, और उसकी परंपरा का विनाश।
1 पहला मोर्चा : ग्लोबल मार्केट फोर्सेज़ और कल्चरल मार्क्सवाद
आज हिन्दू समाज जिस संकट से सबसे पहले टकराता है, वह बाहरी शत्रु नहीं, बल्कि मनोरंजन, शिक्षा, मीडिया, सोशल मीडिया और न्यायपालिका के भीतर छिपा हुआ कल्चरल मार्क्सवाद है।
इस विचारधारा का जन्म यूरोप में हुआ, पर इसे भारत जैसे देशों में लागू करने का कार्य वैश्विक पूँजीवादी कंपनियाँ, वामपंथी एनजीओ और पश्चिम समर्थित संस्थान कर रहे हैं। इनका मूल सिद्धांत है कि हिन्दू समाज की बुनियादी संस्थाएँ—जैसे परिवार, धर्म, जाति, भाषा, शील, देवी-देवता और रीति-रिवाज़—को नष्ट कर देना चाहिए, ताकि उसे वैश्विक बाज़ार के लिए "अनुकूल उपभोक्ता" बनाया जा सके।
यह हमला तलवार से नहीं होता। यह हमला उस मोबाइल स्क्रीन पर होता है, जिस पर कोई बच्चा हिन्दू देवी की हास्यास्पद कार्टून देखता है, वह वेब सीरीज़ जिसमें ब्राह्मण बलात्कारी है, वह रील जिसमें मंदिर का मज़ाक है, और वह स्कूल की किताब जिसमें रामायण "मिथक" है।
एंटोनियो ग्राम्शी की “हेजेमनी थ्योरी”
हर्बर्ट मार्क्यूज़ का “रिप्रेसिव टॉलरेंस”
क्रिटिकल रेस थ्योरी
वोकिज्म
LGBTQ+ एक्टिविज़्म
फेमिनिज़्म
DEI एजेंडा
यह सब हिन्दू समाज के अस्तित्व की रेखाओं पर एक मंथर गति से चलता हुआ आक्रमण है।
2. दूसरा मोर्चा : नवबौद्ध अंबेडकरवादी आंदोलन का हिन्दू-विरोधी संस्करण
आज भारत के भीतर से उठता हुआ दूसरा मोर्चा नवबौद्ध या तथाकथित अंबेडकरवादी आंदोलन है, जिसे बाबा साहब की वैधानिक चेतना से कोई संबंध नहीं रह गया है। यह आंदोलन अब पूरी तरह हिन्दू समाज के विरुद्ध वैमनस्य, अपमान और टकराव की भाषा में बदल गया है।
यह आंदोलन ब्राह्मण विरोध के नाम पर गीता, रामायण, वेद, उपनिषद, यहाँ तक कि देवी-देवताओं तक को अपमानित करता है।
ये संस्थाएं खुलेआम “हम हिन्दू नहीं हैं”, “हिन्दू धर्म नरक है” जैसे नारे लगाती हैं।
‘मनुस्मृति दहन दिवस’, ‘ब्राह्मणों का संहार करो’, ‘राम राक्षस है’ जैसे विमर्श अब सामान्य होते जा रहे हैं।
इस आंदोलन को वामपंथी शिक्षकों, इस्लामी लॉबी, चर्च फंडिंग और अंतरराष्ट्रीय जाति-विरोधी मंचों से निरंतर समर्थन मिल रहा है। यह आन्दोलन हिन्दू समाज को अंदर से फाड़ने की वह ताकत बन चुका है, जो बाहरी आक्रमण की आवश्यकता ही नहीं रहने देगा।
3. तीसरा मोर्चा : हिन्दू समाज की वैचारिक निष्क्रियता
इस समूचे परिदृश्य में जो सबसे घातक तत्व है, वह है—हिन्दू समाज की मूर्छा। उसके पास सब कुछ है—इतिहास, संख्या, परंपरा, भूगोल—परन्तु आत्मचेतना नहीं है। वह भूल चुका है कि संघर्ष अब तलवारों से नहीं, पाठ्यपुस्तकों, यूट्यूब चैनलों, इंस्टाग्राम रीलों, OTT श्रृंखलाओं और न्यायिक फैसलों से लड़ा जा रहा है।
हिन्दू समाज उस कछुए की भांति हो गया है, जो बाहरी खतरे से डर कर अपने खोल में छिप जाता है, यह मानकर कि संकट टल जाएगा। पर संकट अब उसी खोल के भीतर प्रवेश कर चुका है। उसका धर्म, भाषा, भोजन, इतिहास, रीति, परंपरा—सब कुछ अब आलोचना के घेरे में है, और वह स्वयं मौन साधे बैठा है।
और इस सबके बीच इस्लाम?
वह तो सदैव वही है—सीधा, स्पष्ट, और अपने लक्ष्य के प्रति ईमानदार। वह मतांतरण करेगा, तलवार चलाएगा, 'दार-उल-इस्लाम' की स्थापना चाहेगा—यह उसका स्थायी स्वरूप है। परन्तु अब वह अकेला नहीं है। अब उसके साथ खड़ी है वामपंथी विश्वविद्यालय संस्कृति, बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ, नवबौद्ध विद्वेष, और एक मौन हिन्दू समाज।
अब यह संग्राम केवल 'हिन्दू बनाम मुसलमान' नहीं है।
अब यह संघर्ष है—
'हिन्दू चेतना बनाम आब्राह्मिक विचारधारा' का।
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